एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 20: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत स्पेशल कोर्ट में ट्रायल

Shadab Salim

15 Nov 2023 5:39 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 20: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत स्पेशल कोर्ट में ट्रायल

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 36(क) इस अधिनियम की विशेष धारा है, जहां अभियुक्त का ट्रायल स्पेशल कोर्ट में किए जाने संबंधित प्रावधान किए गए हैं। यह धारा विस्तृत धारा है जो ट्रायल का स्पेशल कोर्ट द्वारा किए जाने के साथ ही अभियुक्त को पहली बार अदालत के समक्ष पेश किए जाने संबंधी प्रावधान भी करती है।

    सामान्य अपराधों में अभियुक्त को दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है लेकिन एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत अभियुक्त को स्पेशल कोर्ट में प्रस्तुत किया जाता है जो इस धारा के प्रावधान के अंतर्गत ही है। साथ ही यह धारा रिमांड से संबंधित प्रावधान भी निर्धारित करती है। इस आलेख के अंतर्गत इस ही धारा से संबंधित विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है-

    धारा 36(क) विशेष न्यायालयों द्वारा विचारणीय अपराध (1) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी,

    (क) इस अधिनियम के अधीन ऐसे सभी अपराध, जो कि तीन वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय हैं, उस क्षेत्र के लिए, जिसमें अपराध किया गया है, गठित विशेष न्यायालय द्वारा हो या जहां ऐसे क्षेत्र के लिए एक से अधिक विशेष न्यायालय है वहां, उनमें से ऐसे एक के द्वारा ही, जिसे सरकार द्वारा इस निमित विनिर्दिष्ट किया जाए, विचारणीय होंगे।

    (ख) जहां इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के अभियुक्त या उसके किए जाने के संदेहयुक्त किसी व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 167 की उपधारा (2) या उपधारा (2क) के अधीन किसी मजिस्ट्रेट को भेजा जाता है, वहां ऐसे मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति को ऐसी अभिरक्षा में, जो वह उचित समझे, कुल मिलाकर पन्द्रह दिन से अनधिक की अवधि के लिए, जहां ऐसा मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट है और कुल मिलाकर सात दिन की अवधि के लिए, जहां ऐसा मजिस्ट्रेट, कार्यपालिक मजिस्ट्रेट है, निरोध के लिए प्राधिकृत कर सकेगा : परंतु ऐसे मामलों में जो कि विशेष न्यायालय के द्वारा विचारयोग्य हैं जहां ऐसा मजिस्ट्रेट का-

    (i) जब ऐसा व्यक्ति पूर्वोक्त रुप में उसको भेजा जाता है; या

    (ii) उसके द्वारा प्राधिकृत निरोध की अवधि की समाप्ति पर या उसके पूर्व किसी भी समय यह विचार है कि ऐसे व्यक्ति का निरोध अनावश्यक है, वहां वह ऐसे व्यक्ति को अधिकारिता रखने वाले विशेष न्यायालय को भेजे जाने का आदेश करेगा,

    (ग) विशेष न्यायालय, उपखंड (ख) के अधीन उसको भेजे गए किसी व्यक्ति के संबंध में उसी शक्ति का प्रयोग कर सकेगा जिसका प्रयोग किसी मामले का विचारण करने की अधिकारिता रखने वाला मजिस्ट्रेट, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 167 के अधीन ऐसे मामले में किसी अभियुक्त व्यक्ति के संबंध में, जिसे उस धारा के अधीन उसको भेजा गया है, कर सकता है।

    1) विशेष न्यायालय इस अधिनियम के अधीन अपराध गठित करने वाले तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट का परिशीलन करने पर या केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार के इस निमित्त प्राधिकृत किसी अधिकारी द्वारा किए गए परिवाद पर, अपराधी को विचारण के लिए उसको सुपुर्द न किए जाने की दशा में भी उस अपराध का संज्ञान कर सकेगा।

    (2) इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध का विचारण करते समय, विशेष न्यायालय इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध से भिन्न ऐसे अपराध का भी विचारण कर सकेगा जिसके लिए अभियुक्त को, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अधीन उसी विचारण में आरोपित किया जा सकता है।

    (3) इस धारा की कोई भी बात दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 439 के अधीन जमानत से संबंधित उच्च न्यायालय की विशेष शक्तियों को प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी और उच्च न्यायालय ऐसी शक्तियों का प्रयोग, जिसके अंतर्गत उस धारा की उपधारा (1) के खंड (ख) के अधीन शक्ति भी है, ऐसे कर सकेगा मानो उस धारा में "मजिस्ट्रेट" के प्रति निर्देश के अंतर्गत धारा 36 के अधीन गठित "विशेष न्यायालय" के प्रति निर्देश भी हैं।

