जानिए कोर्ट की डिक्री क्या होती है

Shadab Salim

11 Jan 2022 4:20 AM GMT

  • जानिए कोर्ट की डिक्री क्या होती है

    सिविल कोर्ट द्वारा दी गई डिक्री को लेकर काफी संशय की स्थिति होती है। बहुत से लोगों को यह नहीं पता होता कि डिक्री क्या होती है डिक्री और जजमेंट में डिफरेंस को समझने में थोड़ी चूक हो जाती है।

    जजमेंट, डिक्री और आर्डर तीनों ही शब्द सिविल मामले से संबंधित हैं। इन तीनों शब्दों का उपयोग सिविल कोर्ट द्वारा किया जाता है। सिविल मामला पक्षकारों को स्वयं चलाना होता है। कोई भी सिविल मामला आपराधिक मामले की तरह स्टेट के द्वारा नहीं चलाया जाता है बल्कि इसे पक्षकार स्वयं चलाते हैं। अदालत इस मामले को सुनती है ऐसे मामले में अदालत समय-समय पर ऑर्डर देती है। एक जजमेंट देती है वह जजमेंट के साथ एक डिक्री पारित करती है।

    कोई भी सिविल केस को अदालत के समक्ष चलाए जाने की एक लंबी प्रक्रिया होती है। वाद पत्र के जरिए वादी अदालत ने अपनी बात रखता है। इस पर अदालत प्रतिवादी को बुलाकर उससे जवाब मांगती है।

    प्रतिवादी जो जवाब प्रस्तुत करता है उन्हें देखने के बाद अदालत इशू बना देती है। इन इश्यू के ऊपर मुकदमा चलता है। इन इश्यू से संबंधित सबूत वादी और प्रतिवादी दोनों को अदालत के सामने पेश करना होते हैं जिनके सबूत मजबूत होते हैं न्यायालय का झुकाव उस और होता है।

    सबूतों का अवलोकन करने के बाद न्यायालय उसमें अपना निष्कर्ष देती है। ऐसा निष्कर्ष एक जजमेंट लिखकर प्रस्तुत किया जाता है इस जजमेंट के साथ में डिक्री भी होती है। यह डिक्री पक्षकारों के अधिकारों को स्पष्ट करती है अर्थात जजमेंट में जो निष्कर्ष निकला है उस निष्कर्ष के आधार पर न्यायालय कम शब्दों में संपूर्ण जजमेंट का सार लिख देती है और पक्षकारों के अधिकारों को स्पष्ट कर देती है।

    यह डिक्री कानून में अत्यधिक बल रखती है और एक संपत्ति की तरह कार्य करती है। एक डिक्री को पक्षकार ट्रांसफर भी कर सकते हैं जैसे कि यदि किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध उधार पैसे की वसूली के लिए कोई केस किया है तब अगर कोर्ट अपना जजमेंट देकर उधारी चुकता करने के संबंध में डिक्री जारी कर देती है तक जिस व्यक्ति के पक्ष में ऐसी डिक्री जारी की गई है वह डिक्री को एक प्रॉपर्टी की तरह इस्तेमाल कर सकता है। उस डिक्री को किसी अन्य व्यक्ति को दे सकता है जिससे उसकी वसूली कोई दूसरा व्यक्ति कर ले।

    एक सिविल प्रकरण में अदालत समय-समय पर आदेश देती है। ऐसे आदेश सिविल केस को चलाने के लिए आवश्यक होते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि कोई सिविल केस में अनेक महीनों की तारीख लगती है सभी तारीख पर अदालत कोई न कोई आदेश पारित करती है।

    ऐसे आदेश को आर्डर शीट पर लिखा जाता है तथा उस पर न्यायाधीश के हस्ताक्षर होते हैं यह आदेश मामले को कोर्ट में चलाने के लिए देना होते हैं पर इस आदेश से किसी भी व्यक्ति के दायित्व और अधिकार तय नहीं होते हैं और न ही विवाद के तथ्यों पर कोई हल निकलता है अपितु यह तो केवल न्यायालय अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए मामले को आगे बढ़ाता है।

    जैसे कि मान लिया जाए किसी मामले में कोई तारीख लगी है और उस तारीख को कोई पक्षकार अदालत के समक्ष हाजिर नहीं होता है तब अदालत ऐसे व्यक्ति को अगली तारीख पर हाजिर होने के लिए आदेश देती है यहां पर विवाद के तथ्यों पर कोई बात नहीं हो रही है जबकि नहीं आने वाले पक्षकार कोई आदेश किया जा रहा है कि आप न्यायालय के समक्ष हाजिर हुए और अपना मामला रखें।

