एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 13: साइकोट्रॉपिक पदार्थो के मामले में उल्लंघन करने पर दंड

Shadab Salim

8 Nov 2023 5:28 PM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 13: साइकोट्रॉपिक पदार्थो के मामले में उल्लंघन करने पर दंड

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 21 साइकोट्रॉपिक पदार्थो जिसे हिंदी भाषा में मनः प्रभावी पदार्थ कहा जाता है के उल्लंघन के संबंध में दंड का प्रावधान करती है। यह अधिनियम की महत्वपूर्ण धारा है, इस धारा में भी बीस वर्ष तक का कारावास एवं दो लाख रुपए तक का जुर्माना अधिरोपित किया जा सकता है।

    दंड पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करता है। साइकोट्रॉपिक पदार्थो उन्हें कहा जाता है जो मन को प्रभावित कर देते हैं एवं मनुष्य को क्षणिक खुशी देते हैं। समय समय पर सरकार द्वारा ऐसे पदार्थो की अधिसूचना जारी की जाती है। अनेक दवाइयां इन पदार्थों के दायरे में आती है जैसे अल्प्राजोलम की गोलियां इत्यादि। इस आलेख में साइकोट्रॉपिक पदार्थो के संबंध में मूल धारा एवं अदालतों में आए संबंधित प्रकरणों पर चर्चा की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 22

    मनःप्रभावी पदार्थों के संबंध में उल्लंघन के लिए दंड- जो कोई, इस अधिनियम के किसी उपबंध या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम या निकाले गए किसी आदेश या दी गई अनुज्ञप्ति की शर्त के उल्लंघन में किसी मनःप्रभावी पदार्थ का विनिर्माण, कब्जा, विक्रय, क्रय, परिवहन, अंतरराज्यिक आयात, अंतरराज्यिक निर्यात या उपयोग करेगा, वह -

    (क) जहाँ उल्लंघन अल्पमात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि छह माह तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो कि दस हजार रुपए तक का हो सकेगा या दोनों से;

    (ख) जहाँ उल्लंघन वाणिज्यक मात्रा से कम मात्रा परन्तु अल्पमात्रा से अधिक मात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से जो कि एक लाख रुपए तक का हो सकेगा या दोनों से;

    (ग) जहाँ उल्लंघन वाणिज्यक मात्रा को अन्तर्गस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु बीस वर्ष की हो सकेगी, और जुर्माने से जो एक लाख रुपए से कम का नहीं होगा किन्तु दो लाख रुपए तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा:

    परंतु न्यायालय, ऐसे कारणों से, जो निर्णय में लेखबद्ध किए जाएंगे, दो लाख रुपए से अधिक का जुर्माना अधिरोपित कर सकेगा।

    विधायिका द्वारा संशोधन

    इस धारा में स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ (संशोधन) अधिनियम, 2001 (क्रमांक 9 वर्ष 2001) के द्वारा संशोधन किया गया है। इस संशोधन को दिनांक 2-10-2001 से प्रभावी किया गया है।

    दुर्गा बाई बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 2004 का मामला अधिनियम की धारा 22 से आच्छादित होता था जबकि आरोप अधिनियम की धारा 21 के तहत लगाया गया था। यह अभिमत दिया गया कि अधिनियम की धारा 21 व 22 के तहत विहित दंडादेश समान है। इस कारण से गलत आरोप के कारण अभियुक्त को कोई प्रतिकूलता हो गई हो ऐसा नहीं माना जा सकता है। परिणामतः अधिनियम की धारा 22 के तहत की गई दोषसिद्धि को परिवर्तित किया जाकर अधिनियम की धारा 21 के तहत दोषसिद्धि की गई जबकि अधिनियम की धारा 21 समुचित धारा थी।

    औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम के अधीन औषधि प्रभाव

    राजिन्दर गुप्ता बनाम स्टेट, 2006 क्रिलॉज 674 देहली के प्रकरण में युपरेनोफाइन हाइड्रोक्लोराइड को औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम के अधीन होने वाली अनुसूची के तहत होने वाला माना गया। इसे एनडीपीएस नियम के अध्याय 7 की परिधि से बाहर होना माना गया। परिणामतः एनडीपीएस एक्ट की धारा 22, 23, 28 अथवा 29 के तहत दण्ड आकर्षित नहीं होगा।

