Transfer Of Property में Mortgage के प्रावधान

Shadab Salim

29 Jan 2025 3:41 AM

  • Transfer Of Property में Mortgage के प्रावधान

    Transfer Of Property, 1882 की धारा 58 संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत बंधक की परिभाषा और उसकी अवधारणा को प्रस्तुत करती है। खण्ड 'क' बन्धक की परिभाषा प्रतिपादित करता है। इसके अनुसार, बन्धक किसी सुनिश्चित स्थावर सम्पत्ति में से किसी हित का वह अन्तरण है जो उधार के तौर पर दिये गये या दिये जाने वाले धन के संदाय को या वर्तमान या भावी ऋण के संदाय को या ऐसे वचनबन्ध के पालन को, जिससे धन सम्बन्धी दायित्व पैदा हो सकता है, प्रतिभूत करने के उद्देश्य से किया जाता है।

    Mortgage की परिभाषा का अर्थ

    1. यह किसी सुनिश्चित या विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति में के किसी हित का अन्तरण है।

    2. इसका उद्देश्य धन के भुगतान को सुनिश्चित करना है जो :-

    ऋण के रूप में दिया गया है या दिया जाने वाला है।

    वर्तमान या भावी ऋण है।

    वचनबन्ध के अनुपालन हेतु जिससे धन सम्बन्धी दायित्व पैदा हो सकता हो ।

    सम्पत्ति हस्तान्तरित करने वाला व्यक्ति बन्धककर्ता और जिस व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित की जाती है, बन्धकदार कहलाता है। दूसरे शब्दों में ऋण लेने वाला तथा उस ऋण के भुगतान हेतु स्थावर सम्पत्ति में हित अन्तरित करने वाला व्यक्ति बन्धककर्ता होगा तथा ऋण देने वाला व्यक्ति और स्थावर सम्पत्ति में हित प्राप्त करने वाला व्यक्ति बन्धकदार कहलाता है। मूलधन एवं ब्याज़, जिसका संदाय तत्समय प्रतिभूत है, बन्धकधन कहलाते हैं और वह लिखत या विलेख जिसके द्वारा हस्तान्तरण किया जाता है, बन्धक विलेख कहलाता है।

    किसी विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति में किसी हित के हस्तान्तरण के फलस्वरूप बन्धक का सृजन होता है। बन्धक में बन्धककर्ता का सम्पत्ति में सम्पूर्ण हित अन्तरित नहीं होता है। केवल आंशिक हित का अन्तरण होता है। अन्तरित हित की प्रकृति एवं मात्रा बन्धक की शर्तों पर निर्भर करती है, किन्तु बन्धककर्ता का स्वामित्व बन्धकदार के पक्ष में अन्तरित नहीं होता है। यद्यपि कुछ बन्धकों में सम्पत्ति का कब्जा उसे दे दिया जाता है। इस संव्यवहार में बन्धकदार के पक्ष में अन्तरित हित, विधिक हित होते हैं।

    किन्तु केवल आनुषंगिक (Accessory ) होते हैं जिनका उद्देश्य ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करना है। यह अधिकार लोक लक्षी (Right in rem) है अर्थात् वास्तविक स्वामी को छोड़कर विश्व के सभी व्यक्तियों के विरुद्ध प्राप्त है। किसी संव्यवहार में बन्धककर्ता ने बन्धकदार के पक्ष में हित अन्तरित किया है अथवा नहीं, यह उनकी मंशा तथा उनके बीच हुए संविदा के विवाचन पर निर्भर करेगा। बन्धक के सृजन हेतु किसी विशिष्ट प्रकार की शब्दावली की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं।

