घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में घरेलू हिंसा का मतलब

Shadab Salim

7 Oct 2025 11:55 AM IST

  • घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में घरेलू हिंसा का मतलब

    इस अधिनियम की धारा 3 "घरेलू हिंसा" की विस्तृत परिभाषा अन्तर्विष्ट करती है एवं बड़ी मात्रा में कार्य एवं लोप को शामिल करती है जो व्यथित व्यक्ति के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग की या चाहे उसकी मानसिक या शारीरिक भलाई की अपहानि या क्षति या खतरा करता है। इसमें शारीरिक दुरुपयोग, लैंगिक दुरुपयोग, मौखिक एवं भावनात्मक दुरुपयोग साथ ही साथ आर्थिक दुरुपयोग सम्मिलित है। इस प्रकार घरेलू हिंसा पद के अर्थों के अधीन विभिन्नप्रकार के कार्य एवं लोप शामिल हैं।

    अधिनियम की धारा 12 के अधीन अनुतोष अधिनियम के लागू होने के पहले किये गये महिला के कृत्य को भी सम्मिलित करता है एवं इसे मजिस्ट्रेट व्यथित व्यक्ति को अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21, 22 एवं 23 के अधीन अनुतोष को विस्तारित करने के लिए आदेश पारित करते समय विचारण में ले सकता है।

    इसके अलावा यह आवश्यक नहीं है कि आवेदिका महिला का अधिनियम के लागू होने की तिथि पर या अधिनियम की धारा 12 के अधीन मजिस्ट्रेट के समक्ष अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष पाने के लिए आवेदन दाखिल करते समय उसका विवाह या विवाह की प्रकृति का कोई सम्बन्ध अस्तित्य में हो या जारी हो। अन्य शब्दों में व्यथित व्यक्ति जो अधिनियम के लागू होने के पूर्व किसी समय के बिन्दु पर प्रत्यर्थी के साथ घरेलू सम्बन्ध में रही एवं घरेलू हिंसा का शिकार हुई थी, अधिनियम के अधीन उपचारात्मक उपायों की हकदार होती है।

    विपिन बनाम मीरा. डी एस 2017 मामले में कहा गया है कि हिंसा का कोई कार्य, जो इस धारा को परिभाषा का समाधान करता है और जिसका विगत वैवाहिक सम्बन्ध से तार्किक सम्बन्ध है या जो उससे उद्भूत होता है या उस सम्बन्ध के परिणाम के रूप में है, अवधारणात्मक ढंग से अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत आना चाहिए।

    अधिनियम की धारा 3 से सम्बद्ध स्पष्टीकरण 2 यह प्रावधानित करता है कि क्या प्रत्यर्थी का कोई कार्य, लोप या आचरण इस धारा के अधीन "घरेलू हिसा" का गठन करता है, इसके लिए मामले के सम्पूर्ण तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार किया जायेगा, मामले में इस दृष्टि से यह न्यायालय का विचारित मत है कि जहाँ व्यथित यक्ति द्वारा विशिष्ट रूप से प्रत्यर्थी की ओर से घरेलू हिंसा के किसी कृत्य का अभिवचन किया गया है वहां इस अधिनियम के अधीन अनुतोष की वांछा करने वाली याचिका को आरम्भिक स्तर पर खारिज नहीं किया जा सकता एवं मामले को अधिनियम के प्रावधानों के अधीन यथा समादेशित परीक्षित एवं विनिश्चित करना अपेक्षित होता है।

    "घरेलू हिंसा" अभिव्यक्ति जो कि अधिनियम को धारा 3 में परिभाषित है इसका अत्यन्त वृहत आयाम होता है एवं इसमें पूर्व में ही कथित शारीरिक दुरुपयोग, लैंगिक दुरुपयोग, मौखिक एवं भावानात्मक दुरुपयोग, आर्थिक दुरुपयोग के अलावा समस्त या किसी आर्थिक एवं वित्तीय संसाधन से व्यथित व्यक्ति को वंचित करना भी शामिल होता है जिसके लिए वह किसी विधि या प्रथा के अधीन हकदार होती है चाहे वह न्यायालय के किसी आदेश के अधीन या अन्यथा या व्यक्ति व्यक्ति के किसी आवश्यकता के कारण देय हो परन्तु यह व्यथित व्यक्ति तथा उसके बच्चों की घरेलू आवश्यकताओं तक ही सीमित नहीं होगा, स्त्री धन यदि कोई हो, सम्पत्ति जो व्यक्ति व्यक्ति द्वारा संयुक्ततः या प्रथक्तः धारित की जाती है एवं साझी गृहस्थी एवं भरण-पोषण एवं किराये का भुगतान भी इसमें शामिल होता है।

