संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 13 : संविदा- सदृश्य क्या होता है, संविदा सदृश्य के संबंध में विशेष बातें (Quasi Contract)
Shadab Salim
26 Oct 2020 9:41 PM IST
किसी भी संविदा के होने के लिए करार की आवश्यकता होती है। प्रस्थापना और प्रस्थापना के प्रतिग्रहण के बाद करार का जन्म होता है तथा इसमें भी स्वतंत्र सहमति और वैध प्रतिफल तथा विधिपूर्ण उद्देश्य होना आवश्यक होता है। पूर्व के आलेखों में अब तक किसी संविदा के प्रस्ताव से लेकर उस संविदा के पालन तक चर्चा की जा चुकी है। इस आलेख में सदृश्य संविदा के विषय में चर्चा की जा रही है।
संविदा होने के लिए करार की आवश्यकता होती है तब संविदा का निर्माण होता है परंतु सदैव ऐसा नहीं होता है। कुछ संविदाएं तो ऐसी होती हैं जिनमें कोई प्रस्ताव नहीं होता कोई स्वीकृति नहीं होती कोई प्रतिफल का निर्धारण नहीं होता परंतु संविदा का निर्माण हो जाता है। इसे सदृश्य संविदा कहते हैं अर्थात ऐसी संविदा जिसमें संविदा नजर नहीं आती है परंतु संविदा का अस्तित्व होता है।
पूर्व के आलेखों में यह बताया गया है कि जिस प्रकार संविधान प्रशासनिक विधि की सर्वोच्च विधि होती है उसी प्रकार सिविल विधि में संविदा विधि सर्वोच्च विधि होती है तथा संविदा विधि सिविल विधि में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है इसलिए यह संविदा विधि का दायित्व है कि वह समाज में होने वाली ऐसे संव्यवहार को भी संविदा का स्थान दें जिसमें संविदा नजर नहीं आती है परंतु संविदा का निर्माण हो जाता है। इस हेतु ही भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 68 से लेकर 72 तक सदृश संविदा के विषय में उल्लेख किया गया है।
संविदा सदृश्य (धारा 68- 72)
कोई नजर आने वाली संविदा नहीं होने के बाद भी कुछ व्यवहारों को संविदा मान लिया जाता है तथा उन व्यवहारों से होने वाली क्षतिपूर्ति के लिए प्रतिकर वादी को दिलवाया जा सकता है। दामोदर मुदालियर बनाम भारत राज्य के एक पुराने प्रकरण में निर्णय दिया गया था कि यदि किसी व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति के लिए कार्य किया है तथा उसका आशय ऐसा निशुल्क कार्य करना नहीं था तो अन्य व्यक्ति जिसने ऐसे कार्य का लाभ उठाया है पहले व्यक्ति की भरपाई करने के लिए बाध्य है।
इस वाद में सरकार ने एक तालाब की मरम्मत करवाई जिससे 11 गांवों की सिंचाई हुई। कुछ ग्राम जमीदारों के थे जिन्होंने उक्त मरम्मत से लाभ उठाया था। सरकार का आशय यह सुविधा निशुल्क देना नहीं था अतः न्यायालय ने निर्णय दिया कि वह उक्त तालाब की मरम्मत में हुए खर्च में अपना अनुदान देने के लिए बाध्य थे।
इस प्रकरण से यह समझा जा सकता है कि कोई ऐसा कार्य जो किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति के लिए किया है तथा उस कार्य में कुछ खर्च किया है और ऐसा कार्य निशुल्क करने के आशय से नहीं किया गया था तो ऐसी परिस्थिति में खर्च करने वाला व्यक्ति अपने किए गए खर्च को प्राप्त करने का अधिकारी होता है।
सदृश संविदा को लेखक द्वारा दिए गए उदाहरण के माध्यम से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है-
राम सड़क से जा रहा था तथा उसने सड़क पर एक भीषण वाहन दुर्घटना देखी। इस वाहन दुर्घटना में घनश्याम गंभीर रूप से घायल हो गया तथा उसका रक्त बहने लगा। घनश्याम की मदद करने वाला आस पास कोई नहीं था तथा यदि घनश्याम की मदद नहीं की जाती तो उसकी मृत्यु हो जाती। इस घटना को देखता हुआ राम घनश्याम के निकट घटनास्थल पर पहुंचा और पहुंच कर उसने घनश्याम को अपनी कार में लेटा कर अस्पताल पहुंचाया।