    इसके अलावा यह भी स्पष्ट किया गया कि यदि यह भी मान लिया जाए कि एनडीपीएस एक्ट के तहत प्रथम दृष्ट्या मामला निर्मित हुआ है तो भी वर्तमान याचिकाकार से संबद्ध मात्रा 4.341 ग्राम मात्र थी। यह 20 ग्राम की व्यवसायिक मात्रा से काफी कम थी। परिणामस्वरूप इस मामले में एनडीपीएस एक्ट की कठोरता को आकर्षित होना नहीं माना गया।

    राजीव कुमार बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 1998 क्रिलॉज 1460 पंजाब हरियाणा के मामले में प्रश्नगत वस्तु का उपयोग हालांकि बड़ी मात्रा में नशा करने के लिए होता था परंतु यह प्रश्नगत वस्तु औषधि व प्रसाधन सामग्री अधिनियम के तहत "औषधि" के रुप में परिभाषित थी। ऐसी स्थिति में एनडीपीएस एक्ट के तहत अभियुक्त को अभियोजित नहीं किया जा सकता है।

    राजिन्दर गुप्ता बनाम स्टेट, 2006 क्रिलॉज 674 देहली के मामले में एनडीपीएस एक्ट की धारा 8 के प्रावधानों को संदर्भित किया गया। इस मामले में अधिनियम की धारा 8(ग) के प्रावधान को सुसंगत होना माना गया। अधिनियम की धारा 8(ग) नारकोटिक्स ड्रग्स के निर्माण, आधिपत्य, विक्रय, उपयोग आदि को चिकित्सीय अथवा वैज्ञानिक प्रयोजन के लिए एवं एनडीपीएस एक्ट अथवा स्वापक औषधि एवं मनःप्रभावी पदार्थ नियम अथवा इसके अधीन निर्मित आदेशों की सीमा तक व विस्तार तक करने के सिवाय को प्रतिषेधित करती है।

    इसका अभिप्राय यह है कि जब नारकोटिक्स ड्रग्स के उत्पादन, आधिपत्य, विक्रय, उपयोग आदि के संबंध में सामान्य प्रतिषेध हो, यदि यह औषधि हो और चिकित्सीय प्रयोजन के लिए उपयोगित की जानी हो तो इसके उत्पादन, आधिपत्य, विक्रय, उपयोग को उस रीति में व उस सीमा तक किया जा सकेगा जो कि एनडीपीएस एक्ट अथवा एनडीपीएस नियम अथवा इसके अधीन निर्मित आदेशों में यथाप्रावधान है।

    आगे स्पष्ट किया गया कि हमें यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि 'युपरेनोरफाइन हाइड्रोक्लोराइड' (Buprenorphine Hydrochloride) औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम एवं इसके नियम के आशय के लिए अनुसूची "एच के अधीन आने वाली औषधि है। इसका उत्पादन, विक्रय आदि को औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम एवं इसके नियम के द्वारा विनियमित किया जाता है।

    ऐसी औषधि जो कि एनडीपीएस एक्ट के आशय के अधीन "नारकोटिक्स ड्रग्स" होना भी पाई जाए तो ऐसी स्थिति में ऐसी औषधि के उपयोग की "सीमा व रीति" को एनडीपीएस एक्ट अथवा एनडीपीएस नियम के अन्य प्रावधानों से शासित होना माना जाएगा। आगे स्पष्ट किया गया कि 'मुपरेनोरफाइन हाइड्रोक्लोराइड (Buprenorphine Hydrochloride) को एनडीपीएस नियम की अनुसूची 1 में शामिल नहीं किया गया है। परिणामतः एनडीपीएस नियम के नियम 64 में अंतर्निहित सामान्य प्रतिषेध इस पर लागू नहीं होगा।

    परिणामतः नियम 65 से 67 जो कि अनुसूची में विनिर्दिष्ट साइकोट्रॉपिक पदार्थ के संबंध में है भी सुपरनोरफाइन हाइड्रोक्लोराइड' (Buprenorphine Hydrochloride) के संबंध में प्रयोज्य नहीं होगा। नियम 65 (1) यह प्रावधानित करता है कि अनुसूची 1 में विनिर्दिष्ट के अलावा कोई भी साइकोट्रॉपिक पदार्थ औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम एवं नियम के अधीन प्रदान की गई अनुज्ञप्ति की शर्तों के अनुसार होगा।