    जवाहर लाल बनाम इन्दुमती के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि यदि सम्पत्ति को ऋण के भुगतान हेतु केवल दायी घोषित किया गया है तो सम्पत्ति में हित का अन्तरण नहीं माना जाएगा, पर अनन्य अय्यर बनाम एस० आर० अय्यरू के वाद में यह अभिनिर्णीत किया गया कि यदि अन्तरिती लिखत में उल्लिखित सम्पत्ति का किराया लेने के लिए प्राधिकृत है अथवा सम्पत्ति को अपने कब्जे में रखने का अधिकारी है तो प्रत्येक स्थिति में उल्लिखित सम्पत्ति में अन्तरिती के पक्ष में हित अन्तरित समझा जाएगा, किन्तु यह आवश्यक है कि हित का अन्तरण हो, न कि अन्तरण हेतु केवल संविदा। साथ ही सम्पत्ति का स्पष्ट रूप से उल्लेख हो। उल्लेख इस प्रकार होना चाहिए जिससे पंजीकरण अधिनियम की धाराओं 21 तथा 22 के अनुसार सम्पत्ति को स्पष्टतः पहचान की जा सके।

    इस धारा में बन्धक को परिभाषित करते समय 'अचल या स्थावर' सम्पत्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। न तो 'जंगम' या 'चल' सम्पति और न ही केवल 'सम्पत्ति' शब्द का प्रयोग किया गया है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना नितान्त स्वाभाविक है कि क्या चल सम्पत्ति का बन्धक हो सकेगा? संविदा अधिनियम में चल सम्पत्ति की गिरवी के सम्बन्ध में प्रावधान मिलता है, किन्तु बन्धक के सम्बन्ध में नहीं। न्यायिक निर्णयों द्वारा अब यह सुस्पष्ट हो गया है कि चल या जंगम वस्तु का भी बन्धक किया जा सकेगा।

    चल सम्पत्ति का कब्जे के बिना भी बन्धक प्रभावी होगा, पर यदि ऐसी चल सम्पत्ति किसी सद्भावयुक्त क्रेता को जिसे उक्त संव्यवहार की सूचना न हो, बेच दो गयी हो तो बन्धकदार का हित क्रेता के हितों के अध्यधीन होगा।

    बन्धक तथा अन्य संव्यवहार-

    बन्धक एवं गिरवी - गिरवी में ऋण के भुगतान हेतु चल या जंगम सम्पत्ति का कब्जा ऋणदाता को दिया जाता है। इसमें ऋणदाता को सम्पत्ति के विक्रय के सम्बन्ध में कुछ अधिकार रहते हैं, पर सामान्य हित ऋणी व्यक्ति में ही रहता है। ऋणदाता के पास केवल सम्पत्ति का कब्जा रहता है। इसके विपरीत बन्धक में सम्पत्ति में सम्पूर्ण विधिक हित सशर्त बन्धकी में निहित हो जाता है। और यदि निर्धारित समय पर बन्धक का मोचन नहीं होता है तो बन्धको का हित आत्यन्तिक हो जाता है। इसके अतिरिक्त यदि वैयक्तिक सम्पत्ति गिरवी रखी गयी है तो गिरवीधारक का अधिकार कब्जे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता और कब्जा समाप्त होते ही गिरवी समाप्त हो जाती है या उसका परित्याग हो जाता है, किन्तु वैयक्तिक सम्पत्ति के बन्धक की दशा में सम्पत्ति में अधिकार अन्तरण द्वारा बन्धकदार में निहित हो जाता है। इसमें सम्पत्ति का कब्जा दिया जा सकता है और नहीं भी। कब्जे का परिदान, बन्धक का अपरिहार्य गुण नहीं है

    बन्धक और प्रभार- लगभग सभी व्यावहारिक प्रयोजनों हेतु, प्रभार को बन्धक की एक जाति या वर्ग माना जाता है, पर दोनों में मूलभूत अन्तर है। बन्धक, मोचनाधिकार के अध्यधीन, बन्धककर्ता द्वारा बन्धकदार के पक्ष में सम्पत्ति का हस्तान्तरण है जबकि प्रभार में कुछ भी हस्तान्तरित नहीं होता है। प्रभार में ऋण के भुगतान हेतु सम्पत्ति पर केवल कुछ अधिकार ऋणदाता को प्राप्त होता है। बन्धक तथा प्रभार के बीच अन्तर को निम्नलिखित ढंग से सुस्पष्ट किया जा सकता