अस्पताल में राम से ₹100000 मांगे गए जिससे घनश्याम के लिए दवाई मंगाई जा सकें। राम ने अस्पताल को ₹100000 का भुगतान कर दिया तथा उससे घनश्याम के लिए दवाई मंगाई गई। अब यहां पर राम घनश्याम के परिवारजनों से या उसके उत्तराधिकारियों से या स्वयं घनश्याम से अस्पताल को भुगतान किए गए अपने उस ₹100000 को प्राप्त करने का अधिकारी होगा। इसके संबंध में भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 68 से लेकर 72 के अंतर्गत संपूर्ण प्रावधान दिए गए।
भारत के उच्चतम न्यायालय में धारा 70 को लागू करने के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक माना है अर्थात यदि किसी संविदा को सदृश्य संविदा माना जाएगा तो किस परिस्थिति में माना जाएगा तथा उस परिस्थिति और व्यवहार में किन तत्वों का होना आवश्यक है।
1)- कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई कार्य विधिपूर्ण करता है या उसे कुछ चीज परिदान करता है कोई ऐसा कार्य या प्रदान की जाने वाली चीज उसके जीवन के लिए अनुकूल होना चाहिए तथा ऐसी प्रदान करने वाली चीज को प्रदान करने वाला व्यक्ति उसकी भरपाई कराने का हकदार होगा।
2)- उसका आशय ऐसा कार्य निशुल्क करने का नहीं है। जहां कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिए विधिपूर्ण कोई बात करता है उसे कोई चीज परिदत्त करता है और यह बात या परिदान निशुल्क करने का आशय ना रखते हुए करता है और ऐसा दूसरा व्यक्ति उस चीज का लाभ उठा लेता है तो उसे प्रदान करने वाला व्यक्ति उसकी भरपाई का अधिकारी होता है।
3)- ऐसा दूसरा व्यक्ति उसका लाभ उठाता है
यह तीनों प्रकार के तत्व पाए जाते हैं तो वादी क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए अधिकारी होता है तथा यहां पर एक सदृश्य संविदा का निर्माण हो जाता है। ऐसी संविदा जो संविदा तो नहीं होती है परंतु संविदा का बल रखती है।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम बी के मंडल एआईआर 1962 एससी 779 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया की धारा 70 के अधीन प्रतिकर के लिए दावे का आधार पक्षकारों के मध्य विद्यमान संविदा नहीं है वरन यह है कि एक पक्षकार ने विधिपूर्ण कुछ कार्य दूसरे पक्षकार के लिए किया है और उसने उक्त कार्य से लाभ उठाया है। दिन कुछ कार्य सरकार के लिए किया गया या कुछ वस्तुएं सरकारी अधिकारी की प्रार्थना पर प्रदान की गई है तो धारा 70 लागू होगी को सरकार प्रतिकर देने के लिए बाध्य होगी।
न्यूमेरिकल कंपनी बंगाल प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि यदि सरकार के साथ ऐसी संविदा का पालन अनुच्छेद 299 (1) के अंतर्गत नहीं किया जाता है फिर भी यदि संविदा अधिनियम की धारा 70 के आवश्यक तत्व उपस्थित होते हैं तो न्यायालय अनुतोष प्रदान कर सकता है।
पड़ी हुई वस्तु पाने का उत्तरदायित्व-
कुछ वस्तु गुम हो जाती है तथा किसी अन्य व्यक्ति को पड़ी हुई प्राप्त होती है। इस परिस्थिति में भी सदृश्य संविदा का नियम लागू होता है। इस के संदर्भ में भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 71 है जो इस संबंध में उल्लेख कर रही है। इस धारा के अनुसार जो व्यक्ति किसी अन्य की वस्तुओं को पाता है उन्हें अपनी अभिरक्षा में लेता है वैसे ही दायित्व के अधीन होना होगा जैसे कि एक उपनिहिती होता है। उपनिहिती क्या होता है इसके संबंध में अगले आलेखों में उल्लेख किया जाएगा।
