स्टाम्प किए गए दस्तावेज़ों की कानूनी वैधता: भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 की धारा 36 और 37
Himanshu Mishra
1 March 2025 1:19 PM

भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 (Indian Stamp Act, 1899) विभिन्न कानूनी दस्तावेज़ों पर स्टाम्प शुल्क (Stamp Duty) लगाने और उसे नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है। स्टाम्प शुल्क का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दस्तावेज़ों की कानूनी वैधता (Legal Validity) बनी रहे और वे न्यायालय (Court) और अन्य विधिक कार्यवाहियों (Legal Proceedings) में प्रमाण (Evidence) के रूप में मान्य रहें। यह अधिनियम यह भी सुनिश्चित करता है कि स्टाम्प शुल्क की चोरी न हो और कानूनी रूप से जुड़ी हुई सभी पार्टियाँ सुरक्षित रहें।
पिछली धारा 35 में यह स्पष्ट किया गया था कि यदि कोई दस्तावेज़ स्टाम्प शुल्क रहित (Unstamped) या अपर्याप्त स्टाम्प शुल्क (Insufficiently Stamped) के साथ प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा। हालांकि, कुछ परिस्थितियों में उपयुक्त शुल्क और जुर्माना (Penalty) जमा करने पर ऐसे दस्तावेज़ों को मान्यता मिल सकती है।
धारा 36 यह निर्धारित करती है कि एक बार किसी दस्तावेज़ को प्रमाण के रूप में स्वीकार कर लिया गया, तो बाद में उसी मुकदमे (Suit) या कार्यवाही (Proceeding) में स्टाम्प शुल्क की कमी के आधार पर उसकी वैधता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। वहीं, धारा 37 उन मामलों से संबंधित है जहाँ दस्तावेज़ पर लगाया गया स्टाम्प शुल्क राशि (Stamp Duty Amount) के हिसाब से सही है, लेकिन उसका विवरण (Description) गलत है। इस स्थिति में, राज्य सरकार (State Government) नियम बनाकर ऐसे दस्तावेज़ों को विधिवत प्रमाणित (Certified) कर सकती है।
ये दोनों प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि मामूली त्रुटियों (Minor Errors) के कारण कानूनी प्रक्रिया बाधित न हो और न्याय समय पर हो।
धारा 36: प्रमाण के रूप में स्वीकृत दस्तावेज़ पर आपत्ति नहीं उठाई जा सकती (Finality of Admission of Instruments in Evidence)
भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 36 यह कहती है कि यदि किसी दस्तावेज़ को एक बार किसी न्यायालय (Court) या साक्ष्य ग्रहण करने के अधिकारी (Authority Receiving Evidence) द्वारा प्रमाण (Evidence) के रूप में स्वीकार कर लिया गया, तो उसके स्टाम्प शुल्क की वैधता को बाद में उसी मुकदमे या कार्यवाही में चुनौती नहीं दी जा सकती।
हालांकि, इस नियम का एक अपवाद (Exception) धारा 61 में दिया गया है, जिसमें High Court को यह अधिकार दिया गया है कि वह अपील (Appeal) या पुनरीक्षण (Revision) के दौरान ऐसे दस्तावेज़ों की जाँच कर सके। लेकिन निचली अदालतें (Lower Courts) या वही अदालत जिसने दस्तावेज़ को पहले स्वीकार किया था, वह इस विषय को फिर से नहीं उठा सकती।
यह प्रावधान कानूनी प्रक्रिया की स्थिरता (Stability) बनाए रखने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अगर मुकदमे के बीच में बार-बार दस्तावेज़ों की वैधता को चुनौती दी जाने लगे, तो यह मुकदमों में अनावश्यक देरी (Unnecessary Delay) और जटिलता (Complications) पैदा कर सकता है।
धारा 35 से संबंध और न्यायालय की भूमिका (Connection with Section 35 and the Role of the Court)
धारा 35 के अनुसार, यदि कोई दस्तावेज़ अपर्याप्त रूप से स्टाम्प किया गया है, तो उसे प्रमाण के रूप में तब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा जब तक कि स्टाम्प शुल्क और जुर्माना जमा न कर दिया जाए। लेकिन धारा 36 यह स्पष्ट करती है कि यदि न्यायालय ने गलती से ऐसे दस्तावेज़ को स्वीकार कर लिया है, तो प्रतिपक्ष (Opposing Party) उसी मुकदमे में इस पर आपत्ति नहीं उठा सकता।
हालांकि, यदि मामला उच्च न्यायालय में अपील के रूप में जाता है, तो धारा 61 के तहत न्यायालय यह जाँच सकता है कि क्या दस्तावेज़ को सही तरीके से स्वीकार किया गया था।
