एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 12: औषधियों के संबंध में अपराध पर जमानत से संबंधित प्रकरण

Shadab Salim

7 Nov 2023 11:05 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 12: औषधियों के संबंध में अपराध पर जमानत से संबंधित प्रकरण

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 21 विनिर्मित औषधियों को नशीले पदार्थो के दायरे में रखकर दंड का प्रावधान करती है जहां वाणिज्यिक मात्रा से अधिक मात्रा पाए जाने पर अपराध प्रमाणित होने पर अधिकतम 20 वर्ष का कारावास प्रावधानित किया गया है।

    यह इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाला अत्यंत संगीन अपराध है जहां पार्लियामेंट अत्यंत कड़े दंड का प्रयोजन करती है। अलग अलग अदालतों में इस अपराध के अभियोजन के दौरान जमानत पर विचार किया जाता रहता है एवं उससे संबंधित विधि निर्मित होती रहती है। इस आलेख में धारा 21 के अपराध से संबंधित मामलों में जमानत पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    राजदीप सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 1999 (3) क्राइम्स 308 पंजाब हरियाणा का मार्फीन का मामला था। इंजेक्शन के रूप में यह होना पाई गई। अभियुक्त ने जमानत की मांग की थी। यह व्यक्त किया गया कि अधिनियम के अंतर्गत यह प्रतिषिद्ध वस्तु के रूप में नहीं थी क्योंकि इंजेक्शन के रूप में जो मार्फीन थी उसमें मार्फीन का जो प्रतिशत था उसके आधार पर इसे स्वापक औषधि होना नहीं समझा जा सकता था। परिणामतः अभियुक्त की जमानत की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई।

    दास बनाम स्टेट, 2001 (4) क्राइम्स 1 देहली के मामले में 5 ग्राम हेरोइन के आधिपत्य में अभियुक्त पाया गया था। अभियुक्त कपड़े का व्यापारी था। वह अन्य किसी मामले में अंतर्ग्रस्त नहीं रहा था जमानत स्वीकार कर ली गई।

    स्टेट ऑफ मिजोरम बनाम जोलियाना, 2002 (3) क्राइम्स 152 गुवाहाटी के प्रकरण में अभियुक्त की जमानत इस आधार पर निरस्त कर दी गई थी कि जमानत प्रदान करने वाले न्यायालय की प्रास्थिति अधिनियम के तहत गठित विशेष न्यायालय के रूप में नहीं थी। न्यायहित में अभियुक्त को मामले में अधिकारिता रखने वाले विशेष न्यायालय के समक्ष जमानत की माँग करने के लिए अवसर प्रदान किया गया।

    संजय कुमार वर्मा बनाम स्टेट ऑफ यू.पी, 2006 क्रिलॉज 1426 इलाहाबाद के मामले में जमानत की माँग की गई थी। वर्तमान मामले में बरामदगी पत्रक एवं लोक विश्लेषक की रिपोर्ट में वर्णित वस्तु का वजन में अंतर अत्यधिक होना पाया गया। यह सामान्य भिन्नता नहीं थी। क्योंकि 10 ग्राम के प्रतिषिद्ध वस्तु के नमूने में 6 ग्राम से अधिक की भिन्नता थी। इसे बड़ी भिन्नता के रूप में माना गया। इसका प्रतिकूल प्रभाव माना गया। उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि इस प्रक्रम पर कोई निष्कर्ष अभिलिखित करना उचित नहीं होगा।

    इसे साक्ष्य के आधार पर विचारण प्रक्रम में देखा जाएगा। इसके अलावा इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया कि अभियोजन के अनुसार प्रतिषिद्ध बरामद वस्तु स्मैक (ब्राउन शुगर) थी। परंतु लोक विश्लेषक की रिपोर्ट के अनुसार इसे हेरोइन होना पाया गया था। स्वापक औषधि एवं मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम के तहत इन दोनों प्रतिषिद्ध वस्तुओं को अलग-अलग परिभाषित किया गया है और दोनों समान वस्तुएँ नहीं है। इसलिए मामले के गुणागुण पर कोई राय व्यक्त किए बिना आवेदक की जमानत मंजूर कर ली गई। प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के निम्न न्याय दृष्टांत को संदर्भित किया गया राजेश जगदम्बा अवस्थी बनाम स्टेट ऑफ गोवा, 2005 (51) एसीसी 315: एआईआर 2005 सुप्रीम कोर्ट 1389