    (4) धारा 19 या धारा 24 या धारा 27 के अधीन दंडनीय अपराध या वाणिज्यिक मात्रा अंतर्ग्रस्त करने वाले अपराधों के संबंध में अभियुक्त होने वाले व्यक्तियों के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 167 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट "नब्बे दिवसों" जहां वे आए हों उनके संबंध में "एक सौ अस्सी दिवसों" के संदर्भ के रूप में अर्थान्वयन किया जाएगा।

    परंतु यह कि, यदि कथित एक सौ अस्सी दिवसों की अवधि के भीतर अन्वेषण पूर्ण होना संभव न हो, तो विशेष न्यायालय लोक अभियोजक की इस रिपोर्ट पर जो अन्वेषण की प्रगति एवं एक सौ अस्सी दिवसों की कथित अवधि से परे अभियुक्त के निरुद्ध किए जाने के विनिर्दिष्ट कारणों को इंगित करती हो कथित अवधि को एक वर्ष के रूप में विस्तारित कर सकेगा।

    (5) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में अंतर्निहित किसी बात के होते हुए भी, इस अधिनियम के तहत तीन वर्षों से अनाधिक अवधि के निरोध से दंडनीय अपराधों का संक्षिप्त तौर पर विचारण किया जा सकेगा।

    कमरलाल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, मिसलेनियस क्रमिनल केस क्रमांक 664/90 के मामले में मजिस्ट्रेट के द्वारा न्यायिक अभिरक्षा के आदेश की सीमा स्पष्ट की गई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि न्यायिक मजिस्ट्रेट को 15 दिवसों से अधिक की न्यायिक अभिरक्षा में अभियुक्त को रखे जाने का अधिकार नहीं है। यदि अन्यथा अवधि का निरोध आवश्यक हो तो उस दशा में जबकि विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति हो गई हो अभियुक्त को विशेष न्यायाधीश के समक्ष भेजा जाना चाहिए यदि विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति न हुई हो तो सत्र न्यायाधीश के समक्ष भेजा जाना चाहिए।

    इंस्पेक्टर ऑफ कस्टम एचक्यूआरएस बनाम बेट्रेंड, 2011 क्रिलॉज 1136 कर्नाटक के मामले में कहा गया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के तहत जमानत आवेदन पर विचार करने से अनिच्छा अभियुक्त से जप्त स्वापक पदार्थ व्यवसायिक मात्रा की श्रेणी में आता था। अन्वेषण पूरा करने व परिवाद आरंभ करने के संबंध में 180 दिवस की अवधि अभियुक्त की गिरफ्तारी की दिनांक से होना मानी गई। यह स्पष्ट किया गया कि विशेष न्यायाधीश के द्वारा रिमांड की अवधि का विस्तार किया जा सकता था। परिणामतः अभियुक्त के द्वारा द.प्र.सं. की धारा 167(2) के तहत अभियुक्त के जमानत आवेदन पर विचार करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो बनाम किशनलाल, 1991 (1) ग प्र बी मो 142 सुप्रीम कोर्ट के मामले में हाई कोर्ट ने दो याचिकाओं के संबंध में कॉमन आदेश पारित किया था और अभिनिर्धारित किया था कि अधिनियम की संशोधित धारा 37 के अधीन कतिपय अपराधों में जमानत प्रदान करने के संबंध में अदालत की शक्तियों पर जो प्रतिबंध अधिरोपित किया गया है वह हाई कोर्ट के लिए प्रयोज्य नही होता है। देहली हाई कोर्ट के इस निर्णय से नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो ने स्वयं को व्यथित होना माना था और उसने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कार्यवाही की थी।

    यह व्यक्त किया कि हाई कोर्ट ने धारा 36क की उपधारा (3) को विचार में लेते हुए यह माना था कि विशेष न्यायालय पर अधिरोपित परिसीमाओं को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत शक्तियों का प्रयोग करने के लिए बेड़ियों के रूप में होना नहीं माना जा सकता है। इस संबंध में देहली हाई कोर्ट की खंडपीठ ने आतंकवादी और विध्वंसकारी क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 (टाडा अधिनियम) की धारा 20 उपधारा (8) व (9) को संदर्भित किया था जो कि एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 के समरुप थीं। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के न्याय दृष्टांत उसमान भाई दाउद भाई बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 1988 (2) सुप्रीम कोर्ट केस 271 पर भी निर्भरता व्यक्त की थी।

    सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्त किया कि यथा संशोधित अधिनियम की धारा 37 इस गैर सर्वोपरि खण्ड से आरंभ होती है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में अंतर्निहित किसी बात के होते हुए भी इसमें प्रावधानित अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को जमानत पर निर्मुक्त नहीं किया जाएगा जब तक कि उसमें वर्णित शर्तों की संतुष्टि न हो जाए। एनडीपीएस एक्ट एक विशेष अधिनियम है। नारकोटिक्स ड्रग्स और साइकोट्रॉपिक पदार्थ से संबंधित क्रियाकलापों को नियंत्रित व विनियमित करने के लिए कठोर प्रावधान बनाने की दृष्टि से अधिनियम सृजित किया गया है।

    इस प्रयोजन को दृष्टिगत रखते हुए व दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों को जमानत के संबंध में प्रयोज्य करने के क्षेत्र को सीमित करने के तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि हाई कोर्ट की दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत जमानत प्रदान करने की शक्ति अधिनियम की धारा 37 में वर्णित परिसीमा के अध्यधीन नहीं है। अधिनियम की धारा 37 जिस गैर सर्वोपरि खंड से आरंभ होती है उसे समुचित अर्थ दिया जाना चाहिए। यह स्पष्ट तौर पर जमानत प्रदान करने की शक्तियों को निर्बंधित करने के रूप में है।

    हरवंश सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 1999 क्रिलॉज 3071 पंजाब-हरियाणा के मामले में 1989 के संशोधन अधिनियम क्रमांक 2 के द्वारा संशोधन अधिनियम की धारा 36-क (1) को 1989 के संशोधन अधिनियम क्रमांक 2 के द्वारा संशोधित किया गया है। मामले में अभियुक्त ने इस आधार पर जमानत चाही थी कि मजिस्ट्रेट के द्वारा अन्यथा रिमांड की कार्यवाही की गई थी। इस तर्क को स्वीकार नहीं किया गया। उस न्यायालय ने व्यक्त किया कि विशेष न्यायालय के गठन होने तक मजिस्ट्रेट को अन्यथा रिमांड करने की शक्ति प्राप्त होगी। परिणामतः जमानत की प्रार्थना अमान्य कर दी गई।

    सशक्त न होने वाले न्यायालय के द्वारा विचारण

    घूदन बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 1994 (2) मप्र वीकली नोट्स 15 मप्र के मामले में अधिनियम की धारा 20 के तहत की गई उसकी दोषसिद्धि को चुनौती दी थी। प्रकरण में अधिनियम की धारा 36क (1) (क) के प्रावधान को संदर्भित किया गया। जो इस प्रकार है-

    "36क. (1) विशेष न्यायालयों द्वारा विचारणीय अपराध दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी,-

    (क) इस अधिनियम के अधीन ऐसे सभी अपराध, जो तीन वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय है, उस क्षेत्र के लिए, जिसमें अपराध किया गया है, गठित विशेष न्यायालय द्वारा हो या जहां ऐसे क्षेत्र के लिए एक से अधिक विशेष न्यायालय है वहां उनमें से ऐसे एक के द्वारा ही, जिसे सरकार द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट किया जाए, विचारणीय होंगे।"

    यह तर्क दिया गया कि आक्षेपित निर्णय से स्पष्ट था कि इसे तृतीय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश छिंदवाड़ा के द्वारा उद्घोषित किया गया था। निर्णय में यह दर्शित करने के लिए कुछ नहीं था कि कथित न्यायाधीश अधिनियम की धारा 36क के तहत गठित किसी विशेष न्यायालय का प्रभारी अधिकारी था। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला गया कि मामले में ऐसे न्यायालय में विचारण हुआ था जो कि अधिनियम के अंतर्गत अपराध का विचारण करने के लिए सशक्त नहीं किया गया था। अभियुक्त को दोषमुक्ति की पात्रता मानी गई।

    हरवंश सिंह के मामले में अधिनियम की धारा 36-क (1) (ग) एवं (घ) का संयुक्त तौर पर अध्ययन किया गया। अध्ययन उपरांत यह निष्कर्ष निकाला गया कि विशेष न्यायालय के गठन न होने तक अधिनियम की धारा 36-क (1) (ख) के अंतर्गत 15 दिवस का प्रारंभिक रिमांड दिए जाने के उपरांत अन्यथा रिमांड मजिस्ट्रेट के द्वारा दिया जाएगा। मजिस्ट्रेट के अलावा अन्य न्यायालय अन्यथा रिमांड की शक्ति नहीं रखेगा।

