जानिए मुस्लिम महिला के तलाक लेने के अधिकार, कौन सी परिस्थितियों में मुस्लिम महिला तलाक मांग सकती है

Shadab Salim

8 May 2020 6:30 AM GMT

  • जानिए मुस्लिम महिला के तलाक लेने के अधिकार, कौन सी परिस्थितियों में मुस्लिम महिला तलाक मांग सकती है

    लगभग सभी प्राचीन राष्ट्रों में विवाह विच्छेद दांपत्य अधिकारों का स्वाभाविक परिणाम समझा जाता है। रोम वासियों, यहूदियों, इसरायली आदि सभी लोगों में विवाह विच्छेद किसी न किसी रूप में प्रचलित रहा है। इस्लाम आने के पहले तक पति को विवाह विच्छेद के असीमित अधिकार प्राप्त थे।

    मुस्लिम विधि में तलाक को स्थान दिया गया है परंतु स्थान देने के साथ ही तलाक को घृणित भी माना गया है। पैगंबर साहब का कथन है कि जो मनमानी रीति से पत्नी को अस्वीकार करता है, वह खुदा के शाप का पात्र होगा। पैगम्बर के निकट मनमाना तलाक अत्यंत बुरे कार्यों में से एक है।

    मुस्लिम विधि में तलाक देने का अधिकार पुरुष के पास है, परंतु मुस्लिम स्त्री को भी तलाक मांगने का अधिकार है, वह न्यायालय में जाकर अपने विवाह को विघटित करवाने हेतु पति से तलाक मांग सकती है।

    इस लेख के माध्यम से एक मुस्लिम स्त्री के तलाक मांगने के अधिकारों पर चर्चा की जा रही है..

    कोई मुस्लिम पुरुष किसी मुस्लिम स्त्री को आकारण भी तलाक देने का अधिकार रखता है। मुस्लिम विवाह में तलाक यदि पुरुष का अधिकार है तो 'मेहर' स्त्री का अधिकार है, परंतु इतना होने के बाद भी शरीयत के विधान के अधीन भारतीय संसद का बनाया हुआ कानून एक भारतीय मुस्लिम स्त्री को अपने पति से तलाक मांगने का अधिकार देता है।

    तलाक ए ताफवीज़

    ताफ़वीज़ का अर्थ होता है- प्रत्यायोजन। प्रत्यायोजन का अर्थ यह है कि कोई भी मुस्लिम पुरुष किसी शर्त के अधीन अपने तलाक दिए जाने के अधिकार को मुस्लिम स्त्री को प्रत्यायोजित कर सकता है। अपना तलाक देने का अधिकार व मुस्लिम स्त्री को सौंप सकता है।

    बफातन बनाम शेख मेमूना बीवी ए आई आर (1995) कोलकाता (304 )के मामले में पति पत्नी के बीच में करार किया गया कि यदि उनके बीच में असहमति होती है तो पत्नी को अलग रहने का अधिकार होगा और पति भरण पोषण देने के लिए बाध्य होगा। निर्णीत किया गया कि यदि पति अपनी पत्नी के भरण पोषण प्रदान करने में असमर्थ होता है तो पत्नी विवाह विच्छेद प्राप्त करने की हकदार होगी। इस पर यह भी कहा गया कि इस प्रकार का करार सार्वजनिक नीति के विरुद्ध नहीं था।

    महराम अली बनाम आयशा खातून के वाद में पति ने पत्नी को अधिकार प्रदान किया गया था कि यदि वह पत्नी की सहमति के बिना दूसरा विवाह करेगा तो पत्नी ताफ़वीज़ का प्रयोग करके उसे तलाक देगी। निर्मित किया गया है कि इस अधिकार का प्रयोग करके पत्नी द्वारा अपने को दिया गया तलाक वैध व मान्य है।

    खुला

    इस्लाम धर्म के आगमन के पूर्व एक पत्नी को किसी भी आधार पर विवाह विच्छेद की मांग का अधिकार नहीं था। कुरआन द्वारा पहली बार पत्नी को तलाक प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ था। फतवा ए आलमगीरी जो कि भारत में मुसलमानों की मान्यता प्राप्त पुस्तक है उसमें कहा गया है कि जब विवाह के पक्षकार राज़ी हैं और इस प्रकार की आशंका हो कि उनका आपस में रहना संभव नहीं है तो पत्नी प्रतिफल स्वरूप कुछ संपत्ति पति को वापस करके स्वयं को उसके बंधन से मुक्त कर सकती है।