    अधिनियम को हिंसा के सभी कल्पनीय रूपों से महिलाओं का संरक्षण करने के लिए प्रवर्तित किया गया है। इसके अन्तर्गत न केवल लगभग शारीरिक उपहति के प्रत्येक प्रकार को उसमें शामिल करके व्यापक भावार्थ का शारीरिक दुरुपयोग बल्कि लैंगिक, मौखिक, भावनात्मक दुरुपयोग और आर्थिक दुरुपयोग भी है। उपबन्ध, जैसा कि इसे पढ़ा जाता है, इतना व्यापक है। यह सभी प्रकार के शारीरिक, मानसिक, मौखिक, आर्थिक दुरुपयोग को आच्छादित करता है

    कौन से कृत्य, लोप या किसी कार्य का करना या आचरण "घरेलू हिंसा गठित करते हैं का निर्धारण- न्यायालय को, यह निर्धारित करते समय कि क्या प्रत्यर्थी का कोई कृत्य, लोप, किसी कार्य का करना या आचरण "घरेलू हिंसा गठित करता है पर सामान्य प्रज्ञ/ संतुलित अभिगम विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन करने के बाद जो किसी सम्बन्धों में होते हैं, विचारण करना चाहिये एवं तब इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि क्या विशिष्ट नातेदारी "विवाह की प्रकृति" की नातेदारी है। कई बार यह पक्षकारगण का सामान्य आशय होता है कि उनके बीच सम्बन्ध कैसा है एवं इसमें उनके पारस्परिक भूमिका एवं जिम्मेदारियाँ शामिल होती हैं जो उनके सम्बन्धों को प्राथमिक रूप से शासित करती हैं। आशय अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकता है एवं उनका आशय ही सुसंगत होता है, शादी के लक्षण हो महत्व रखते हैं।

    इस तथ्य के आलोक में कि अधीनस्थ न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के बाद भी प्रत्यर्थी पति ने अपीलार्थी-पत्नी को वैवाहिक गृह की साझी गृहस्थी में निवास करने की अनुमति नहीं प्रदान किया था, सुप्रीम कोर्ट ने धारित किया कि अपीलार्थी पत्नी के विरुद्ध प्रत्यर्थी-पति द्वारा घरेलू हिंसा जारी रखी गई थी। ऐसे अनवरत घरेलू हिंसा की स्थिति में अधीनस्थ न्यायालय के लिए यह निर्णय करना आवश्यक नहीं था कि क्या घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के लागू होने के पूर्व हिंसा कारित हुई थी एवं क्या ऐसा कृत्य घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 3 के अधीन यथा परिभाषित 'घरेलू हिंसा' पद की परिभाषा के अधीन आता है।

    जब इस अधिनियम की धारा 3 घरेलू हिंसा को परिभाषित करती है, तब यह स्पष्ट है कि ऐसी हिंसा लिंग तटस्थ है। यह भी स्पष्ट है कि शारीरिक दुरुपयोग, मौखिक दुरुपयोग, भावनात्मक दुरुपयोग और आर्थिक दुरुपयोग सभी महिलाओं द्वारा अन्य महिलाओं के विरुद्ध किया जा सकता है। लैंगिक दुरुपयोग भी दी गयी तथ्यात्मक परिस्थिति में एक महिला द्वारा अन्य पर हो सकता है। इसलिए, धारा 3 एक्ट के सामान्य उद्देश्य के साथ महिला के विरुद्ध किसी प्रकार की घरेलू हिंसा को अवैध बनाने की अपेक्षा करता है और लिंग तटस्थत है।

    व्यथित व्यक्ति घरेलू नातेदारों एवं प्रत्यर्थी के संयुक्त पठन से प्रदर्शित होता है कि कोई महिला वयस्क पुरुष के विरुद्ध घरेलू हिंसा की शिकायत कर सकती है जिसके साथ वह घरेलू नातेदारी में है या रह चुकी है। इन परिभाषाओं के सामान्य अर्थ किसी अन्य व्यक्ति को सम्मिलित नहीं करते। हालांकि "प्रत्यर्थी" की परिभाषा का परन्तुक है जो व्यक्ति व्यक्ति को उसके पति के नातेदार या उसके पुरुष भागीदार के विरुद्ध परिवाद दाखिल करने के योग्य बनाता है।

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