क्या मिलिट्री हॉस्पिटल में हुई मेडिकल लापरवाही जीवन के अधिकार का उल्लंघन है और क्या इसके लिए मुआवज़ा मिल सकता है?

Himanshu Mishra

7 July 2025 11:18 AM

  • क्या मिलिट्री हॉस्पिटल में हुई मेडिकल लापरवाही जीवन के अधिकार का उल्लंघन है और क्या इसके लिए मुआवज़ा मिल सकता है?

    CPL अश्विन कुमार चौहान बनाम कमांडिंग ऑफिसर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह तय किया कि क्या एक सैन्य अस्पताल (Military Hospital) में हुई मेडिकल लापरवाही (Medical Negligence) के लिए सरकार जिम्मेदार ठहराई जा सकती है और क्या पीड़ित को मुआवज़ा (Compensation) दिया जा सकता है।

    यह मामला भारतीय वायुसेना के एक अधिकारी को बिना ठीक से जांचे गए खून चढ़ाने से HIV संक्रमण होने से जुड़ा है। कोर्ट ने इस फैसले में मरीजों के अधिकारों, सरकारी अस्पतालों की जिम्मेदारियों और संवैधानिक उपायों (Constitutional Remedies) पर विस्तार से चर्चा की।

    मेडिकल लापरवाही और 'Res Ipsa Loquitur' सिद्धांत (Medical Negligence and 'Res Ipsa Loquitur' Principle)

    इस मामले में कोर्ट ने res ipsa loquitur के सिद्धांत को लागू किया, जिसका अर्थ होता है "घटना खुद ही negligence (लापरवाही) की गवाही देती है"। इस सिद्धांत के अनुसार जब किसी मामले में लापरवाही स्पष्ट रूप से दिखती है, तो अस्पताल पर यह जिम्मेदारी होती है कि वह यह साबित करे कि लापरवाही नहीं हुई।

    171 मिलिट्री हॉस्पिटल, सांबा में जिस समय खून चढ़ाया गया, उस समय वहां न तो लाइसेंस प्राप्त ब्लड बैंक था और न ही कोई पैथोलॉजिस्ट (Pathologist)। खून की HIV जांच से संबंधित रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं था। इसलिए कोर्ट ने माना कि अस्पताल अपनी जिम्मेदारी साबित करने में असफल रहा।

    क्या वायुसेना का कर्मचारी "Consumer" माना जाएगा? (Is a Military Serviceman a Consumer?)

    कोर्ट ने यह भी देखा कि क्या एक वायुसेना का कर्मचारी Consumer Protection Act, 1986 के तहत "Consumer" माना जा सकता है। कोर्ट ने Indian Medical Association v. V.P. Shantha और Kishore Lal v. ESIC जैसे फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अगर कोई व्यक्ति सेवा (Service) मुफ्त में ले रहा है, लेकिन वह सेवा किसी सरकारी या संस्थागत सिस्टम द्वारा दी जा रही है, जो टैक्स या योगदान (Contribution) पर आधारित है, तो वह व्यक्ति भी उपभोक्ता (Consumer) माना जाएगा।

    इसलिए, चूंकि वायुसेना में सेवाएं नियमों के अनुसार मिलती हैं और यह कर्मचारी का अधिकार होता है, इसलिए पीड़ित को उपभोक्ता माना गया।

    संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 32 का उल्लंघन (Violation of Article 21 and Article 32 of the Constitution)

    कोर्ट ने यह भी माना कि इस घटना ने पीड़ित के जीवन और गरिमा के अधिकार (Right to Life and Dignity) का उल्लंघन किया है, जो अनुच्छेद 21 में संरक्षित है। Nilabati Behera v. State of Orissa के फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि जब राज्य (State) या उसके कर्मचारी लापरवाही से किसी नागरिक के मूल अधिकार का हनन करते हैं, तो संविधान का अनुच्छेद 32 पीड़ित को सीधे सुप्रीम कोर्ट में आने का अधिकार देता है।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि जब पीड़ित शारीरिक रूप से कमजोर हो और पहले से मानसिक तनाव में हो, तो उसे बार-बार अदालतों में घुमाना न्यायसंगत नहीं होगा। इसलिए कोर्ट ने Article 32 और 142 का उपयोग करते हुए उचित मुआवज़ा देने का आदेश दिया।

    Informed Consent और रिकॉर्ड संधारण की अनदेखी (Violation of Informed Consent and Record Keeping)

