क्या जघन्य अपराध के मामलों में किशोर न्याय बोर्ड द्वारा प्रारंभिक मूल्यांकन की तीन माह की समयसीमा अनिवार्य है?

Himanshu Mishra

14 Aug 2025 7:06 PM IST

  • क्या जघन्य अपराध के मामलों में किशोर न्याय बोर्ड द्वारा प्रारंभिक मूल्यांकन की तीन माह की समयसीमा अनिवार्य है?

    Child in Conflict with Law Through His Mother v. State of Karnataka (2024 INSC 387) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 (Juvenile Justice Act, 2015) की कुछ महत्वपूर्ण धाराओं की व्याख्या की।

    इस मामले का मुख्य विवाद तथ्यों पर नहीं बल्कि इस बात पर था कि कानून में तय प्रक्रिया और समयसीमा का पालन न होने पर उसके क्या परिणाम होंगे, विशेषकर तब जब किसी बच्चे पर जघन्य अपराध (Heinous Offence) का आरोप हो और यह तय करना हो कि उसे वयस्क (Adult) के रूप में मुकदमे का सामना करना चाहिए या किशोर (Juvenile) के रूप में। मुख्य प्रश्न यह था कि धारा 14(3) के तहत प्रारंभिक मूल्यांकन के लिए तीन माह की समयसीमा बाध्यकारी (Mandatory) है या केवल मार्गदर्शक (Directory)।

    प्रारंभिक मूल्यांकन का वैधानिक ढांचा (Statutory Framework of Preliminary Assessment)

    किशोर न्याय अधिनियम के तहत, किसी भी ऐसे बच्चे के लिए जो 16 से 18 वर्ष की आयु के बीच हो और जिस पर जघन्य अपराध (Heinous Offence) का आरोप हो, किशोर न्याय बोर्ड (Board) को धारा 15 के अंतर्गत प्रारंभिक मूल्यांकन करना आवश्यक है।

    यह मूल्यांकन मुकदमा (Trial) नहीं होता, बल्कि इसका उद्देश्य यह देखना होता है कि आरोपी बच्चे की मानसिक और शारीरिक क्षमता अपराध करने की थी या नहीं, क्या वह अपराध के परिणाम समझ सकता था, और अपराध किन परिस्थितियों में हुआ। इस प्रक्रिया में बोर्ड मनोवैज्ञानिक (Psychologist), सामाजिक कार्यकर्ता (Social Worker) या अन्य विशेषज्ञों की सहायता ले सकता है।

    धारा 14(3) कहती है कि इस प्रारंभिक मूल्यांकन को बच्चे के पहली बार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत होने की तारीख से तीन माह के भीतर पूरा किया जाना चाहिए। यदि मूल्यांकन के बाद बोर्ड को लगता है कि बच्चे का मुकदमा वयस्क (Adult) के रूप में चलना चाहिए, तो धारा 18(3) के तहत मामला चिल्ड्रन्स कोर्ट (Children's Court) को स्थानांतरित किया जाता है। चिल्ड्रन्स कोर्ट, धारा 19 के तहत, यह निर्णय ले सकती है कि मुकदमा वयस्क के रूप में चलेगा या किशोर के रूप में।

    मुख्य कानूनी प्रश्न (Core Legal Question)

    सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि क्या धारा 14(3) में दी गई तीन माह की समयसीमा सख्ती से पालन करने योग्य अनिवार्य (Mandatory) है, यानी यदि समयसीमा पार हो जाए तो कार्यवाही अमान्य हो जाएगी, या यह केवल एक मार्गदर्शक (Directory) प्रावधान है जो देरी होने पर भी प्रक्रिया को वैध रखता है।

    समयसीमा की व्याख्या (Interpretation of Timeline)

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि तीन माह की यह समयसीमा Directory है, Mandatory नहीं। अदालत ने कहा कि अधिनियम में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि समयसीमा पार होने पर प्रक्रिया अमान्य हो जाएगी। इसके विपरीत, अधिनियम की धारा 14(4) में यह स्पष्ट है कि मामूली अपराध (Petty Offence) के मामलों में यदि कार्यवाही समय पर पूरी न हो, तो वह स्वतः समाप्त हो जाएगी।

    जघन्य अपराधों के मामले में ऐसी कोई परिणति (Consequence) नहीं दी गई है, जो यह दर्शाता है कि विधायिका ने इसे अनिवार्य बनाने का इरादा नहीं रखा।

    अदालत ने यह भी कहा कि यह प्रावधान प्रकृति में प्रक्रियात्मक (Procedural) है और ऐसे प्रावधान, जिनमें उल्लंघन पर दंडात्मक परिणाम न दिए गए हों, सामान्यतः Directory माने जाते हैं। इस संदर्भ में अदालत ने Topline Shoes Ltd. v. Corporation Bank और Kailash v. Nanhku जैसे निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें यह सिद्धांत स्थापित किया गया था कि बिना दंडात्मक परिणाम वाले समय-सीमा प्रावधान मार्गदर्शक होते हैं।