    अन्य शब्दों में जहां तक एनडीपीएस नियम की अनुसूची 1 में साइकोट्रॉपिक पदार्थ वर्णित नहीं किया गया है परंतु एनडीपीएस एक्ट की अनुसूची में वर्णित किया गया है तो उसका उत्पादन औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम एवं नियम से शासित होगा न कि एनडीपीएस एक्ट अथवा एनडीपीएस नियम से निष्कर्ष के तौर पर यह बताया गया कि इसीलिए यह कहा जा सकता है कि 'बुपरेनोरफाइन हाइड्रोक्लोराइड (Buprenorphine Hydrochloride) जिसे कि एनडीपीएस नियम की अनुसूची 1 में शामिल नहीं किया गया है उसका उत्पादन, आधिपत्य, विक्रय, परिवहन, एनडीपीएस नियम एवं एनडीपीएस एक्ट से शासित नहीं होगा। 'युपरेनोरफाइन हाइड्रोक्लोराइड' (Buprenorphine Hydrochloride) को औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम एवं इसके नियम की अनुसूची 'एच' में आने वाली औषधि के रूप में माना गया।

    धारा 21 में अपराध अप्रमाणित होना

    राजेन्द्र प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ बिहार, 2004 (3) क्राइम्स 364:2005 क्रिलॉज 595 पटना के मामले में अभियोजन के द्वारा परीक्षित साक्षीगण ने यह बताया था कि अभियुक्त के आधिपत्य से गाँजा अंतर्निहित होने वाले 3 बैग बरामद हुए थे। इनको तौला गया था। इनका वजन 18 किलोग्राम था। नमूने को प्राप्त किया गया था और परीक्षण हेतु फोरेंसिक साइंस लेबोट्री भेजा गया था। परीक्षण के उपरांत यह रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी कि यह गाँजा था।

    अधिनियम की धारा 2(iii)(ख) “गाँजा' को परिभाषित करती है। अधिनियम की धारा 2 (xiv) नारकोटिक्स ड्रग्स को परिभाषित करती है। स्पष्ट तौर पर अभियुक्त से जब्त गाँजा न तो नारकोटिक्स ड्रग्स थी और न ही साइकोट्रॉपिक पदार्थ था। अधिनियम की धारा 20 केनेबिस पौधे एवं केनेबिस के संबंध में दंड को प्रावधानित करती है। अधिनियम की धारा 20 की उपधारा (8) अल्प मात्रा से अधिक परंतु व्यवसायिक मात्रा से कम मात्रा का आधिपत्य पाए जाने पर ऐसे सश्रम निरोध को प्रावधानित करती है जो 10 वर्ष तक विस्तारित हो सकता है एवं ऐसे जुर्माने को प्रावधानित करती है जो 1,00,000 रुपए तक विस्तारित हो सकता है।

    केन्द्रीय सरकार ने नारकोटिक्स ड्रग्स एवं साइकोट्रॉपिक पदार्थ की अल्प मात्रा, व्यवसायिक मात्रा को एसओ 1055 (E) दिनांकित 19.10.2001 में गांजा को मद क्रमांक 55 में वर्णित किया है। अल्प मात्रा 1000 ग्राम विनिर्दिष्ट की गई है। व्यवसायिक मात्रा को 20 किलोग्राम विनिर्दिष्ट किया गया है। साक्ष्य में यह तथ्य आया है कि अभियुक्त के आधिपत्य से जब्त वस्तु का वजन किया गया था।

    यह 18 किलोग्राम था अर्थात् वह व्यवसायिक मात्रा से कम मात्रा थी परंतु अल्प मात्रा से अधिक मात्रा थी। अभियुक्त को विचारण न्यायालय ने अधिनियम की धारा 20 (ख) के तहत दोषसिद्ध किया था और उस पर 15 वर्ष का सश्रम निरोध व 1,00,000 रुपया जुर्माना अधिरोपित किया था। इस दंडादेश को अधिनियम की धारा 20(ख) के अधीन दंडादेश के प्रतिकूल होना माना गया। इसका कारण यह बताया गया कि अभियुक्त के आधिपत्य से जब्त मात्रा व्यवसायिक मात्रा से कम थी।

    समान तौर पर अभियुक्त को अधिनियम की धारा 22 के तहत दोषसिद्ध किया गया था जो कि मनः प्रभावी पदार्थ के संबंध में दंडादेश को व्यवहुत करती है। कोर्ट ने व्यक्त किया कि अभियुक्त के आधिपत्य से जब्त वस्तु गाँजा थी। यह अधिनियम की धारा 2 (xxiii) के तहत साइकोट्रॉपिक पदार्थ के अधीन नहीं आती थी। अधिनियम की धारा 22 साइकोट्रॉपिक के संबंध में उल्लंघन होने पर दंड को नियंत्रण करती हैं। इस प्रकार उपरोक्त धारा में अभियुक्त की की गई दोषसिद्धि दोषपूर्ण मानी गई। परिणामतः उपरोक्त वर्णित कारणों के आधार पर अभियुक्त की अधिनियम की धारा 20(ख) एवं धारा 22 के तहत की गई दोषसिद्धि अपास्त कर दी गई। एक मामले में प्रतिषिद्ध वस्तु जिस स्थल से बरामद हुई थी उस पर अभियुक्त का स्वामित्व व आधिपत्य होना नहीं पाया गया। अभियुक्त को दोषमुक्त किया गया।

