संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 16 : प्रतिभू के दायित्व और अधिकार

Shadab Salim

5 Nov 2020 6:29 AM GMT

  • संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 16 : प्रतिभू के दायित्व और अधिकार

    अब तक के संविदा विधि से संबंधित आलेखों में संविदा विधि के आधारभूत नियमों के साथ प्रत्याभूति की संविदा का अध्ययन किया जा चुका है। पिछले आलेख में प्रत्याभूति की संविदा क्या होती है इस संदर्भ में उल्लेख किया गया था इस आलेख में प्रतिभू के दायित्व और उसके अधिकारों के संबंध में चर्चा की जा रही है।

    प्रतिभू के दायित्व (Surety Obligations)

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 128 प्रतिभूओं के दायित्वों से संव्यवहार करती है। इसके अनुसार प्रतिभू के दायित्व जब तक संविदा द्वारा अन्यथा उपबंधित न हो मुख्य ऋणी के दायित्व के सामान विस्तृत हैं। प्रतिभू मुख्य ऋणी के लिए उत्तरदायित्व लेता है तो वह मुख्य ऋणी के पूर्ण ऋण के लिए उत्तरदायी है।

    धारा 128 में प्रतिभू के दायित्व को व्यापकता के सामान्य नियम का प्रतिपादन किया गया है। जब तक कि कोई विपरीत संविदा न हो प्रतिभू के दायित्व का विस्तार में मुख्य ऋणी के दायित्व के समान ही होता है लेकिन यदि संविदा करते समय प्रतिभू के दायित्व की सीमा को सुनिश्चित कर दिया जाता है तो ऐसे मामलों में उसका दायित्व सीमा से अधिक नहीं होगा चाहे मुख्य ऋणी का दायित्व कितना ही क्यों न हो।

    रामकिशन बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश एआईआर 2012 एससी 2228 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि दायित्व मूल ऋणी के समय स्तरीय होता है। वह अपने विरुद्ध डिक्री के निष्पादन को इस आधार पर नहीं रोक सकता है कि वह पहले लेनदार द्वारा मूल ऋणी के विरुद्ध उपचार का प्रयोग कर लिया जाए।

    बैंक ऑफ बड़ौदा बनाम भागवत नायक एआईआर 2005 मुंबई 224 के वाद में ग्यारंटी के करार के अंतर्गत प्रतिवादीगणों ने देय भुगतान करने का करार किया तथा बैंक को भी ग्यारंटी दी। प्रतिभूओं में से एक ऋण का भुगतान करने में असफल रहा तथा निर्माण के लिए जिस ट्रॉली के लिए ऋण लिया गया था उसे भी अन्य को दे दिया। बिना बैंक की सम्मति के ट्राली के लिए ऋण लिया गया। निर्णय हुआ कि अन्य सभी प्रतिवादी एवं मूल ऋणी संयुक्त तथा पृथक रूप से वादी बैंक के प्रति दायित्वधिन है।

    नारायण सिंह बनाम छतर सिंह एआईआर 1973 राजस्थान 347 के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि धारा 128 को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिभू का उत्तरदायित्व मुख्य ऋणी के समान इस तरह होता है तथा यदि मुख्य ऋणी के उत्तरदायित्व को संशोधित कर दिया जाए या आंशिक या पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाए तो प्रतिभू का उत्तरदायित्व भी उसी प्रकार कम या समाप्त हो जाएगा।

    बैंक ऑफ बड़ौदा बिहार बनाम दामोदर प्रसाद एआईआर 996 एससी 297 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि प्रतिभू का उत्तरदायित्व तुरंत होता है तथा इसको तब तक के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता है जब तक कि ऋणदाता के मुख्य ऋणी के विरुद्ध सभी उपाय समाप्त नहीं हो जाते।

    कल्पना बनाम कुण्टीरमन एआईआर 1975 मद्रास 174 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि प्रतिभू एक अवयस्क से प्रत्याभूति करता है तो वह उत्तरदायी नहीं होगा क्योंकि प्रतिभू का उत्तरदायित्व मुख्य ऋणी के उत्तरदायित्व के सम विस्तीर्ण होता है परंतु यदि संविदा क्षतिपूर्ति की है तो वह उत्तरदायी हो सकेगा।

    फेनर इंडिया लिमिटेड बनाम पंजाब एंड सिंध बैंक एआईआर 1997 एससी 3450 के मामले में बैंक द्वारा ₹3000000 तक की अग्रिम राशि पर प्रतिभू उक्त राशि के लिए दायित्वाधिन था। बैंक ने ₹2000000 रुपये दिए। ग्यारंटी देने वाले ने यह कहकर मुक्ति चाही कि उसने 30 लाख के लिए ग्यारंटी दी थी न कि 2000000 के लिए।

    उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्रतिभू एक पैसे से लेकर ₹300000 तक की ग्यारंटी के लिए उत्तरदायी होगा। सहमति धनराशि तक की सीमा तक कोई भी धनराशि यदि अग्रिम दी गई है तो वह वापस ली जा सकती है।

    प्रतिभू के अधिकार

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 140, 141 एवं 145 में प्रतिभू के ऋण दाता मूल ऋणी एवं सह प्रतिभू के विरुद्ध अधिकारों का उल्लेख किया गया है।

    जहां कोई प्रतिभू मुख्य ऋणी के ऋणों का भुगतान कर देता है तो वह मुख्य ऋणी के विरुद्ध उन सभी अधिकारों एवं प्रतिभूतियों का हकदार हो जाता है जो कि ऋण दाता को उसके विरुद्ध प्राप्त थे। ऐसी स्थिति में मुख्य ऋणी के स्थान पर प्रतिभू प्रतिस्थापित हो जाता है। ऐसे अधिकार प्रतिभूओं में स्वतः उस समय अवस्थित हो जाते हैं और उन्हें अंतरित किए जाने की आवश्यकता नहीं होती।

    ऋण दाता की प्रतिभूतियों का लाभ उठाने का अधिकार

    प्रतिभू उन समस्त प्रतिभूतियों का लाभ उठाने का हकदार होता है जो ऋण दाता ने मुख्य ऋणी के विरुद्ध प्राप्त की है। यदि ऋण दाता ऐसी प्रतिभूति को खो देता है या प्रतिभू की सहमति के बिना उस प्रतिभूति को विलय कर देता है तो प्रतिभू उस प्रतिभूति के मूल्य के परिणाम तक उन्मोचित हो जाएगा। लेकिन यदि कोई हानि किसी देवीय कृत्य, राज्य के शत्रुओं या आकस्मिक दुर्घटना के कारण होती है तो उपरोक्त नियम लागू नहीं होगा।

    क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार

    धारा 145 मुख्य ऋणी से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के प्रतिभू के विवक्षित अधिकारों का उल्लेख करती है। प्रतिभू उस समग्र धनराशि को मुख्य ऋणी से वसूल करने का अधिकार रखता है जो प्रत्याभूति के अधीन वह अधिकारपूर्वक देता है परंतु ऐसी कोई धनराशि को वसूल नहीं कर सकता जो वह अधिकार पूर्वक नहीं देता है। शब्द "अधिकारपूर्वक" से तात्पर्य सही न्यायोचित एवं साम्यपूर्ण देनगी से है। बाधित ऋण का भुगतान अधिकार पूर्वक भुगतान नहीं होता। बाधित ऋण उसे कहते हैं जो परिसीमा अधिनियम के अंतर्गत समय बाधित हो गया है।

    सह प्रतिभू के विरुद्ध बराबर अंश पाने का अधिकार

    धारा 146 के अनुसार सह प्रतिभू के विरुद्ध प्रत्येक प्रतिभू को अधिकार होता है कि वह अन्य प्रतिभू से मूल ऋण की देनगी के लिए बराबर अंशदान कराए।

    प्रतिभू के दायित्वों का उन्मोचन

    प्रतिभू निम्नलिखित प्रकार से अपने दायित्व से उन्मोचित हो जाता है

    प्रतिसंहरण की सूचना द्वारा

    धारा 138 के तहत चलत प्रत्याभूति को प्रतिभू ऋण दाता को सूचना देकर भविष्य के संव्यवहारों के बारे में किसी भी समय प्रतिसंहरण कर सकता है।

    प्रतिभू की मृत्यु द्वारा

    धारा 131 के प्रावधानों के अनुसार प्रतिभू की मृत्यु चलत प्रत्याभूति को प्रतिकूल संविदा के अभाव में वहां तक जहां तक कि उनका भविष्य के संव्यवहारों से संबंध है प्रतिसंहृत कर देती है।

    संविदा में परिवर्तन या भिन्नता

    विधि का यह सामान्य नियम है कि किसी भी संविदा के निबंधनों में कोई भी फेरफार उस संविदा के सभी मुख्य पक्षकारों की सहमति से किया जाना चाहिए।

    यदि प्रत्याभूति कि संविदा में लेनदार और ऋणी प्रतिभू की जानकारी एवं सम्मति के बिना उस संविदा के निर्बन्धन में कोई फेरफार कर लेते हैं तो वह प्रतिभू उस संविदा के अधीन पश्चातवर्ती संव्यवहारों के लिए अपने दायित्वों से उन्मोचित हो जाएगा।

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