    खुला मुस्लिम विवाह में पारस्परिक विवाह को कहा जाता है। यह एक प्रकार का पारस्परिक सम्मति के द्वारा विवाह विच्छेद होता है, जिसमें पति पत्नी दोनों की इच्छा से विवाह विच्छेद कर दिया जाता है।

    मुंशी 'बुज़ुल उल रहमान बनाम लतीफुन्नीसा' के वाद में प्रिवी काउंसिल के माननीय न्यायाधीशों द्वारा खुला की उपयुक्त परिभाषा की गई है जो इस प्रकार है-

    'खुला के द्वारा तलाक पत्नी की संपत्ति और प्रेरणा से दिया गया एक ऐसा तलाक है, जिसमें विवाह बंधन से अपने छुटकारे के लिए वह पति को कुछ प्रतिफल देती है या देने की संविदा करती है। ऐसे मामले में पति और पत्नी आपस में करार करके शर्ते निश्चित कर सकते हैं और पत्नी प्रतिफल के स्वरूप में अपने मेहर को और अधिकारों को छोड़ सकती है अथवा पति के लाभ के लिए कोई दूसरा करार कर सकती है।'

    खुला में पत्नी द्वारा तलाक का प्रस्ताव रखा जाता है। असल में खुला पत्नी द्वारा पति से खरीदा गया तलाक का अधिकार है। इस्लाम में तलाक देने का अधिकार केवल पति के पास है। पत्नी तलाक मांग सकती है।

    मुबारत (पारस्परिक छुटकारा)

    मुबारत का शाब्दिक अर्थ होता है पारस्परिक छुटकारा। मुबारत में प्रस्ताव चाहे पत्नी की ओर से आए या पति की ओर से उसकी स्वीकृति तलाक कर देता है। पत्नी का इद्दत काल का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।

    मुबारत भी विवाह विच्छेद का एक तरीका है। यह वैज्ञानिक दावों से पारस्परिक निर्मुक्ति प्रदर्शित करता है। मुबारत में अरुचि पारस्परिक होती है, पति पत्नी दोनों अलग होना चाहते हैं, इस कारण इसमें पारस्परिक सम्मति का तत्व निहित रहता है। दोनों ओर से सहमति होने पर मुबारत तलाक हो जाता है। खुला और मुबारत में सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि मुबारक दोनों पक्षकारों में से कहीं से भी किया जा सकता है परंतु खुला का प्रस्ताव केवल स्त्री द्वारा रखा जाता है।

    मुबारत में किसी पक्षकार को कोई धनराशि किसी भी पक्षकार को नहीं देना होती है। खुला का प्रस्ताव पति के तैयार नहीं होने की स्थिति में रखा जाता है परंतु मुबारत में दोनों सहमत होते हैं। भारतीय मुसलमानों में वर्तमान में सबसे अधिक इस ही तलाक का प्रचलन है।

    लिएन

    जब कोई पति अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाए किंतु आरोप झूठा हो वहां पत्नी का अधिकार हो जाता है कि वह दावा करके विवाह विच्छेद कर ले।

    कोई भी वयस्क और स्वास्थ्यचित पति अपनी पत्नी पर कोई व्यभिचार का आरोप लगाता है, पति कहता है कि पत्नी ने किसी अन्य पुरुष के साथ सेक्स किया है तो ऐसे आरोप में यदि आरोप झूठा निकलता है तो स्त्री इस आधार पर तलाक मांग सकती है।

    मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939

    किसी समय तक एक मुस्लिम स्त्री को केवल दो आधारों पर न्यायालय में तलाक मांगने का अधिकार था।

    (1) पति की नपुंसकता

    (2) परपुरुष गमन का झूठा आरोप (लिएन)

    इस पर मुस्लिम महिलाओं से संबंधित बहुत विसंगतियां मुस्लिम विवाह में जन्म लेने लगीं। ऐसी परिस्थितियों का उदय हुआ, जिनके होने पर एक मुस्लिम महिला तलाक मांग सकती थी, परंतु मजबूरी में तलाक नहीं मांग पा रही थी।

    हनफ़ी विधि में मुस्लिम स्त्री को अपने विवाह को समाप्त करने का अधिकार नहीं था, परंतु हनफ़ी विधि में या व्यवस्था है कि यदि हनफी विधि के पालन में कठिनाई हो रही है तो मालिकी, शाफ़ई या हनबली विधि का प्रयोग किया जा सकता है।