    बाबू बनाम स्टेट, 2002 (2) क्राइम्स बम्बई हाई कोर्ट के मामले में कहा गया है कि प्रतिरक्षा साक्ष्य को अभियोजन साक्ष्य की तरह व्यवह्त किया जाना चाहिए। अभियुक्त के विरुद्ध अपराध अप्रमाणित माना गया। एक प्रकरण में इस आशय का तर्क दिया गया था कि अधिनियम की धारा 41 व 42 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। एएसआई जिसके द्वारा जानकारी प्राप्त की गयी थी वह नाम अभिलिखित करने में विफल रहा था। इस तथ्य को उसने कोर्ट के समक्ष दिए गए कथन में मंजूर किया था।

    अभियुक्त के एडवोकेट के द्वारा न्याय दृष्टांत स्टेट ऑफ बिहार बनाम कपिल सिंह, एआईआर 1969 सुप्रीम कोर्ट 53 के पद 10 पर निर्भरता व्यक्त करते हुए यह तर्क दिया गया कि ढाबा में प्रविष्ट होने के पूर्व पुलिसजन ने एवं तलाशी दल में साथ होने वाले साक्षीगण ने उनकी खुद की तलाशी नहीं दी थी। श्री आरएस सिंह, अमरसिंह व मुख्य आरक्षक की साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि अभियुक्त को मिथ्या लिप्त किए जाने की संभावना को दूर करने के लिए परिकल्पित विधिक अपेक्षाओं का पालन नहीं किया गया था।

    यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 50 के तहत तलाशी संचालित करने वाले पुलिस अधिकारी के लिए यह आबद्धकारी था कि यह अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में तलाशी करवाए जाने के विकल्प को चुनने के अधिकार से अवगत कराता। अभियोजन साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि अभियुक्त को ऐसी कोई सूचना नहीं दी गई और इस कारण वह कथित प्रावधान के अधीन उसके विकल्प का उपयोग नहीं कर सका था। इस प्रकार यह तर्क दिया गया कि आक्षेपित दोषसिद्धि करने में गंभीर दुर्बलता थी। परिणामतः दोषसिद्धि व दंडादेश स्थिर रखने योग्य नहीं है।

    गुरुचरणसिंह बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 1992 (1) मप्र वी नो 63 मध्यप्रदेश के मामले में इन लचरताओं को स्पष्ट नहीं किया जा सका था। अभियोजन का मामला किसी एक दुर्बलता से ग्रसित नही था अपितु अधिनियम की धारा 41, 42 व 50 के प्रावधान के उल्लंघन के रूप में गंभीर दुर्बलताएँ थीं महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि अभियुक्त के पेंट की जेब से प्रतिषिद्ध वस्तु की बरामदगी हुई थी परन्तु यह तथ्य जब्ती पत्रक में वर्णित नहीं था। हाईकोर्ट ने व्यक्त किया कि इस तरह के मामलों में जहां कि 10 वर्ष के निरोध की सजा हो व 1,00,000 रुपए के जुर्माने को अधिरोपित किया जा सकता हो, जांच करने वाले अधिकारी से प्रक्रियात्मक आबद्धताओं के प्रति पूरी तौर पर सजग व निष्ठापूर्ण होने की प्रत्याशा की जाती है।

    ऊपर इंगित दुर्बलताओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि अभियुक्त को उसकी प्रतिरक्षा में सारवान प्रतिकूलता हुई थी। परिणामतः अभियुक्त को दोषी माने जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई। एक अन्य मामले में वाहन के यात्री के आधिपत्य में प्रतिषिद्ध वस्तु होना बताई गई थी। वाहन ट्रक के रूप में था। ट्रक के चालक ने यह नहीं बताया था कि प्रतिषिद्ध वस्तु अभियुक्त से संबंधित थी। पुलिस अधिकारी की साक्ष्य भी विश्वसनीय प्रकृति की नहीं पाई गई। जिस शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी उसके आधार पर यह खंडनपूर्ण होना पाई गई। संदेह का लाभ देते हुए दोषमुक्ति कर दी गई।

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