जस्टिस यशवंत वर्मा मामला: जजों को हटाने की प्रक्रिया, कानून और मौजूदा स्थिति
Himanshu Mishra
26 May 2025 5:13 PM IST

न्यायाधीशों को हटाने की संवैधानिक प्रक्रिया (Constitutional Process of Removing Judges)
भारत के संविधान में यह प्रावधान है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीश (Judges) तब तक अपने पद पर बने रहेंगे जब तक उनके खिलाफ "दुर्व्यवहार (Misbehaviour)" या "असमर्थता (Incapacity)" साबित न हो जाए। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 124(4) और (5) और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों के लिए अनुच्छेद 217(1)(b) और 218 लागू होते हैं।
हटाने की प्रक्रिया संसद (Parliament) में शुरू होती है। लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों या राज्यसभा में कम से कम 50 सांसदों द्वारा एक प्रस्ताव (Motion) पेश किया जाता है। यदि यह प्रस्ताव लोकसभा अध्यक्ष (Speaker) या राज्यसभा के सभापति (Chairman) द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो राष्ट्रपति (President) एक तीन सदस्यीय समिति गठित करते हैं। इसमें एक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, एक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और एक प्रख्यात न्यायविद (Eminent Jurist) शामिल होते हैं।
यह समिति जांच कर एक रिपोर्ट तैयार करती है। अगर समिति अपनी रिपोर्ट में आरोपों को सही मानती है और संसद के दोनों सदनों में यह प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पास हो जाता है, तो राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को पद से हटा सकते हैं।
जजेज़ (इंक्वायरी) एक्ट, 1968 (Judges (Inquiry) Act, 1968)
यह कानून संसद द्वारा 1968 में बनाया गया ताकि न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से तय किया जा सके। जजेज़ (इंक्वायरी) एक्ट, 1968 (Judges (Inquiry) Act, 1968) संसद द्वारा बनाया गया एक विशेष क़ानून (Statute) है, जिसका उद्देश्य न्यायाधीशों (Judges) के खिलाफ “Misbehaviour” या “Incapacity” के आरोपों को सच साबित करने के लिए एक स्पष्ट प्रक्रिया (Procedure) निर्धारित करना है। यह एक्ट संविधान के अनुच्छेद 124(4), 124(5), 217(1)(b) और 218 के अंतर्गत आते हुए न्यायाधीशों की जवाबदेही (Accountability) सुनिश्चित करता है और उनकी स्वतंत्रता (Independence) की रक्षा भी करता है।
एक्ट की धारा 3 (Section 3) सांसदों (Members of Parliament) को यह अधिकार देती है कि वे न्यायाधीश के खिलाफ एक प्रस्ताव (Motion) पेश (Move) कर सकते हैं। इस प्रस्ताव में यह स्पष्ट करना जरूरी है कि किन-किन आरोपों (Allegations) को लेकर “Misbehaviour” या “Incapacity” साबित करना है और उसके साथ पर्याप्त दस्तावेज (Documents) संलग्न करने होते हैं। यदि प्रस्ताव में आवश्यक समर्थन (Support) — लोकसभा में 100 सांसद या राज्यसभा में 50 सांसद — नहीं होगा, तो वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं होगा।
धारा 4 (Section 4) के तहत, जब प्रस्ताव स्पीकर (Speaker) या अध्यक्ष (Chairman) द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह एक तीन-सदस्यीय समिति (Three-Member Committee) को भेज दिया जाता है। इस समिति में एक सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश (Supreme Court Judge), एक हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस (Chief Justice of a High Court) और एक प्रसिद्ध न्यायविद (Eminent Jurist) शामिल होता है। समिति को साक्ष्य (Evidence) इकट्ठा करने, गवाहों (Witnesses) को बुलाने और दस्तावेजों की जांच (Examination) करने के लिए दीवानी अदालत (Civil Court) के समान अधिकार (Powers) प्राप्त हैं।
धारा 5 (Section 5) में यह प्रावधान (Provision) है कि यदि प्रारंभिक जांच (Preliminary Inquiry) से साबित हो कि आरोप निराधार (Unfounded) हैं, तो स्पीकर या अध्यक्ष प्रस्ताव वापस ले सकते हैं और आगे की प्रक्रिया बंद हो जाती है। इससे न्यायाधीश की गरिमा (Dignity) बनाए रखने में मदद मिलती है।
धारा 6 (Section 6) समिति की अंतिम रिपोर्ट (Report) के प्रस्तुत (Furnishing) होने और उसके संसद में विचार (Consideration) की प्रक्रिया को व्यवस्थित (Regulate) करती है। इस अनुभाग में तय है कि रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद संसद के दोनों सदनों (Both Houses) को प्रस्ताव पर चर्चा के लिए कम से कम 14 दिन का समय देना होगा और चर्चा के बाद ही मतदान (Voting) किया जा सकता है।
