क्या PMLA के तहत गिरफ्तारी के समय लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार देना ज़रूरी है? – पंकज बंसल बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या

Himanshu Mishra

8 July 2025 11:35 AM

  • क्या PMLA के तहत गिरफ्तारी के समय लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार देना ज़रूरी है? – पंकज बंसल बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या

    पंकज बंसल बनाम भारत संघ (2023) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम, 2002 (Prevention of Money Laundering Act – PMLA) की धारा 19 की संवैधानिक व्याख्या की। इस फैसले का मुख्य सवाल यह था कि क्या प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate – ED) को किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के समय उसे लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार (Grounds of Arrest) देना अनिवार्य है?

    यह मामला मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों पर नहीं, बल्कि गिरफ्तारी की वैधानिक प्रक्रिया और संविधान के अनुच्छेद 22(1) (Article 22(1) – Right to be informed of grounds of arrest) के तहत व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा पर केंद्रित था।

    सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि गिरफ्तारी की प्रक्रिया पारदर्शी (Transparent) और जवाबदेह (Accountable) होनी चाहिए, और गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के लिखित आधार देना अब कानूनी रूप से आवश्यक है।

    PMLA की धारा 19 में गिरफ्तारी की प्रक्रिया और सुरक्षा (Scope and Safeguards under Section 19 of the PMLA)

    धारा 19 के अनुसार, ED का अधिकृत अधिकारी किसी व्यक्ति को तभी गिरफ्तार कर सकता है जब उसके पास ऐसा विश्वास करने के लिए ठोस सामग्री (Material) हो कि वह व्यक्ति PMLA के तहत अपराध में शामिल है। इस विश्वास को लिखित रूप में दर्ज करना ज़रूरी है। साथ ही, आरोपी को "गिरफ्तारी के कारणों से अवगत कराना" (To be Informed of Grounds of Arrest) भी अनिवार्य है।

    धारा 19(2) के तहत, गिरफ्तारी आदेश और संबंधित दस्तावेजों को एक बंद लिफाफे में न्यायाधिकरण (Adjudicating Authority) को भेजना होता है। धारा 19(3) के अनुसार, गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट (Magistrate) के सामने पेश करना जरूरी है।

    इससे पहले Vijay Madanlal Choudhary बनाम भारत संघ (2022) में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 19 की वैधानिकता को बरकरार रखा था, लेकिन यह भी कहा था कि गिरफ्तारी मनमानी नहीं हो सकती और व्यक्ति को उसके अधिकारों की पूरी जानकारी दी जानी चाहिए।

    “सूचित करना” का अर्थ क्या है? – अनुच्छेद 22(1) और धारा 19 का मिलान (Interpretation of 'Informed' under Article 22(1) and Section 19)

    इस मामले में कोर्ट को यह तय करना था कि "सूचित करना" (To Inform) का सही अर्थ क्या है। ED का कहना था कि अगर गिरफ्तार व्यक्ति को मौखिक रूप (Orally) से कारण पढ़कर सुना दिए जाएं या उसे दस्तावेज देखने दिया जाए, तो यह पर्याप्त है। लेकिन कोर्ट ने इसे पर्याप्त नहीं माना।

    V. Senthil Balaji v. State (2023) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि गिरफ्तारी के आधार केवल बताए नहीं जाने चाहिए, बल्कि "सौंपे जाने चाहिए" (To be Served in Writing)। जब तक गिरफ्तारी के आधार की लिखित प्रति आरोपी को नहीं दी जाती, तब तक वह अपने अधिकारों का पूरी तरह उपयोग नहीं कर सकता, विशेषकर जब उसे PMLA की धारा 45 के तहत जमानत (Bail) के लिए आवेदन करना हो, जिसमें दोहरी शर्तें (Twin Conditions) होती हैं।

    मजिस्ट्रेट की भूमिका और गिरफ्तारी की वैधता (Role of the Magistrate and Validity of Arrest)

    कोर्ट ने दोहराया कि धारा 19 के तहत गिरफ्तारी एक स्वचालित (Mechanical) प्रक्रिया नहीं हो सकती। अधिकारी को स्वतंत्र रूप से सोच-विचार कर, लिखित रूप में गिरफ्तारी के कारण दर्ज करने होंगे और उन्हें आरोपी को सौंपना होगा।

