क्या भारत में शरणार्थियों के अधिकार और राज्य की संप्रभुता के बीच संतुलन संभव है?

Himanshu Mishra

23 Nov 2024 6:36 PM IST

  • क्या भारत में शरणार्थियों के अधिकार और राज्य की संप्रभुता के बीच संतुलन संभव है?

    सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में शरणार्थियों (Refugees) के अधिकार और राज्य की संप्रभुता (State Sovereignty) के बीच संबंध को समझाया गया है।

    खासतौर पर, रोहिंग्या शरणार्थियों की भारत से निर्वासन (Deportation) की स्थिति को लेकर संवैधानिक प्रावधानों (Constitutional Provisions), अंतरराष्ट्रीय समझौतों (International Agreements), और राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं (National Security Concerns) का विश्लेषण किया गया है।

    कोर्ट ने यह भी तय किया कि गैर-नागरिकों (Non-Citizens) को भारतीय नागरिकों के समान संरक्षण मिलना चाहिए या नहीं।

    प्रमुख संवैधानिक प्रावधान (Key Constitutional Provisions)

    अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 (Article 14 and Article 21)

    कोर्ट ने दोहराया कि अनुच्छेद 14 और 21 के तहत समानता और जीवन के अधिकार (Right to Equality and Right to Life) हर व्यक्ति को मिलते हैं, चाहे वह नागरिक हो या गैर-नागरिक। अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है, और अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करता है। इन अधिकारों को कानूनी प्रक्रिया (Legal Procedure) के बिना छीना नहीं जा सकता।

    अनुच्छेद 19(1)(e) – रहने और बसने का अधिकार (Right to Reside and Settle)

    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 19(1)(e) के तहत किसी भी भाग में रहने और बसने का अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है। गैर-नागरिकों, जिनमें शरणार्थी भी शामिल हैं, को इस अधिकार का दावा करने की अनुमति नहीं है।

    नॉन-रिफाउलमेंट (Non-Refoulement) का सिद्धांत

    याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि नॉन-रिफाउलमेंट का सिद्धांत, जो अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून (International Refugee Law) का मूल हिस्सा है, अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है। नॉन-रिफाउलमेंट के तहत किसी व्यक्ति को ऐसे देश में जबरन वापस नहीं भेजा जा सकता, जहां उनके जीवन या स्वतंत्रता को खतरा हो।

    हालांकि, भारत 1951 के शरणार्थी समझौते (Refugee Convention) या 1967 के प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं है, लेकिन याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (Universal Declaration of Human Rights, UDHR) जैसे समझौते इस सिद्धांत को भारत में लागू करने का आधार प्रदान करते हैं।

    शरणार्थी कानून की व्याख्या (Interpretation of Refugee Law)

    अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून में भारत की स्थिति (India's Position in International Refugee Law)

    कोर्ट ने माना कि भारत 1951 के शरणार्थी समझौते का हस्ताक्षरकर्ता (Signatory) नहीं है। हालांकि, भारतीय अदालतें अक्सर अंतरराष्ट्रीय कानूनों से प्रेरणा लेती हैं, जब तक कि वे देश के कानूनों के खिलाफ न हों। यह दृष्टिकोण संविधान के अनुच्छेद 51(c) के तहत आता है, जो राज्य को अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों का सम्मान करने का निर्देश देता है।

    राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताएं (National Security Concerns)

    भारत सरकार ने तर्क दिया कि शरणार्थियों की बढ़ती संख्या, विशेष रूप से सीमावर्ती क्षेत्रों में, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा करती है। खुफिया रिपोर्ट्स ने ऐसे नेटवर्क का हवाला दिया जो अवैध प्रवास (Illegal Migration) को बढ़ावा देते हैं।

    कोर्ट ने सरकार की इस चिंताओं को प्राथमिकता देते हुए कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा एक कार्यकारी निर्णय (Executive Decision) है और इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।

    अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले (International Court Decisions)

    याचिकाकर्ताओं ने The Gambia v. Myanmar (2020) के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice, ICJ) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें रोहिंग्या लोगों के खिलाफ नरसंहार (Genocide) को मान्यता दी गई थी। हालांकि, कोर्ट ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला भारतीय घरेलू कानूनों (Domestic Laws) और संप्रभुता से संबंधित मामलों में बाध्यकारी (Binding) नहीं है।

    अधिकार और संप्रभुता के बीच संतुलन (Balancing Rights and Sovereignty)

    गैर-नागरिकों के लिए संवैधानिक संरक्षण (Constitutional Protections for Non-Citizens)

    कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 14 और 21 के तहत गैर-नागरिकों को संरक्षण दिया गया है। हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि निर्वासन (Deportation) से बचने का अधिकार (Right Not to Be Deported) पूर्ण नहीं है और यह सरकार के विवेकाधिकार (Discretion) पर निर्भर करता है।

    निर्वासन में प्रक्रिया के लिए सुरक्षा (Procedural Safeguards in Deportation)

    कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि शरणार्थियों को बिना कानूनी प्रक्रिया का पालन किए निर्वासित नहीं किया जा सकता। यह कदम मनमानी कार्रवाई (Arbitrary Actions) को रोकता है और प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों का पालन करता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि रोहिंग्या शरणार्थियों को तब तक निर्वासित नहीं किया जाएगा जब तक उनकी राष्ट्रीयता और अन्य कारकों की जांच नहीं हो जाती।

    महत्वपूर्ण कानूनी फैसले (Important Legal Precedents)

    एनएचआरसी बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य (NHRC v. State of Arunachal Pradesh, 1996)

    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य का यह दायित्व है कि वह शरणार्थियों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। कोर्ट ने चकमा शरणार्थियों (Chakma Refugees) को अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षण दिया और यह सिद्धांत लागू किया कि किसी गैर-नागरिक को जीवन और स्वतंत्रता से मनमाने ढंग से वंचित नहीं किया जा सकता।

    लुईस डी रीड बनाम भारत संघ (Louis De Raedt v. Union of India, 1991)

    कोर्ट ने माना कि गैर-नागरिकों के पास कुछ मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) हो सकते हैं, लेकिन सरकार को विदेशी नागरिकों को निष्कासित करने का पूर्ण अधिकार (Absolute Authority) है।

    खुदीराम चकमा बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य (Khudiram Chakma v. State of Arunachal Pradesh, 1994)

    इस मामले में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि शरणार्थियों को बुनियादी अधिकार (Basic Rights) से वंचित नहीं किया जा सकता, लेकिन उन्हें नागरिकों के समान विशेषाधिकार (Privileges) भी नहीं दिए जा सकते।

    सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला शरणार्थियों के अधिकार और राज्य की संप्रभुता के बीच नाजुक संतुलन को परिभाषित करता है। कोर्ट ने गैर-नागरिकों के लिए संवैधानिक सुरक्षा को सुनिश्चित किया, लेकिन साथ ही सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए निर्णय लेने की स्वतंत्रता (Freedom to Decide) दी।

    कानूनी प्रक्रिया पर जोर देकर यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि मानवीय चिंताओं (Humanitarian Concerns) को सुरक्षा चिंताओं (Security Concerns) के कारण पूरी तरह से अनदेखा न किया जाए। यह संतुलित दृष्टिकोण भारतीय न्यायपालिका के उस महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है जो अधिकारों की रक्षा और राज्य की शक्ति के बीच संतुलन बनाए रखने में निभाता है।

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