    कोर्ट ने यह पाया कि खून चढ़ाने से पहले पीड़ित से न तो कोई जानकारी साझा की गई और न ही लिखित सहमति (Informed Consent) ली गई। NACO (National AIDS Control Organisation) और इंडियन मेडिकल काउंसिल (Indian Medical Council) की गाइडलाइंस के अनुसार, किसी भी ब्लड ट्रांसफ्यूजन से पहले मरीज को संभावित जोखिम (Risk), विकल्प (Alternatives), और फायदे-नुकसान के बारे में बताया जाना जरूरी है।

    इसके अलावा, अस्पताल खून की HIV जांच और संबंधित दस्तावेजों को सुरक्षित नहीं रख पाया, जिससे संदेह और भी गहरा हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि जरूरी SOP (Standard Operating Procedure) का पालन नहीं किया गया।

    कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी और मेडिकल रिपोर्ट पर संदेह (Doubt on Court of Inquiry and Medical Reports)

    सरकार ने एक मेडिकल रिपोर्ट और एक बाद में की गई जांच (Court of Inquiry – CoI) पर भरोसा करने को कहा, जिसमें कहा गया कि पीड़ित HIV निगेटिव था। लेकिन कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया।

    रिपोर्ट सात साल बाद प्रस्तुत की गई थी और उसमें जरूरी विवरण जैसे लैब नंबर, डॉक्टर का नाम आदि नहीं थे। इसके अलावा, रिपोर्ट एक ऐसे डॉक्टर द्वारा दी गई थी जो खुद सेना के अधीन कार्यरत था, जिससे निष्पक्षता पर सवाल खड़े हुए।

    इसके विपरीत, कई मेडिकल बोर्ड्स (Medical Boards) ने स्पष्ट रूप से कहा कि HIV संक्रमण का कारण 2002 में दिया गया खून ही था। सरकार ने इन बोर्ड्स की रिपोर्ट को कभी चुनौती नहीं दी थी।

    महत्वपूर्ण फैसले जिनका उल्लेख हुआ (Key Judgments Referred)

    कोर्ट ने कई पुराने और महत्वपूर्ण निर्णयों का उल्लेख किया, जैसे:

    • Savita Garg v. National Heart Institute: जिसमें अस्पताल की जिम्मेदारी को अहम माना गया

    • Spring Meadows Hospital v. Harjol Ahluwalia: जिसमें बच्चों को हुई लापरवाही के लिए मुआवज़ा दिया गया

    • Martin D'Souza v. Mohd. Ishfaq और Jacob Mathew v. State of Punjab: जिसमें कहा गया कि अगर लापरवाही स्पष्ट है, तो विशेषज्ञ रिपोर्ट (Expert Report) जरूरी नहीं

    इन फैसलों के आधार पर कोर्ट ने यह माना कि सैन्य व्यवस्था में भी मेडिकल सेवा की गुणवत्ता और जवाबदेही जरूरी है।

    मुआवज़ा और भविष्य की देखभाल (Compensation and Continued Care)

    कोर्ट ने यह भी माना कि पीड़ित को न सिर्फ शारीरिक, बल्कि मानसिक, सामाजिक और आर्थिक हानि भी हुई। HIV संक्रमण के कारण उन्हें दूसरी नौकरी नहीं मिली, उनका वैवाहिक जीवन खत्म हो गया और उन्हें समाज में अपमान सहना पड़ा।

    इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने ₹1.5 करोड़ का मुआवज़ा देने का आदेश दिया और साथ ही HIV संक्रमित व्यक्तियों के लिए 2017 के HIV Act के प्रभावी क्रियान्वयन (Effective Implementation) के लिए भी सरकार को निर्देश दिए।

    CPL अश्विन कुमार चौहान बनाम कमांडिंग ऑफिसर का यह निर्णय मेडिकल लापरवाही के मामलों में मील का पत्थर है, खासतौर पर सरकारी और सैन्य अस्पतालों में। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि चाहे सेवा मुफ्त हो या सेवा के दौरान दी जा रही हो, अगर उसमें लापरवाही हो तो मरीज के पास मुआवज़े और न्याय पाने का अधिकार है।

    यह फैसला यह भी बताता है कि सेना और सरकारी संस्थान भी संविधान और कानून से ऊपर नहीं हैं। जो व्यक्ति सेवा दे रहे हैं, उन्हें भी जवाबदेह (Accountable) होना पड़ेगा। मरीजों की गरिमा, जानकारी का अधिकार और निष्पक्ष इलाज हर स्थिति में अनिवार्य है।

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