    बलजीत सिंह बनाम स्टेट ऑफ आसाम, 2004 (3) क्राइम्स 433 गुवाहाटी के मामले में अधिनियम की धारा 36क उच्च न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 29 एवं 30 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करने के संबंध में अपील, निर्देश एवं पुनरीक्षण बाबत् अधिकारिता प्रदान करती हैं। यह इस रूप में होती है मानो उच्च न्यायालय की अधिकारिता के अधीन होने वाला विशेष न्यायालय कथित उच्च न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता के अधीन विचारण करने वाला सत्र न्यायालय हो।

    मो. मलेक बनाम प्रांजल बरदलाय, 2005 क्रि. लॉज. 2613 सुप्रीम कोर्ट के प्रकरण में इस आशय का तर्क दिया गया था कि गिरफ्तारी वांरट जारी करने की शक्ति मात्र मजिस्ट्रेट में विहित है न कि विशेष न्यायालय में । यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिनियम की धारा 41 विशेष न्यायालय में अधिनियम की धारा 36क के द्वारा विहित शक्तियों को परे नहीं करती है। अतः उक्त तर्क को स्वीकार योग्य नहीं माना गया।

    राजकुमार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 1990 (2) म प्र वीकली नोट्स 58 के मामले में पुलिस स्टेशन के प्रभार की शक्तियों को विहित करने वाले अन्य विभाग के अधिकारीगण को दण्ड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 12 के अधीन अन्वेषण की शक्ति धारित करने वाला नहीं पाया गया। हाई कोर्ट ने अधिनियम की धारा 36क के प्रावधान को संदर्भित किया। धारा 36क के खण्ड (घ) के प्रावधान का परिशीलन किया गया। इस खण्ड से यह स्पष्ट तौर पर दर्शित था कि यदि अन्वेषण को पुलिस के द्वारा संचालित किया जाता है तो इसे पुलिस रिपोर्ट के रूप में निष्कर्षित किया जाएगा परंतु यदि अन्वेषण को डीआरआई समेत अन्य किसी विभाग के अधिकारीगण के द्वारा किया जाता है तो विशेष न्यायालय को संबंधित प्राधिकृत अधिकारी की औपचारिक शिकायत पर अपराध का संज्ञान लेना होगा।

    कमल नारायण बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2011 क्रिलॉज 612 छत्तीसगढ़ के मामले में यदि संहिता की धारा 167 (2) में विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर चालान प्रस्तुत करने में विफलता होती है और अभियुक्त जमानत देने के लिए तैयार हो व जमानत की शर्तों का पालन करने के लिए तैयार हो तो जमानत का आदेश पारित किया जाना चाहिए। यह भी स्पष्ट किया गया कि अभियुक्त के पक्ष में यह अपराजेय अधिकार उस समय उत्तरजीवी अथवा प्रभावी किए जाने योग्य नहीं रहेगा जबकि चालान प्रस्तुत कर दिया गया हो और इसके पूर्व उस अधिकार का उपयोग न किया गया हो।

    अभियुक्त के द्वारा इसको पूर्व में हासिल न किया गया हो इस वाक्यांश का निर्वाचन किया गया। विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या इसका अभिप्राय यह होगा कि अभियुक्त जमानत के लिए आवेदन प्रस्तुत कर दे और जमानत पर निर्मुक्त होने की उसकी इच्छा को प्रस्तावित कर दे अथवा इसका मतलब यह होगा कि एक जमानत आदेश पारित होना चाहिए व अभियुक्त को जमानत प्रस्तुत करना चाहिए एवं उसे जमानत पर निर्मुक्त होना चाहिए।

    उब न्यायालय ने व्यक्त किया कि उसकी यह राय है कि यह अभिनिर्धारित करना विधायिका की अधिक संगतता में होगा कि अभियुक्त को उसके अपराजेय अधिकार को हासिल करने के रूप में उस समय मान लेना चाहिए जिस क्षण कि यह जमानत पर निर्मुक्त होने के लिए आवेदन फाइल करता है एवं जमानत की शर्तों का पालन करने का प्रस्ताव करता है।