    जजमेंट क्या है

    जजमेंट कोई भी विवाद के तथ्यों पर अदालत का एक विस्तार पूर्वक निष्कर्ष है जो कोई भी विवाद के तथ्यों पर आए हुए सबूतों का बहुत बारीकी से अवलोकन कर प्रस्तुत करता है। जैसे कि अगर किसी मकान पर कोई दावा किसी पक्षकार द्वारा किया गया है और अदालत के सामने यह मुकदमा लाया गया है कि वह मकान उसका है और उस पर किसी व्यक्ति ने कब्जा कर लिया है तब न्यायालय विवाद के तथ्यों को देखती है।

    इस बात की जांच करती है कि क्या वाकई ऐसा कोई मकान है और उस पर कोई कब्जा हुआ है और कब्जा किस व्यक्ति द्वारा किया गया है जिस व्यक्ति का कब्जा होता है उस व्यक्ति से अदालत यह पूछती है कि आप बताएं आपके पास में आपके मालिकाना हक के लिए क्या दस्तावेज हैं, वह अपना मालिकाना हक अदालत में साबित करता है जो भी दस्तावेज आते हैं उनका बहुत बारीकी से अवलोकन किया जाता है।

    उस अवलोकन के बाद जजमेंट लिखा जाता है। ऐसे अवलोकन को दो सबूतों के आधार पर होते हैं उन्हें जजमेंट में लिखा जाता है। मुकदमे की एक परिस्थिति को संक्षिप्त में करके जजमेंट में लिख दिया जाता है जो भी बयान पक्षकारों ने दिए हैं उनके बयानों को जजमेंट में लिखा जाता है फिर भी जजमेंट किसी भी पक्षकार के अधिकारों को तय नहीं करता है और न ही किन्हीं पक्षकारों की ड्यूटी बताता है।

    डिक्री क्या है

    सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2(2) में डिक्री को परिभाषित किया गया है जहां डिक्री को न्यायालय की एक औपचारिक अभिव्यक्ति बताया गया है। यदि सरल शब्दों में कहें तो डिक्री जजमेंट में अंत में लिखी जाने वाली न्यायालय की अभिव्यक्ति है जो विवाद के तथ्यों पर निकले हुए निष्कर्ष से पक्षकारों के अधिकार और दायित्व के संबंध में स्पष्ट उल्लेख कर देती है।

    डिक्री का लाभ यह होता है कि पक्षकारों को समस्त निर्णय पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती अपितु डिक्री पढ़कर ही निर्णय के आधार को समझा जा सकता है।डिक्री में न्यायालय कम शब्दों में अपनी बात को रख देती है और इसी के साथ पक्षकारों के अधिकार और दायित्व को स्पष्ट कर देती है।

    डिक्री को एक अधिक कानूनी बल प्राप्त होता है यदि न्यायालय में कोई डिक्री पारित की है और जिस पक्षकार के विरुद्ध ऐसी डिक्री पारित की है न्यायालय उस पक्षकार से इस डिक्री के पालन की अपेक्षा करता है। न्यायालय यह स्पष्ट कर देता है कि जिस व्यक्ति के विरुद्ध डिक्री पारित की गई है वह उसका पालन करें। अगर ऐसी डिक्री का पालन नहीं किया जाता है तब जिस व्यक्ति के पक्ष में ऐसी डिक्री पारित की गई है उस व्यक्ति द्वारा न्यायालय में एक मुकदमा लगाकर डिक्री का पालन करवाया जा सकता है।

    इन सभी बातों के बाद यह कहा जा सकता है कि संपूर्ण निर्णय में डिक्री ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। डिक्री को न्यायालय द्वारा दिए गए एक सर्टिफिकेट के तौर पर माना जा सकता है, ऐसा सर्टिफिकेट जो किसी व्यक्ति के संबंध में किसी बात को उल्लेखित कर रहा है और घोषणा कर रहा है कहीं भी किसी भी स्थान पर पक्षकार अपनी बात को रखने के लिए केवल छोटी सी डिक्री बता सकते हैं उसके लिए उन्हें कोई बड़ा भारी जजमेंट बताने की आवश्यकता नहीं होती है।

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