    मजिस्ट्रेट, जिसके समक्ष आरोपी को पेश किया जाता है, केवल औपचारिकता नहीं निभा सकता। उसे यह देखना होता है कि गिरफ्तारी की प्रक्रिया वैधानिक थी या नहीं। यदि मजिस्ट्रेट केवल आदेश पारित कर दे और गिरफ्तारी की वैधता की जांच न करे, तो यह पूरी न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है।

    Madhu Limaye v. State of Maharashtra (1969) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि अगर गिरफ्तारी असंवैधानिक है, तो बाद में की गई न्यायिक हिरासत (Judicial Remand) उसे वैध नहीं बना सकती।

    प्रवर्तन निदेशालय की कार्यप्रणाली पर सवाल (Critique of the ED's Conduct)

    कोर्ट ने इस मामले में ED की कार्यशैली की आलोचना की। याचिकाकर्ताओं ने पहले एक ECIR (Enforcement Case Information Report) में अग्रिम ज़मानत ले ली थी, लेकिन ED ने जल्दी ही दूसरा ECIR दर्ज कर लिया और उन्हें 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार कर लिया। आरोप पर्याप्त रूप से विकसित नहीं थे और गिरफ्तारी जल्दबाज़ी में की गई थी।

    कोर्ट ने कहा कि यह "मालिस इन लॉ" (Malice in Law – गलत उद्देश्य से शक्ति का प्रयोग) का उदाहरण हो सकता है, भले ही व्यक्तिगत द्वेष (Personal Malice) न हो।

    State of Punjab v. Gurdial Singh (1980) में कोर्ट ने कहा था कि जब सरकारी शक्ति का प्रयोग उसके असली उद्देश्य से हटकर किया जाता है, तो यह कानूनी द्वेष (Legal Malice) होता है। इसी तरह, Collector v. Raja Ram Jaiswal (1985) में कोर्ट ने कहा कि यदि प्रशासनिक कार्यवाही में बाहरी कारणों से निर्णय लिया गया हो, तो वह अमान्य होगा।

    देश भर में गिरफ्तारी की प्रक्रिया में असंगति (Inconsistency in Enforcement Practice Across India)

    कोर्ट ने यह भी कहा कि देश के अलग-अलग इलाकों में ED द्वारा गिरफ्तारी की प्रक्रिया में भारी अंतर है। कहीं लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार दिए जाते हैं, और कहीं केवल मौखिक रूप में बताए जाते हैं। कोर्ट ने इस असमानता को अस्वीकार्य बताया और कहा कि “सूचित करना” का अर्थ अब यह होगा कि आरोपी को गिरफ्तारी के लिखित कारण दिए जाएं।

    PMLA नियम, 2005 के नियम 6 और फॉर्म III के अनुसार भी गिरफ्तारी के कारण लिखित रूप में दर्ज करना अनिवार्य है। अगर आरोपी को इनका लिखित रूप नहीं दिया जाता, तो यह पूरे कानून के उद्देश्य को विफल करता है।

    अब से लिखित गिरफ्तारी कारण देना होगा अनिवार्य (Written Grounds of Arrest Now Mandatory)

    कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि अब से PMLA की धारा 19 के तहत की गई हर गिरफ्तारी में आरोपी को गिरफ्तारी के कारणों की लिखित प्रति देना अनिवार्य होगा। इससे आरोपी अपने बचाव (Defense) की योजना बना सकता है, वकील से सलाह ले सकता है, और न्यायालय में जमानत के लिए उचित आवेदन कर सकता है।

    कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के Moin Akhtar Qureshi v. Union of India (2017) और बॉम्बे हाईकोर्ट के Chhagan Bhujbal v. Union of India (2017) जैसे पुराने निर्णयों को अस्वीकार कर दिया, जिनमें कहा गया था कि मौखिक सूचना ही पर्याप्त है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह व्याख्या संविधान के अनुरूप नहीं है।

    पंकज बंसल बनाम भारत संघ का निर्णय संविधान के अनुच्छेद 22(1) और PMLA की धारा 19 को सही मायनों में लागू करने का प्रयास है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी केवल कानूनी शब्दों की खानापूर्ति नहीं है, बल्कि उसमें आरोपी के मूल अधिकारों का सम्मान होना चाहिए।

    अब गिरफ्तारी के समय गिरफ्तारी के आधार की लिखित प्रति देना एक कानूनी अनिवार्यता बन चुकी है। यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि राज्य की दमनकारी शक्तियों (Coercive State Powers) का प्रयोग निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ हो। PMLA जैसे सख्त कानूनों में यह संतुलन आवश्यक है ताकि नागरिक अधिकार सुरक्षित रहें और कानून का उद्देश्य भी पूरा हो।

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