जानिए किसी केस में पक्षकारों की डेथ हो जाने पर क्या इफेक्ट होता है?
Shadab Salim
25 Oct 2024 9:00 AM IST
कोई अदालती मुकदमे में दो पक्ष होते हैं, एक पक्ष होता है जो मुकदमा कोर्ट में लाता है और दूसरा पक्ष वह होता है जो मुकदमे को डिफेंट करता है। केस दो तरह के होते हैं, एक सिविल केस और दूसरा क्रिमिनल केस। सिविल केस प्राइवेट लगाया जाता है और क्रिमिनल केस सरकार द्वारा लगाया जाता है क्योंकि अपराध सरकार के खिलाफ होता है और किसी भी अपराध में फरियादी केवल एक गवाह होता है और इत्तिलाकर्ता होता है।
ऐसे किसी भी केस में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने से सभी मामलों में वादकारण समाप्त नहीं हो जाता है। जैसे अगर पति और पत्नी के बीच तलाक या भरण पोषण जैसा कोई मुकदमा चल रहा है और प्रतिवादी की मौत हो जाती है तब वादकारण समाप्त हो जाता है। लेकिन अनेक मामले ऐसे है जहां प्रतिवादी की मौत के बाद भी वादकारण समाप्त नहीं होता है।
जैसे वादी ने प्रतिवादी से कोई संपत्ति खरीदने बाबत किसी प्रकार का कोई एग्रीमेंट किया था और उस पर विवाद है, प्रतिवादी की मौत के बाद भी यह वादकारण समाप्त नहीं होता है। क्योंकि प्रतिवादी के किसी कार्य या लोप से वादी को हानि होती है और उसकी पूर्ति प्रतिवादी की मौत हो जाने पर भी नहीं होती है।
इसके संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 में विस्तृत प्रावधान दिए गए हैं। जहां पर किसी प्रतिवादी की मौत हो जाने पर किसी भी मामले में सर्वप्रथम वादकारण को देखा जाता है। अगर मौत के बाद भी वादकारण शेष है तब न्यायालय प्रतिवादी के उत्तराधिकारियों को मामले में पक्षकार बना देता है। यदि कोई संपत्ति का कब्जा लेना है या फिर कोई रुपए पैसों की वसूली है तब प्रतिवादी की संपत्तियों की नीलामी कर ऐसी वसूली की जा सकती है। प्रतिवादी के उत्तराधिकारी उसकी ओर से मामले में प्रस्तुत होने के लिए बाध्य होते हैं।
किसी भी मामले में प्रतिवादी की मौत हो जाने पर उसके उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाया जाता है। प्रतिवादी की मौत हो जाने पर उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाने संबंधित प्रक्रिया आदेश 22 में दी गई है। जहां स्पष्ट रूप से बताया गया है कि ऐसा पक्षकार बनाने हेतु वादी को न्यायालय में एक आवेदन देना होता है।
उस आवेदन में इस बात का उल्लेख करना होता है कि प्रतिवादी की मौत हो चुकी है और प्रतिवादी के उत्तराधिकारियों को मुकदमे में पक्षकार बनाया जाए। ऐसे आवेदन को देने की समय सीमा निर्धारित की गई है जहां 90 दिनों के भीतर ऐसा आवेदन प्रस्तुत करना होता है। अगर 90 दिनों के भीतर ऐसा आवेदन प्रस्तुत नहीं किया जाता है तब न्यायालय मामले को खारिज कर देता है। अगर वादी को प्रतिवादी की मौत की सूचना नहीं मिली थी तब लिमिटेशन एक्ट की धारा 5 के अंतर्गत उसे छूट मिल सकती है और न्यायालय इस बात को मान सकता है कि सूचना नहीं मिलने के कारण प्रतिवादी की ओर से आवेदन प्रस्तुत नहीं किया गया।
जैसे ही वादी को प्रतिवादी की मौत की सूचना मिलती है, वैसे ही उसके उत्तराधिकारियों की जानकारी निकाल कर उन्हें मामलों में पक्षकार बनाने का आवेदन वादी को देना चाहिए। अगर वादी को प्रतिवादी के उत्तराधिकारियों के बारे में स्पष्ट रूप से जानकारी नहीं है तब वह न्यायालय में किसी एक उत्तराधिकारी के संबंध में ही उल्लेख कर दे।
बाद में उस उत्तराधिकारी की यह जिम्मेदारी है कि वह कोर्ट में अपने अन्य लोगों के संबंध में भी जानकारी दें कि मरने वाले व्यक्ति के वह लोग उत्तराधिकारी हैं। प्रतिवादी के जितने भी वैध उत्तराधिकारी हैं सभी को मामले में पक्षकार बनाया जा सकता है या सभी की ओर से किसी एक को भी पक्षकार बनाया जा सकता है।
क्रिमिनल केस में अभियुक्त की मृत्यु हो जाने पर भी केस खत्म नहीं होता है और अभियुक्त के वारिसों के अभियुक्त के अपराध की सज़ा नहीं दी जा सकती है। अभियुक्त की मौत हो जाने पर केस जब ख़त्म होता है तब ही यह तय होता है कि कोई अभियुक्त बरी हुआ है या उसे सज़ा हुई है।