किशोर न्याय और जघन्य अपराध: क्या 16 से 18 साल के बच्चों को वयस्क अपराधियों की तरह सजा दी जानी चाहिए
Himanshu Mishra
12 Feb 2025 12:35 PM

भारत में नाबालिगों (Juveniles) के अपराधों को निपटाने के लिए Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015 बनाया गया है। इस कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जिन बच्चों पर अपराध का आरोप है, उन्हें उचित न्याय मिले और उनके सुधार (Rehabilitation) पर ध्यान दिया जाए।
लेकिन जब 16 से 18 वर्ष के बीच के किशोर (Teenagers) जघन्य अपराध (Heinous Crime) करते हैं, तो कानून इस बात की अनुमति देता है कि यह जांच की जाए कि उन्हें वयस्क (Adult) की तरह मुकदमे (Trial) का सामना करना चाहिए या नहीं।
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण फैसला दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि Juvenile Justice Board (JJB) को ऐसे मामलों में कैसे निर्णय लेना चाहिए। इस लेख में हम इस फैसले के तहत कानून की प्रमुख धाराओं (Provisions), न्यायालय द्वारा दी गई व्याख्याओं (Judicial Interpretations) और इसके प्रभावों (Implications) को विस्तार से समझेंगे।
Juvenile Justice कानून 2015: जघन्य अपराधों के लिए प्रावधान (Provisions for Heinous Crimes)
Juvenile Justice Act, 2015 के तहत अपराधों को तीन भागों में बांटा गया है:
1. छोटे अपराध (Petty Offenses) – जिनमें अधिकतम 3 साल की सजा होती है।
2. गंभीर अपराध (Serious Offenses) – जिनमें 3 से 7 साल की सजा हो सकती है।
3. जघन्य अपराध (Heinous Offenses) – जिन अपराधों में न्यूनतम 7 साल या उससे अधिक की सजा निर्धारित होती है।
धारा 15: प्रारंभिक मूल्यांकन (Preliminary Assessment Under Section 15)
अगर कोई बच्चा (Child) 16 से 18 वर्ष के बीच की उम्र में जघन्य अपराध करता है, तो Juvenile Justice Board (JJB) को यह जांच करनी होती है कि क्या उसे बच्चे की तरह (As a Juvenile) मुकदमे का सामना करना चाहिए या वयस्क (As an Adult) की तरह।
इस मूल्यांकन (Assessment) के दौरान चार महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया जाता है:
1. मानसिक क्षमता (Mental Capacity) – क्या बच्चे की मानसिक स्थिति अपराध करने के लिए सक्षम थी?
2. शारीरिक क्षमता (Physical Capacity) – क्या बच्चा शारीरिक रूप से अपराध करने में सक्षम था?
3. परिणामों की समझ (Ability to Understand Consequences) – क्या बच्चे को अपने कार्यों के परिणामों का ज्ञान था?
4. परिस्थितियाँ (Circumstances) – अपराध के दौरान परिस्थितियाँ क्या थीं?