यदि वस्तुओं को पाने वाला किसी अन्य की वस्तु को एक बार अपनी अभिरक्षा में लेता है तो यह विधि में उपनिहिती माना जाता है तथा संविदा अधिनियम की धारा 71 के अनुसार उसके वही सब उत्तरदायित्व होते हैं जो उपनिहिती के होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ परिस्थितियों में वह वस्तुओं को बेच सकता है पर एक युक्तियुक्त समय बीत जाना चाहिए। जबकि कोई चीज जो कि सामान्यता विक्रय का विषय है खो जाती है तब यदि स्वामी का युक्तियुक्त उधम से पता नहीं लगाया जा सकता या मांगे जाने पर पाने वाले के विधिपूर्ण खर्च को चुकाने से स्वामी इंकार करता है तो पाने वाला निम्नलिखित परिस्थितियों में पाई हुई वस्तुओं को बेच देता है-
1)- जबकि खतरा है कि वह चीज नष्ट हो जाए या अपने मूल्य के अधिकतर भाग को खो दे तब की पाई गई चीज के दावे में पाने वाले के विधिपूर्ण खर्चों का परिणाम उसके मूल्य का दो तिहाई है।
2)- संविदा सादृश्य के अंतर्गत कोई वस्तु यदि पड़ी प्राप्त होती है ऐसी परिस्थिति में जिसे वह वस्तु प्राप्त हुई है वह उस वस्तु को पुनः लौटाने का दायित्व रखता है।
भूलपूर्वक या उत्पीड़न के अधीन दिए गए धन को लौटाना-
भूल में या उत्पीड़न के कारण किसी वस्तु को यदि परिदत्त कर दिया गया है अर्थात डिलीवर कर दिया गया है तो ऐसी परिस्थिति में भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 72 के अनुसार उस धन या वस्तु को पाने वाले व्यक्ति को पुनः लौटाना होगा।
जैसे कभी कभी कोई धन किसी अन्य व्यक्ति के बैंक के खाते में हस्तांतरित करना था परंतु भूलपूर्वक वह धन किसी अन्य व्यक्ति के खाते में हस्तांतरित हो गया अब ऐसी परिस्थिति में धन को पुनः लौटाए जाने का दायित्व उस व्यक्ति के पास होगा जिसके खाते में भूलपूर्वक धन चला गया है।
वर्तमान समय में ऑनलाइन बाजार का युग है। ऑनलाइन वस्तुओं को घर पहुंच सेवा के साथ विक्रय किया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में कभी-कभी वस्तु जिस व्यक्ति के घर डिलीवर करना है वहां डिलीवर ना होकर किसी अन्य व्यक्ति के घर डिलीवर हो जाती है इस परिस्थिति में जिस व्यक्ति के घर भूलपूर्वक वस्तु डिलीवर हो गई है और उस वस्तु से उस पाने वाले व्यक्ति ने लाभ प्राप्त किया है तो उस व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह उस वस्तु को पुनः लौटाएं। यदि वह वस्तु नहीं लौटाता है तो ऐसी परिस्थिति में वस्तु को भेजने वाला व्यक्ति भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 72 के अंतर्गत न्यायालय में शरण लेकर प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकारी होता है क्योंकि यहां पर सदृश संविदा का निर्माण हो जाता है जबकि कोई दैहिक स्वतंत्रता अस्तित्व में नहीं आयी परंतु संविदा का निर्माण हो गया है।
लोहिया ट्रेडिंग कंपनी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया एआईआर 1978 कोलकाता 468 के प्रकरण में कोलकाता उच्च न्यायालय अभिनिर्धारित किया की धारा 72 के अंतर्गत वह मामले आतें हैं जिनमें धन या वस्तु यह विश्वास से दिया जाता है कि वह विधिपूर्ण विश्वास या भूल के कारण होता है। ऐसा विश्वास विधि यह तथ्य की भूल के कारण हो सकता है।
ओएनजीसी बनाम स्टेशन ऑफ नेचुरल गैस कंजूमिंग इंडस एआईआर 2001 एससी 2996 के वाद में प्राकृतिक गैस के प्रदाय के बारे में ओएनजीसी तथा विभिन्न उद्योगों के बारे में करार किए गए करार में कीमत भुगतान, भुगतान का ढंग तथा भुगतान में विलंब के लिए ब्याज देने के निबंधन थे। करारों के समय की समाप्ति पर ओएनजीसी ने प्रस्तावित किया कि संविदा का नवीनीकरण बढ़ी हुई कीमत पर किया जाए। क्रेता ने कीमत की वृद्धि को चुनौती दी तथा न्यायालय से अंतरिम आदेश प्राप्त कर लिया कि वह मूल कीमत पर ही भुगतान करेगा तत्पश्चात न्यायालय ने कीमत में वृद्धि को वैध माना तथा आदेश दिया कि संविदा का नवीनीकरण माना जाए तथा क्रेता बढ़ी हुई कीमत से भुगतान किया क्योंकि भुगतान में विलंब हुआ था ओएनजीसी को करार में लिखित दर के हिसाब से अदा किया जाए।