    जीतू बनाम नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो, 2004 (3) क्राइम्स 659 केरल के मामले में याचिकाकार के विरुद्ध धारा 21 (ग), 22 (क) एवं 29 के तहत के तहत अपराध था। जमानत चाही गई थी। लोक अभियोजक ने इस आधार पर जमानत का विरोध किया था कि याचिकाकार ने अन्य अभियुक्त के साथ पड़यंत्र किया था जब लोक अभियोजक से इस बाबत् पूछा गया कि उसके पास दर्शित करने के लिए क्या सामग्री है कि याचिकाकार ने प्रतिषिद्ध वस्तुओं को लाने में अन्य अभियुक्त के साथ षड़यंत्र किया था तो लोक अभियोजक ने यह निवेदन किया कि अपराध के अन्वेषण के दौरान अभिलिखित कथन है। कथन के अलावा अन्य कोई सामग्री यह इंगित करने के लिए नहीं थी कि याचिकाकार ने अन्य अभियुक्त के साथ प्रतिषिद्ध वस्तु को लाने में षड्यंत्र किया था।

    जमानत स्वीकार करने का उपयुक्त मामला माना गया। जीतू के मामले में ही याचिकाकार के विरुद्ध एनडीपीएस एक्ट की धारा 21(ग). 22 (क) एवं 29 के तहत मामला रजिस्टर्ड किया गया था। याचिकाकार को दिनांक 1.3.2003 को गिरफ्तार किया गया था। यह न्यायिक अभिरक्षा में था। अपराध का अन्वेषण पूरा हो गया था और मामले में 18.12.2003 को अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी। मामला सत्र न्यायालय में विचाराधीन था।

    याचिकाकार के विरुद्ध लांछन यह था कि उसने स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ को मदुरई से लाने में और इसे माली में प्राप्त करने में अन्य अभियुक्तगण की मदद की थी। जब अभियुक्त क्रमांक 1 श्रीरुवननथपूरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुँचा था तो नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो के अधिकारीगण जिन्हें कि इसके बारे में पूर्व जानकारी थी उन्होंने इस अभियुक्त से पूछताछ की थी और 88 कैप्सूल जब्त किए थे जिनमें कि 350 ग्राम हेरोइन की कुल मात्रा थी। 120 युप्रेनोर्फिन एम्पल्स (Buprenorphine ampules) थे। 12 सुईयां थीं और 3 प्लास्टिक की सिरिंज थीं।

    अभियोजक का यह तर्क था कि अभियुक्त से जब्त मात्रा व्यवसायिक मात्रा थी जमानत आवेदन का निरोध लोक अभियोजक ने किया था। याचिकाकार के अधिवक्ता ने निवेदन किया कि अभियुक्त क्रमांक 1 को 1.7.2003 को गिरफ्तार किया गया था और जमानत पर 28.7.2003 को निर्मुक्त कर दिया गया था। व्यक्ति जिससे कि प्रतिषिद्ध वस्तु जप्त की गई थी उसे 28.7.2003 तक निर्मुक्त भी कर दिया गया था और याचिकाकार जिसके विरुद्ध यह लांछन था कि उसने अन्य अभियुक्त के साथ मदुरई से प्रतिषिद्ध वस्तु को लाने में व इसे माली में भेजने में षड़यंत्र किया था 1.7.2003 से अभी न्यायिक अभिरक्षा में ही था।