धारा 7 (Section 7) में बताया गया है कि यदि दोनों सदनों में प्रस्ताव “Majority of Total Membership” और “Two-Thirds of Members Present and Voting” से पारित हो जाता है, तो एक पत्र (Address) राष्ट्रपति (President) के पास भेजा जाता है। फिर राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को पद से निलंबित (Remove) कर सकते हैं।
अंत में धारा 13 (Section 13) समिति को दीवानी न्यायालय (Civil Court) के समान विशेषाधिकार (Privileges) और कर्तव्य (Duties) देती है, ताकि वह स्वतंत्र रूप से और निष्पक्षता (Fairness) के साथ जांच कर सके। इस एक्ट में सभी कदम (Steps) विस्तृत रूप से लिखे गए हैं, जिससे संसद, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन (Balance) बना रहे और न्यायाधीशों की संवैधानिक स्वतंत्रता सुरक्षित रहे।
वीरास्वामी केस: न्यायिक स्वतंत्रता बनाम जवाबदेही (Veeraswami Case: Judicial Independence vs Accountability)
के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) के मामले में सवाल यह उठा कि क्या एक हाई कोर्ट का मौजूदा न्यायाधीश भ्रष्टाचार के आरोप में दंड प्रक्रिया का सामना कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीश भी 'पब्लिक सर्वेंट (Public Servant)' होते हैं और उन पर भ्रष्टाचार कानून लागू होता है, लेकिन किसी भी प्रकार की प्राथमिकी (FIR) या अभियोजन (Prosecution) शुरू करने से पहले भारत के चीफ जस्टिस (Chief Justice of India) की अनुमति जरूरी होगी।
यह फैसला न्यायिक जवाबदेही और स्वतंत्रता (Accountability and Independence) के बीच संतुलन बनाता है और किसी भी जांच की शुरुआत न्यायपालिका के भीतर ही करने की आवश्यकता पर बल देता है।
अन्य प्रमुख मामले (Other Landmark Cases)
वीरास्वामी केस के बाद भी कुछ और महत्वपूर्ण घटनाएं सामने आईं। 2019 में जस्टिस एस.एन. शुक्ला (Justice S. N. Shukla) के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई (CBI) को एफआईआर दर्ज करने की अनुमति दी। यह पहला ऐसा मामला था जब सुप्रीम कोर्ट ने इन-हाउस जांच के बाद सीबीआई जांच को मंजूरी दी।
2018 में, तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा (Justice Dipak Misra) के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव (Impeachment Motion) लाया गया था, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि राजनीतिक समर्थन नहीं मिला।
यशवंत वर्मा मामला: पृष्ठभूमि और जांच (Yashwant Varma Case: Background and Inquiry)
मार्च 2025 में दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश यशवंत वर्मा (Justice Yashwant Varma) के घर में आग लगने के बाद भारी मात्रा में नकद रुपये बरामद हुए। यह राशि सूटकेस में भरी हुई थी और उसके स्रोत पर सवाल उठे। इसके बाद भारत के चीफ जस्टिस ने एक तीन सदस्यीय इन-हाउस पैनल गठित किया, जो कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के तहत काम करता है।
जस्टिस वर्मा ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि उनके खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं है और कोई नकद राशि कोर्ट स्टाफ को नहीं दिखाई गई थी। इसके बावजूद समिति ने अपनी जांच पूरी कर तीन सप्ताह के भीतर रिपोर्ट चीफ जस्टिस को सौंप दी, जिसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजा गया।
वर्तमान स्थिति (Present Status)
26 मई 2025 तक सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इन-हाउस जांच पूरी हो चुकी है और न्यायपालिका की स्वतंत्र प्रक्रिया अपनाई गई है। अब रिपोर्ट पर कोई कदम उठाना या संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाना राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के विवेक पर निर्भर करता है।
विपक्षी दलों ने मांग की है कि इस रिपोर्ट को संसद में रखा जाए ताकि पारदर्शिता बनी रहे। लेकिन अभी तक न तो कोई महाभियोग प्रस्ताव लाया गया है और न ही उन्हें पद से हटाया गया है। जब तक संसद में विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित नहीं हो जाता, तब तक किसी न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सकता।
यह मामला न्यायपालिका की आंतरिक प्रक्रिया, उसकी पारदर्शिता और जवाबदेही के बीच संतुलन का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है।