    इसी को आधार बनाकर इस्लामिक शरीयत के दायरे में मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 पारित किया गया, जिसे सभी मुसलमानों पर चाहे वह किसी भी स्कूल से संबंधित हो लागू किया गया है।

    इस अधिनियम की धारा 2 के अंतर्गत कोई भी मुस्लिम स्त्री निम्न आधारों पर न्यायालय में जाकर अपने विवाह को विघटित करवाने की डिक्री पारित करवा सकती है।

    (1) पति की अनुपस्थिति

    यदि पति 4 साल तक अनुपस्थित रहता है तो ऐसी परिस्थिति में एक मुस्लिम महिला अपने विवाह को विघटन करने के लिए न्यायालय में आवेदन देकर डिक्री ले सकती है। यह डिक्री इसके पारित होने के 6 महीने के भीतर प्रभावी होती है। यदि 6 महीने के भीतर पति वापस लौट आता है तो डिक्री को वापस रद्द करना होता है।

    (2) भरण पोषण करने में पत्नी की असफलता

    यदि पति 2 साल तक पत्नी के भरण पोषण के संबंध में उपेक्षा करे या असफल रहे तो भी मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहिता स्त्री विवाह विच्छेद की डिक्री की हकदार हो जाती है।

    पति वाद का केवल इस आधार पर प्रतिवाद नहीं कर सकता कि वह अपनी निर्धनता, अस्वस्थता, बेरोजगारी या कारावास या अन्य किसी आधार पर उसका भरण पोषण नहीं कर सकां।

    मुस्लिम विधि में एक पति को अपनी पत्नी का भरण पोषण करने का परम कर्तव्य सौंपा गया है। यदि वह कर्तव्य को भलीभांति पूरा नहीं करता है तो पत्नी को यह अधिकार है कि वो उससे तलाक मांग ले।

    फैसल मोहम्मद बनाम उम्मा रहीम के वाद में सिंध के मुख्य न्यायालय ने यह निर्धारण किया कि मुसलमानों पर प्रयोग सामान्य विधि को रद्द करना अधिनियम का आशय नहीं था और यह नहीं कहा जा सकता कि पति ने अपनी पत्नी के भरण पोषण का प्रबंध करने में उपेक्षा की या उसमें वह सफल रहा जब तक कि पति पर सामान्य मुस्लिम विधि के अंतर्गत भरण पोषण का दायित्व न हो।

    विवाह विच्छेद के लिए पत्नी का वाद खारिज कर दिया गया, क्योंकि पाया गया कि वह अपने पति के प्रति वफादार नहीं थी। पत्नी का वफादार होना आवश्यक है यदि पुरुष पत्नी के वफादार होते हुए भी उसका भरण पोषण नहीं कर रहा है तो इस आधार पर तलाक मांगा जा सकता।

    'मोहम्मद नूर बीबी बनाम पीर बख्श' के वाद में यह निर्णीत हुआ कि यदि पति वाद दायर करने के 2 वर्ष तुरंत पूर्व की अवधि तक पत्नी को भरण-पोषण देने में असफल रहता है तो पत्नी इस अधिनियम की धारा 2 (2) के अंतर्गत विवाह विच्छेद के लिए हकदार है।

    (3) पति का कारावास

    यदि पति को 7 साल तक का कारावास दे दिया जाता है। दंडादेश अंतिम हो गया है तथा इस दंडादेश के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई अपील नहीं की जा सकती है तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी न्यायालय से तलाक की डिक्री मांग सकती है।

    (4) दांपत्य दायित्व के पालन में असफलता

    यदि बिना उचित कारण के पति ने 3 साल तक दांपत्य दायित्व का पालन नहीं किया है तो पत्नी विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने की हकदार है। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 के अंतर्गत पति के दांपत्य दायित्व की परिभाषा नहीं दी गई है। न्यायालय इस धारा के प्रयोजन के लिए पति के केवल ऐसे दांपत्य दायित्व का अवलोकन करेगा जिनको इस अधिनियम की धारा (2 )के किसी उपखंड में सम्मिलित नहीं किया गया है।

    (5) पति की नपुंसकता

    यदि पति विवाह के समय नपुंसक था और अब भी है तो पत्नी विवाह विच्छेद की न्यायिक डिक्री प्राप्त करने की हकदार है। डिक्री पारित करने से पूर्व न्यायालय पति के आवेदन पर उससे अपेक्षा करते हुए यह आदेश पारित करेगा कि ऐसे आदेश पाने के 1 साल के अंदर वह न्यायालय को इस बारे में आश्वस्त कर दे कि वह नपुंसक नहीं रह गया है, यदि वैसा कर दे तो डिक्री प्रभावी नहीं की जाएगी।