    लोक अभियोजक ने निवेदन किया कि अधिनियम की धारा 37 प्रयोज्य होती है क्योंकि प्रथम अभियुक्त से जब्त हेरोइन की मात्रा व्यवसायिक मात्रा थी। अधिनियम की धारा 37 में यह कहती है कि जब लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है तो भी अभियुक्त को जमानत पर निर्मुक्त किया जा सकता है यदि न्यायालय की यह संतुष्टि हो जाए कि यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार हैं कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और वह जमानत पर रहने के दौरान किसी अपराध को कारित करने वाला प्रतीत नहीं होता है। विधायिका का अभिप्राय यह नहीं है कि यह निर्णीत करने की शक्ति लोक अभियोजक को प्रदान कर दी जाए क्या अभियुक्त को जमानत दी जानी चाहिए अथवा नहीं दी जानी चाहिए।

    अधिनियम की धारा 37 के प्रावधानों का निर्वाचन इस रूप में नहीं किया जा सकता कि जब लोक अभियोजक जमानत आवेदन का विरोध करे तो न्यायालय उसके विवेक का प्रयोग कर जमानत प्रदान भी नहीं कर सकेगा। निष्कर्ष के तौर पर यह बताया गया कि क्या अभियुक्त को जमानत प्रदान की जानी चाहिए अथवा उससे इंकार किया जाना चाहिए इसका अधिकार सदैव ही कोर्ट को होगा। याचिकाकार की जमानत स्वीकार कर ली गई।

    डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंसी बनाम रोहलसिंह, 2006 (1) क्राइम्स 596 देहली के मामले में अभियोजन का मामला संक्षिप्त में इस प्रकार का था। तलाशी लिए जाने पर 9.066 किलोग्राम हेरोइन कार से बरामद हुई थी। कार में यात्रा करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया गया था। 9 नमूनों का एक सेट सीआरसीएल को परीक्षण के लिए भेजा गया था। इस आशय की राय व्यक्त की गई थी कि इसमें डाइसेटेलमार्फिन (Diacety Imorphine ) थी।

    हेरोइन की शुद्धता का प्रतिशत ज्ञात करने के लिए गैस क्रोमेटोग्राफी (Chromatography) परीक्षण नहीं किया जा सका था क्योंकि इंस्ट्रूमेंट सही नहीं था। दिनांक 24.12.2001 को शेष रहे नमूनों को पुनः शुद्धता के प्रतिशत को ज्ञात करने के लिए भेजा गया था। सीआरसीएल रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक शेष रहे नमूने में डाइसेटेलमार्फिन (Diacety Imorphine) का जो प्रतिशत वर्णित था उसके आधार पर अभियुक्त ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत एक आवेदन दिया था और यह अभियाक लिया था कि सीआरसीएल की शुद्धता के प्रतिशत रिपोर्ट के अनुसार अभियुक्त के आधिपत्य से बरामद 9.066 किलोग्राम की कुल मात्रा में डाइसेटेलमार्फिन (Diacetylmorphine) की मात्रा लगभग 51 ग्राम थी जो कि अधिसूचना दिनांकित 19.10.2001 के अनुसार यथा दर्शित व्यवसायिक मात्रा से काफी कम थी।

    अभियोजन को गिरफ्तारी की दिनांक से 60 दिवस के भीतर अन्वेषण करना चाहिए था जो कि नहीं किया गया। इसलिए सीआरपीसी की धारा 167 (2) के अधीन जमानत पाने का हक हो गया है यह निवेदन किया गया। विचारण न्यायालय ने अभियुक्तगण से बरामद औषधि की मात्रा पर विचार किया। इसे व्यवसायिक मात्रा की कोटि में होना समाप्त होना माना गया।

    विस्तृत आदेश के द्वारा अभियुक्तगण के पक्ष में जमानत का आदेश पारित किया गया था। इसे अधिनियम की धारा 36 (4) सहपठित दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत पारित किया गया था। हाई कोर्ट में इसे निरस्त करने के लिए चुनौती दी गई। हाई कोर्ट ने जमानत आदेश को पुष्ट किया और इसे निरस्त करने से अनिच्छा व्यक्त की।

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