    यह स्पष्ट किया गया कि यदि हासिल करने वाले वाक्यांश का निर्वाचन इस रूप में किया जाता है कि आवश्यक जमानत प्रस्तुत करने के उपरांत वास्तविक तौर पर जमानत पर निर्मुक्त होने की स्थिति हो तो इससे अभियुक्त को अत्यधिक अन्याय होने की संभावना होगी और ऐसी स्थिति में द.प्र.सं. की धारा 167 (2) के परंतुक का जो प्रयोजन है वह विफल हो जाएगा।

    कमल नारायण के ही मामले में जब अभियुक्त जमानत पाने के लिए इस आधार पर आवेदन देता है कि विहित अवधि के भीतर चालान प्रस्तुत नहीं किया गया है तो ऐसी स्थिति में न्यायालय को कोई विवेक प्राप्त नहीं होगा। न्यायालय को मात्र यह ज्ञात करना होगा कि क्या विशिष्ट अवधि जो कि विधान के अंतर्गत है यह समाप्त हो गई है अथवा नहीं हुई है एवं क्या चालान फाइल हुआ है अथवा नहीं हुआ है।

    एक अन्य मामले में अधिनियम के तहत अपराध के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत प्रदान करने की शक्ति उपलब्ध होना मानी गई। यह स्पष्ट किया गया कि अधिनियम की धारा 36क (3) के प्रावधान द.प्र.सं. की धारा 438 के तहत अग्रित जमानत प्रदान करने को वर्जित नहीं करते हैं। यद्यपि यह स्पष्ट किया गया कि अधिनियम की धारा 37 में अंतर्निहित प्रतिबंध जमानत प्रदान करने के संबंध में प्रयोज्य होंगे।

    कमल नारायण के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत अधिनियम की धारा 20 (ख) के तहत अपराध था उसके विरुद्ध आरोप यह था कि वाहन में 165.50 किलोग्राम गांजा पाया गया था। अभियुक्त के विरुद्ध उपरोक्त मामला रजिस्टर्ड होना बताया गया था। मामले में 180 दिवसों की अवधि तक आरोप पत्र फाइल नहीं किया गया था।

    आवेदक-अभियुक्त के द्वारा दिनांक 1.1.2010 को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के अंतर्गत जमानत प्रदान करने के लिए आवेदन दिया गया था। अभियुक्त का यह कहना था कि उसे 11.6.2009 को गिरफ्तार कर लिया गया था परंतु 180 दिवसों के भीतर आरोप पत्रक फाइल नहीं किया गया था इसलिए वह जमानत पाने का हकदार है। आक्षेपित आदेश दिनांकित 2.1.2010 के द्वारा विशेष न्यायाधीश ने अभियुक्त के जमानत आवेदन को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि विलंब से आरोप पत्रक फाइल करने में दर्शित कारण संतोषप्रद है क्योंकि फोरिंसिक साइंस लेबोट्री की रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई थी व वाहन का स्वामी भी खोजे जाने योग्य नहीं था। इसलिए उसके कथन को नहीं लिया जा सका था।

    आवेदक अभियुक्त के विद्वान एडवोकेट - की ओर से यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 36क की उपधारा (4) में अंतर्निहित प्रावधान के विचार से यदि अन्वेषण 180 दिवसों की अवधि के भीतर पूरा नहीं होता है तो विशेष न्यायालय को इस अवधि को लोक अभियोजक की इस रिपोर्ट पर जो कि अन्वेषण की प्रगति को इंगित करती हो एक वर्ष की अवधि के रूप में विस्तारित करने का अधिकार हो सकता है। इस संबंध में कथित 180 दिवसों की अवधि से परे अभियुक्त को निरुद्ध बनाए रखे जाने के संबंध में विशिष्ट कारणों को दर्शित करना होता है।

    यह तर्क दिया गया कि वर्तमान मामले में लोक अभियोजक अधिनियम की धारा 36क की उपधारा (4) द्वारा यथा अपेक्षित रिपोर्ट प्रस्तुत करने में विफल रहा था। इसलिए विशेष न्यायालय के द्वारा अविधिमान्यता की थी और उसके द्वारा 180 दिवस की अवधि से परे की अवधि विस्तारित करने में अधिकारिता से परे कार्य किया था। लोक अभियोजक की रिपोर्ट बिना 180 दिवस की अवधि का विस्तार नहीं जब तक कि अधिनियम की धारा 36क की उपधारा (4) में यथावर्णित लोक अभियोजक की रिपोर्ट न हो, न्यायालय को 180 दिवस की अवधि को विस्तारित करने की अधिकारिता नहीं होगी।

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