    नपुंसक से पूर्ण और संबंधित नपुंसक दोनों को लिया जाता है। पूर्ण नपुंसक प्रत्येक स्त्री के प्रति नपुंसक होता है और संबंधित नपुंसक किसी निर्धारित स्त्री के प्रति नपुंसक होता है।

    यदि पति अपनी पत्नी के प्रति नपुंसक है उसके साथ सहवास नहीं कर पाता है तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी द्वारा तलाक मांगा जा सकता है और इस आधार पर न्यायालय डिक्री पारित कर सकता है।

    (6) पति का पागलपन

    पति यदि पागल हो गया है या फिर कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया है या फिर ऐसे रोग से पीड़ित हो गया है जिसका संक्रमण एक से दूसरे में फैलता है। जैसे कोई मुस्लिम स्त्री का पति एचआईवी एड्स से पीड़ित हो गया है, एड्स यौन संबंधों से होने वाली बीमारी है। ऐसे में उसका पति उस महिला के साथ संभोग करेगा, उस महिला को भी एचआईवी एड्स होने की प्रबल संभावना है। ऐसी परिस्थिति में महिला न्यायालय में तलाक की डिक्री मांग सकती है।

    (7) पत्नी द्वारा विवाह अस्वीकृत करना

    यदि पत्नी का विवाह उसकी अवयस्कता में उसके माता-पिता की सहमति से कर दिया गया था तो 18 साल के पहले अपने विवाह को अस्वीकार करवा सकती है तथा न्यायालय में इस आधार पर डिक्री मांग सकती है कि उसका विवाह उसकी सहमति से नहीं हुआ था और ऐसे समय हुआ था जब वह 'ख़्यार उल बुलुग' अर्थात बालिग नहीं थी।

    (8) पति की निर्दयता

    अधिनियम की धारा 2(8 ) के अनुसार पति द्वारा निर्दयता या क्रूरता करने पर भी पत्नी द्वारा न्यायालय से तलाक की डिक्री मांगी जा सकती है। पति पत्नी के साथ मारपीट करता है, अनैतिक औरतों के साथ संबंध रखता है, तवायफ के कोठे पर जाता है, दहेज की मांग करता है, पत्नी के माता-पिता को गाली देता है तो ऐसी परिस्थिति में पति से पत्नी तलाक मांग सकती है। न्यायालय को इस आधार पर डिक्री प्रदान करनी होगी।

    इतवारी बनाम मुसममात असगरी के महत्वपूर्ण वाद में पति ने अपनी पहली पत्नी के विरुद्ध दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का वाद दायर किया था।

    इस पर पत्नी ने पति द्वारा दूसरी पत्नी लाए जाने को निर्दयता के आधार पर अपने माता-पिता के साथ रहने का निवेदन किया। मुंसिफ ने इसे पत्नी द्वारा निर्दयता के सबूत न दे सकने के कारण पति का वाद डिक्री कर दिया।

    पत्नी द्वारा जिला न्यायालय के समक्ष अपील करने पर मुंसिफ ने अपने निर्णय को पलट दिया। पति द्वारा उच्च न्यायालय में अपील करने पर न्यायमूर्ति एस० एस० धवन ने अपील खारिज करते हुए कहा की दूसरी पत्नी लाने वाले को साबित करना चाहिए कि उसके द्वारा दूसरी पत्नी लाना पहली पत्नी का अपमान नहीं है।

    'के मोहम्मद लतीफ बनाम निशाद' के वाद में न्यायालय ने यह माना है कि दूसरा विवाह क्रूरता की श्रेणी में तब आता है जब वह पहली स्त्री की आज्ञा के बगैर किया गया है।

    पहली पत्नी ने आज्ञा नहीं दी और दूसरा निकाह कर लिया गया, ऐसी परिस्थिति में दूसरा निकाह कुरआन सम्मत नहीं होगा तथा ऐसे निकाह को क्रूरता माना जाएगा। कुरान सम्मत निकाह तभी होगा जब पहली पत्नी के साथ न्याय होगा और पहली पत्नी विवाह की आज्ञा देती है तो ही न्याय का प्रश्न खड़ा होता है।

    Next Story