अगर बोर्ड को लगता है कि बच्चा अपराध की गंभीरता को समझ सकता था, तो मामला Children's Court में भेजा जाता है, जहाँ उसे वयस्क के रूप में मुकदमे का सामना करना पड़ता है।
सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या (Supreme Court's Interpretation of Juvenile Justice Act)
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रारंभिक मूल्यांकन (Preliminary Assessment) में किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। अदालत ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण निष्कर्ष (Findings) दिए:
1. पूरी जांच (Holistic Evaluation) जरूरी
• यह मूल्यांकन केवल एक औपचारिक (Routine) प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए।
• मानसिक क्षमता, शारीरिक क्षमता, अपराध के परिणामों की समझ और परिस्थितियों का अलग-अलग आकलन किया जाना चाहिए।
2. मानसिक क्षमता और परिणामों की समझ अलग हैं (Mental Capacity and Understanding Consequences are Different)
• निचली अदालतों ने गलती से यह मान लिया कि अगर बच्चे में मानसिक क्षमता (Mental Capacity) थी तो उसमें परिणामों की समझ (Understanding Consequences) भी होगी।
• सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह दोनों अलग-अलग पहलू (Separate Aspects) हैं, और इन्हें अलग से देखा जाना चाहिए।
3. विशेषज्ञों की सहायता अनिवार्य (Mandatory Expert Assistance)
• धारा 15 में "मई" (May) शब्द का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे "अनिवार्य" (Mandatory) माना।
• अगर बोर्ड में कोई Child Psychology (बाल मनोविज्ञान) का विशेषज्ञ नहीं है, तो अनुभवी मनोवैज्ञानिक (Psychologists) और सामाजिक कार्यकर्ता (Social Workers) की मदद लेना जरूरी होगा।
4. बच्चे को पूरा अवसर मिलना चाहिए (Fair Opportunity Must Be Given to the Accused)
• JJB ने नाबालिग को दस्तावेज (Documents) देखने के लिए सिर्फ 30 मिनट का समय दिया, जो प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के खिलाफ है।
• आरोपी (Accused) को अपना बचाव करने के लिए पूरा अवसर मिलना चाहिए।
5. वैज्ञानिक रूप से सही जांच होनी चाहिए (Assessment Reports Must Be Scientifically Reliable)
• JJB ने बच्चे की मानसिक स्थिति जांचने के लिए ऐसे Psychology Tests का उपयोग किया जो उसकी उम्र के लिए सही नहीं थे।
• विशेषज्ञ (Expert) ने अधिक गहराई से जांच की सिफारिश की थी, जिसे बोर्ड ने नजरअंदाज कर दिया।
6. गोपनीयता बनाम निष्पक्ष सुनवाई (Confidentiality vs. Fair Trial)
• JJB ने आरोपी को महत्वपूर्ण दस्तावेज देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि धारा 99 के तहत ये गोपनीय (Confidential) हैं।
• सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गोपनीयता का उद्देश्य बच्चे की रक्षा करना है, न कि उसे निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) से वंचित करना।
7. वयस्क के रूप में मुकदमा अपवाद होना चाहिए (Trial as an Adult is an Exception, Not the Rule)
• अदालत ने कहा कि जघन्य अपराध करने वाले हर नाबालिग को वयस्क की तरह नहीं देखा जाना चाहिए।
• जब तक पुख्ता प्रमाण (Strong Evidence) न हो, तब तक नाबालिग को सुधार गृह (Reform Home) में ही रखा जाना चाहिए।
महत्वपूर्ण कानूनी मिसालें (Key Judicial Precedents Considered)
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में कई अन्य मामलों का भी उल्लेख किया, जिनमें शामिल हैं:
1. Mukarrab v. State of UP (2017) – इस फैसले में स्पष्ट किया गया कि नाबालिगों को वयस्कों की तरह मुकदमे का सामना नहीं करना चाहिए जब तक कानून इसकी अनुमति न दे।
2. Shilpa Mittal v. State of NCT (2020) – इसमें अपराधों के वर्गीकरण (Classification of Offenses) पर चर्चा की गई थी।
3. Kent v. United States (1966, US Supreme Court) – यह फैसला बताता है कि नाबालिगों को उचित न्यायिक प्रक्रिया (Due Process) मिलनी चाहिए।
इस फैसले के प्रभाव (Implications of the Judgment)
1. JJB को अधिक सतर्कता से जांच करनी होगी।
2. बच्चों की पुनर्वास प्रक्रिया (Rehabilitation Process) को प्राथमिकता दी जाएगी।
3. न्याय का अधिकार (Right to Fair Trial) मजबूत होगा।
4. मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों (Psychologists) की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होगी।
5. जांच एजेंसियों (Investigation Agencies) को बच्चों के मामलों के लिए विशेष प्रशिक्षण (Special Training) लेना होगा।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत में Juvenile Justice Act, 2015 के सही और न्यायसंगत (Fair and Just) तरीके से लागू होने को सुनिश्चित करेगा। यह सुधारात्मक न्याय (Rehabilitative Justice) को बढ़ावा देगा और सुनिश्चित करेगा कि नाबालिगों के साथ उचित व्यवहार (Fair Treatment) किया जाए।
इस फैसले से यह भी स्पष्ट होता है कि बच्चों को केवल उनकी उम्र के आधार पर वयस्क की तरह दंडित नहीं किया जा सकता, बल्कि उनके मानसिक विकास, अपराध की परिस्थितियों और सुधार की संभावनाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।