    इसके अलावा, अदालत ने यह भी माना कि प्रारंभिक मूल्यांकन की प्रक्रिया जटिल है। इसमें विशेषज्ञों की राय, सामाजिक जांच रिपोर्ट (Social Investigation Report) और जांच अधिकारी (Investigating Officer) की रिपोर्ट शामिल होती है। इनमें से किसी में भी देरी बोर्ड के नियंत्रण से बाहर हो सकती है।

    यदि समयसीमा को अनिवार्य मान लिया जाए, तो केवल रिपोर्ट में देरी के कारण गंभीर मामलों में आरोपी बच्चे को केवल किशोर के रूप में मुकदमे का सामना करना पड़ेगा, जो न्याय के उद्देश्य के विपरीत होगा।

    अदालत ने यह भी कहा कि अधिनियम का उद्देश्य गंभीर अपराध करने वाले बच्चों को तकनीकी कारणों से बचाना नहीं है। इसलिए समयसीमा का पालन यथासंभव करना चाहिए, लेकिन इसका उल्लंघन आदेश को स्वतः अवैध नहीं बनाता।

    बोर्ड और चिल्ड्रन्स कोर्ट की भूमिका (Role of Board and Children's Court)

    अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 18(3) के तहत बोर्ड का कार्य केवल यह तय करना है कि मुकदमा कहां चलेगा। यदि मामला चिल्ड्रन्स कोर्ट को भेजा जाता है, तो वह धारा 19 के तहत स्वतंत्र रूप से यह निर्णय कर सकती है कि मुकदमा वयस्क के रूप में चलेगा या किशोर के रूप में।

    अदालत ने धारा 101 में मौजूद अपील (Appeal) प्रावधानों में पाई जाने वाली विसंगतियों (Anomalies) का भी उल्लेख किया। धारा 15 के तहत प्रारंभिक मूल्यांकन आदेश की अपील सेशंस कोर्ट (Sessions Court) में जाती है, जबकि चिल्ड्रन्स कोर्ट के आदेश की अपील उच्च न्यायालय (High Court) में की जाती है।

    उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्ति (Revisional Powers of High Court)

    अदालत ने धारा 102 के तहत उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण (Revision) शक्ति पर चर्चा की। यह शक्ति आदेशों की वैधता और उपयुक्तता जांचने के लिए प्रयोग की जा सकती है, लेकिन इसका प्रयोग तभी होना चाहिए जब अन्य अपील का स्पष्ट उपाय उपलब्ध न हो। इस मामले में उच्च न्यायालय ने उचित रूप से हस्तक्षेप किया और मामला चिल्ड्रन्स कोर्ट को भेजने का आदेश दिया।

    बोर्ड के आदेश की वैधता और असहमति का मुद्दा (Validity of Board's Order and Dissent Issue)

    अदालत के सामने यह भी प्रश्न था कि यदि बोर्ड का आदेश केवल प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट (Principal Magistrate) द्वारा हस्ताक्षरित हो और अन्य सदस्य असहमत हो, तो क्या वह वैध होगा। अदालत ने धारा 7(4) का हवाला देते हुए कहा कि यदि बहुमत का अभाव हो, तो प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट की राय प्रभावी होगी। इसलिए 05.04.2022 का आदेश, भले ही दूसरे सदस्य ने हस्ताक्षर न किए हों, वैध था।

    प्रासंगिक निर्णय (Relevant Precedents)

    अदालत ने Barun Chandra Thakur v. Master Bholu में दिए गए सिद्धांत को दोहराया कि विशेषज्ञ की सहायता लेना आवश्यक है, भले ही धारा 15(1) में “May” शब्द प्रयोग हुआ हो। Shilpa Mittal v. State (NCT of Delhi) का हवाला देकर “Heinous Offence” की परिभाषा स्पष्ट की गई। साथ ही Topline Shoes Ltd. v. Corporation Bank और Kailash v. Nanhku के आधार पर यह सिद्ध किया कि दंडात्मक परिणाम न होने पर समय-सीमा प्रावधान मार्गदर्शक माने जाएंगे।

    इस निर्णय ने धारा 14(3) की व्याख्या को स्पष्ट कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रारंभिक मूल्यांकन के लिए तीन माह की समयसीमा मार्गदर्शक (Directory) है, न कि अनिवार्य (Mandatory)। इससे यह सुनिश्चित होता है कि गंभीर मामलों में तकनीकी देरी के कारण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित न हो।

    साथ ही, बोर्ड को यह भी निर्देशित किया गया कि मूल्यांकन यथाशीघ्र और अधिनियम तथा मॉडल नियमों में वर्णित बाल-हितैषी (Child-Friendly) प्रक्रिया का पालन करते हुए किया जाए। यह निर्णय बच्चों के अधिकारों की रक्षा और न्याय के प्रभावी क्रियान्वयन के बीच संतुलन स्थापित करता है।

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