उदाहरण (Illustration) – धारा 36 का व्यावहारिक प्रभाव
मान लीजिए कि दो व्यापारिक साझेदार (Business Partners) एक व्यावसायिक संपत्ति (Commercial Property) में निवेश के लिए एक अनुबंध (Contract) बनाते हैं। किसी कानूनी विवाद (Legal Dispute) में यह दस्तावेज़ साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और न्यायालय इसे स्वीकार कर लेता है। बाद में, एक साझेदार यह तर्क देता है कि यह दस्तावेज़ पर्याप्त रूप से स्टाम्प नहीं किया गया था, इसलिए इसे अमान्य (Invalid) घोषित किया जाना चाहिए।
धारा 36 के अनुसार, यदि एक बार दस्तावेज़ को प्रमाण के रूप में मान लिया गया, तो उसी मुकदमे में उसकी स्टाम्प वैधता को चुनौती नहीं दी जा सकती। यह नियम न्यायिक प्रक्रिया को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए आवश्यक है।
धारा 37: गलत विवरण वाले स्टाम्प पर दस्तावेज़ को वैध करना (Rectification of Instruments with Improper Stamps)
धारा 37 उन मामलों से संबंधित है जहाँ स्टाम्प शुल्क की राशि सही होती है, लेकिन स्टाम्प का विवरण (Stamp Description) गलत होता है। इस स्थिति में, राज्य सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह नियम बनाकर ऐसे दस्तावेज़ों को प्रमाणित (Certified) कर सके।
एक बार जब दस्तावेज़ को प्रमाणित कर दिया जाता है, तो उसे उसी दिन से विधिवत रूप से स्टाम्प किया गया माना जाएगा जिस दिन वह निष्पादित (Executed) किया गया था।
इस प्रावधान का महत्व (Practical Importance of Section 37)
कई बार, लोग सही राशि का स्टाम्प खरीदते हैं लेकिन गलती से गलत प्रकार का स्टाम्प उपयोग कर लेते हैं। इस तरह की तकनीकी त्रुटियों (Technical Errors) को सही करने के लिए धारा 37 एक समाधान प्रदान करती है।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि कोई व्यक्ति साझेदारी दस्तावेज़ (Partnership Deed) बनाने के लिए स्टाम्प खरीदता है, लेकिन गलती से उस पर पट्टा अनुबंध (Lease Agreement) लिखा होता है। यदि स्टाम्प शुल्क की राशि सही है, तो केवल इस कारण से दस्तावेज़ को अमान्य नहीं किया जा सकता। धारा 37 के तहत, राज्य सरकार ऐसे दस्तावेज़ों को सही घोषित करने के लिए नियम बना सकती है।
धारा 35, 36 और 37 का आपसी संबंध (Connection Between Sections 35, 36, and 37)
ये तीनों धाराएँ स्टाम्प किए गए दस्तावेज़ों की कानूनी वैधता सुनिश्चित करने के लिए एक व्यापक व्यवस्था प्रदान करती हैं।
• धारा 35 यह निर्धारित करती है कि बिना स्टाम्प या अपर्याप्त स्टाम्प वाले दस्तावेज़ों को बिना उचित शुल्क और जुर्माना चुकाए साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
• धारा 36 यह सुनिश्चित करती है कि यदि एक बार दस्तावेज़ को प्रमाण के रूप में स्वीकार कर लिया गया, तो उसी मुकदमे में उसकी वैधता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
• धारा 37 उन मामलों के लिए समाधान प्रदान करती है जहाँ स्टाम्प शुल्क की राशि सही होती है, लेकिन विवरण गलत होता है।
भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 कानूनी दस्तावेज़ों को नियंत्रित करने और स्टाम्प शुल्क की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। धारा 36 और 37 इस व्यवस्था का अभिन्न अंग हैं, जो दस्तावेज़ों की वैधता को बनाए रखने और अनावश्यक कानूनी विवादों को रोकने में मदद करती हैं।
धारा 36 यह सुनिश्चित करती है कि एक बार किसी दस्तावेज़ को स्वीकार कर लिया गया, तो उसी मुकदमे में स्टाम्प शुल्क की वैधता को लेकर आपत्ति नहीं की जा सकती। वहीं, धारा 37 यह सुनिश्चित करती है कि यदि स्टाम्प शुल्क की राशि सही है, तो विवरण की त्रुटि के आधार पर दस्तावेज़ को अमान्य नहीं किया जाएगा।
इन प्रावधानों से यह स्पष्ट होता है कि कानून तकनीकी त्रुटियों को सुधारने और न्यायिक प्रक्रिया को सरल बनाने की दिशा में काम करता है, ताकि कानूनी विवादों को कम किया जा सके।