क्या समय से पहले रिहाई के लिए केवल न्यायाधीश की राय ही काफी है?

Himanshu Mishra

3 July 2025 5:12 PM IST

  • क्या समय से पहले रिहाई के लिए केवल न्यायाधीश की राय ही काफी है?

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 के तहत समयपूर्व रिहाई (Premature Release under Section 432 of CrPC)

    दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973) की धारा 432 सरकार को यह शक्ति देती है कि वह किसी दोषी (Convict) की सजा को माफ (Remit) या निलंबित (Suspend) कर सकती है। यह शक्ति सरकार की कार्यपालिका (Executive) शक्ति का हिस्सा है, न कि न्यायिक (Judicial) प्रक्रिया का।

    लेकिन यह शक्ति पूरी तरह से मनमानी नहीं हो सकती। धारा 432(2) कहती है कि ऐसा निर्णय लेने से पहले उस न्यायाधीश की राय लेना आवश्यक है जिसने दोषी को सजा सुनाई थी। यह राय उचित कारणों (Reasoned Opinion) पर आधारित होनी चाहिए और सरकार को सही निर्णय लेने में मदद करनी चाहिए।

    धारा 433A द्वारा लगाए गए प्रतिबंध (Limits under Section 433A)

    धारा 433A यह निर्धारित करती है कि यदि किसी अपराध में मृत्युदंड (Death Penalty) का प्रावधान है और दोषी को आजीवन कारावास (Life Imprisonment) की सजा हुई है, तो उसे कम से कम 14 वर्ष की वास्तविक सजा (Actual Imprisonment) भुगतनी होगी। इस प्रावधान का उद्देश्य यह संतुलन बनाना है कि सजा केवल दंड के रूप में न होकर सुधार (Reformation) के उद्देश्य से दी जाए।

    न्यायिक राय की सीमा और उपयोगिता (Scope and Role of Judicial Opinion)

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायाधीश की राय जरूरी तो है, लेकिन केवल उसी के आधार पर समयपूर्व रिहाई को स्वीकृत या अस्वीकार (Reject) नहीं किया जा सकता। यदि न्यायाधीश की राय केवल अपराध की गंभीरता (Seriousness of the Crime) पर आधारित हो और दोषी के सुधार (Reformation) का कोई मूल्यांकन न करे, तो वह राय अधूरी मानी जाएगी। राय में यह उल्लेख होना चाहिए कि दोषी की वर्तमान स्थिति क्या है, उसका आचरण (Conduct) कैसा है, और क्या वह समाज में दोबारा सम्मिलित होने योग्य (Fit for Reintegration) है।

    सुधार और पुनर्वास का महत्व (Importance of Reformation and Rehabilitation)

    कोर्ट ने कहा कि सजा का मूल उद्देश्य केवल प्रतिशोध (Retribution) नहीं होना चाहिए, बल्कि दोषी का सुधार (Reformation) होना चाहिए। यदि दोषी ने वर्षों की सजा भोग ली है, जेल में अच्छा व्यवहार किया है और उसे सुधार का अवसर मिला है, तो यह देखा जाना चाहिए कि आगे की सजा का कोई व्यावहारिक उद्देश्य (Purpose) बचा है या नहीं। जेल प्रशासन, प्रोबेशन अधिकारी, और मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट दोषी के व्यवहार का वास्तविक चित्र दे सकती है।

    समयपूर्व रिहाई पर प्रमुख निर्णय (Key Precedents on Remission)

    Maru Ram बनाम भारत संघ में कोर्ट ने कहा कि दोषी के बाद के आचरण (Post-conviction Conduct) और सुधार को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए। हरियाणा राज्य बनाम जगदीश में यह कहा गया कि अपराध क्या एक बार की घटना थी, क्या दोषी समाज के लिए खतरा है, और उसके परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है – इन सभी बिंदुओं को देखा जाना चाहिए।

    Union of India बनाम V. Sriharan में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि धारा 432(2) की प्रक्रिया अनिवार्य (Mandatory) है, लेकिन न्यायाधीश की राय अंतिम नहीं है। राम चंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य में भी कोर्ट ने चेताया कि अगर न्यायाधीश की राय सुधार के पहलुओं को नजरअंदाज कर दे, तो वह अधूरी है।

    लक्ष्मण नास्कर दिशा-निर्देश (Laxman Naskar Guidelines)

    कोर्ट ने लक्ष्मण नास्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में बताए गए पाँच बिंदुओं को दोहराया, जिनके आधार पर समयपूर्व रिहाई पर निर्णय होना चाहिए:

    1. क्या अपराध समाज के व्यापक हित (Public Interest) को प्रभावित करता है

    2. क्या अपराधी के दोबारा अपराध करने की संभावना (Likelihood of Repetition) है

    3. क्या वह अब अपराध करने की मानसिकता (Potential to Reoffend) खो चुका है

    4. आगे की सजा का कोई उपयोगी उद्देश्य (Meaningful Purpose) है या नहीं

    5. दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति (Socio-Economic Condition)

    इन बिंदुओं पर विचार किए बिना दी गई न्यायिक राय अपूर्ण मानी जाएगी।

    रिहाई नीति और उसकी व्याख्या (Remission Policy and Its Interpretation)

    कोर्ट ने बिहार सरकार की उस समय की नीति को देखा जब दोषी को सजा हुई थी (2001)। उस समय की नीति के अनुसार 14 वर्ष की वास्तविक सजा और 20 वर्ष की कुल सजा (जिसमें छूट शामिल हो) के बाद दोषी रिहाई के योग्य होता था। उस नीति में अपराध की प्रकृति के आधार पर कोई निषेध (Restriction) नहीं था।

    2002 की नई नीति में कुछ मामलों में रिहाई से वंचित किया गया, जैसे संगठित हत्या या सरकारी कर्मचारियों की हत्या। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दोषी के अपराध की तारीख पर लागू नीति ही मान्य होगी। राजकुमार और जगदीश mमामलों में भी यही सिद्धांत लागू किया गया था।

    पुलिस रिपोर्ट में पक्षपात और सामाजिक पूर्वग्रह (Bias in Police Reports and Societal Prejudices)

    कोर्ट ने देखा कि पुलिस की रिपोर्टों में विरोधाभास था। दूसरी रिपोर्ट में यह कहा गया कि दोषी की रिहाई से क्षेत्र में डर है। लेकिन कोर्ट ने कहा कि खासतौर पर जब पीड़ित सरकारी अधिकारी जैसे कि पुलिसकर्मी हो, तो संस्थागत पक्षपात (Institutional Bias) की संभावना होती है। इसलिए ऐसी रिपोर्टों पर पूर्ण रूप से निर्भर नहीं हुआ जा सकता।

    सरकार द्वारा व्यापक मूल्यांकन की आवश्यकता (Need for Holistic Assessment by the Government)

    कोर्ट ने कहा कि सरकार को दोषी की वर्तमान स्थिति का संपूर्ण मूल्यांकन करना चाहिए – उसकी उम्र, स्वास्थ्य, जेल में किया गया कार्य, पढ़ाई, और मनोवैज्ञानिक स्थिति। मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट दोषी के सुधार को समझने में मदद कर सकती है। उद्देश्य यह देखना है कि क्या दोषी अब एक जिम्मेदार नागरिक बनने योग्य है।

    देरी और मानसिक प्रभाव (Institutional Delay and Psychological Impact)

    कोर्ट ने माना कि यदि सुधार के बावजूद रिहाई की कोई उम्मीद न हो, तो यह निराशा और मानसिक तनाव (Psychological Impact) को बढ़ा सकती है। सुधार की प्रक्रिया तभी प्रभावी होती है जब उसमें आशा (Hope) और पुनर्वास की वास्तविक संभावना हो।

    सुप्रीम कोर्ट के निर्देश (Directions by the Supreme Court)

    कोर्ट ने रिहाई बोर्ड (Remission Board) को निर्देश दिया कि दोषी के मामले की नए सिरे से समीक्षा की जाए। न्यायाधीश को लक्ष्मण नास्कर के सिद्धांतों के अनुसार एक नई राय देनी होगी। यह राय अंतिम नहीं होगी, लेकिन उसका महत्त्व होगा। तीन महीने के अंदर इस पर निर्णय लेना होगा।

    क्या केवल न्यायाधीश की राय ही पर्याप्त है?

    उत्तर है नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि न्यायाधीश की राय महत्वपूर्ण जरूर है, लेकिन केवल उसी के आधार पर रिहाई को रोका नहीं जा सकता। यह राय पूरी, तार्किक और वर्तमान परिस्थितियों पर आधारित होनी चाहिए। सरकार को दोषी के सुधार, पुनर्वास की संभावना और समाज के हित – इन सभी पहलुओं को संतुलित करते हुए निर्णय लेना होगा। ऐसा नहीं करना न्याय के उद्देश्यों को विफल करता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्थापित किया कि रिहाई कोई कृपा नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था का एक संवैधानिक और कानूनी हिस्सा है।

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