    बन्धक तथा धारणाधिकार- धारणाधिकार एक ऐसा अधिकार है जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति तब तक अपने कब्जे में रोके रहने के लिए प्राधिकृत करता है जब तक कि उसके ऋण का भुगतान नहीं हो जाता। यह सम्पत्ति को रोके रखने का एक निष्क्रिय अधिकार है। धारणाधिकार से युक्त व्यक्ति न तो सम्पत्ति का विक्रय कर सकता है और न ही अन्यथा उसे हस्तान्तरित कर सकता है।

    यदि ऋणदाता कब्जे से वंचित हो जाता है या कब्जा ऋणी व्यक्ति या उसके अभिकर्ता को यह दे देता है, तो उसका धारणाधिकार समाप्त हो जाएगा। किन्तु बन्धक में बन्धकदार के पक्ष में हित सृष्ट होता है जो विधिक प्रकृति का होता है, परन्तु जहाँ तक कब्जे का प्रश्न है, बन्धकदार के पास सदैव बन्धक सम्पत्ति का कब्जा नहीं रहता है।

    बन्धक तथा पट्टा- बन्धक में, किसी विनिर्दिष्ट अचल सम्पत्ति में हित बन्धकदार के पक्ष में किसी ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करने हेतु अन्तरित किया जाता है, पर पट्टे में कोई अचल सम्पत्ति प्रतिफल के बदले पट्टागृहीता द्वारा उपभोग के लिए अन्तरित की जाती है। पट्टे में, सम्पत्ति में हित का अन्तरण ऋण के भुगतान हेतु प्रतिभूति के रूप में नहीं किया जाता है।

    एम० के० उम्मा बनाम पी० पी० उम्मा के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने प्रेक्षित किया है कि कोई लिखत पट्टा है या बन्धक इस तथ्य का निर्धारण करने के लिए यह देखना अभीष्ट है कि क्या संव्यवहार का प्रयोजन अन्तरिती द्वारा सम्पत्ति का उपभोग है अथवा किसी ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करना है। प्रथम स्थिति में संव्यवहार पट्टा होगा, जबकि द्वितीय स्थिति में यह बन्धक होगा।

    बन्धक तथा पुनः अन्तरण की शर्त के साथ विक्रय-बन्धक- विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति में के हित का वह अन्तरण है जो उधार के तौर पर दिये गये धन के संदाय को प्रतिभूत करने के प्रयोजन से किया जाता है। अतः बन्धक में ऋणदाता और ऋण का सम्बन्ध रहता है। इसके विपरीत पुनअन्तरण की शर्त के साथ विक्रय में, ऋण जैसा तत्व विद्यमान नहीं रहता है।

    अतः ऋणदाता और ऋणी का सम्बन्ध इसमें विद्यमान नहीं रहता है। बन्धक में बन्धककर्ता को प्राप्त सम्पत्ति में के केवल कुछ हितों का अन्तरण होता है, जबकि पुनअन्तरण को शर्त के साथ विक्रय में, अन्तरक के सम्पूर्ण हित अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित हो जाते हैं, उसके पास पुनक्रय का केवल एक वैयक्तिक अधिकार संरक्षित रहता है। पुनर्क्रय का यह अधिकार यदि निर्धारित अवधि के अन्दर इस्तेमाल नहीं किया जाता है तो वह समाप्त हो जाता है। इन दोनों संव्यवहारों के बीच के अन्तरण को एल्डरसन बनाम हाइट के बाद में इस प्रकार व्यक्त किया गया है:

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