क्या बोन ओसिफिकेशन टेस्ट निश्चायक है?

Lakshita Rajpurohit

22 Oct 2022 2:00 AM GMT

  • क्या बोन ओसिफिकेशन टेस्ट निश्चायक है?

    Age is a very high price to pay for maturity- Tom Stoppard

    व्यक्ति की उम्र के मामले में यह बात कभी कभी सत्य भी प्रतीत होती है, परंतु भारतीय विधिक परिपेक्ष्य में आयु की एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है खास करके आपराधिक मामलों में। भारतीय दंड सहित[IPC] की धारा 82 तथा 83 के अंतर्गत कोई बात अपराध नहीं है, जो 7वर्ष से कम आयु के किसी बालक द्वारा की जाती है। साथ ही किशोर न्याय अधिनियम,2015[JJ ACT] में भी 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति द्वारा किए अपराध के संदर्भ में उसका विचारण किशोर अर्थात नाबालिग, के तौर पर किया जाएगा न की वयस्क के तौर पर।

    संक्षिप्त में यदि कोई अपराध 7 वर्ष से अधिक और 18 वर्ष की आयु से कम वाले किसी व्यक्ति द्वारा किया जाता है तब विधि उसे अपराध के दंड से छूट प्रदान करेगी।

    बोन ओसिफिकेशन टेस्ट क्या है?

    आयु निर्धारित करने वाले दस्तावेजों के अभाव में इसका निर्धारण चिकित्सकीय राय के आधार पर किया जाता है। आयु निर्धारण की यह प्राथमिक जांच ही बोन ऑसिफिकेशन टेस्ट है।

    इसमें सामान्यतः मानव हड्डियों को फिर से रिमॉडल किया जाता है और हड्डी के पदार्थ (material) की नई परत ऑसिफिकेशन या ओस्टोजेनेसिस नामक प्रक्रिया द्वारा रखी जाती है। इसी के आधार पर व्यक्ति की आयु का परीक्षण किया जाता है।

    मोदी मेडिकल ज्यूरिसप्रूडेंस एंड टॉक्सिलोजी के अनुसार– यह व्यक्ति की बोन(हड्डी/अस्थि), फ्यूजन बोन, दांत, लंबाई, भार तथा अन्य शारीरिक संरचनाओं द्वारा उसके शरीर का शारीरिक मूल्यांकन हैं। इन्हीं मापदंडों को ध्यान में रखते हुए रेडियोलॉजी परीक्षण द्वारा व्यक्ति के आयु का निर्धारण किया जाता है; अर्थात् रेजिलॉजिस्ट्स एक्स रे या सी.टी. स्कैन के माध्यम से आयु की विषय में अपनी राय बनाता है। लेकिन इस टेस्ट का सटीक होना आवश्यक नहीं है। क्योंकि हर व्यक्ति की शारीरिक बनावट अन्यों से भिन्न होती है तथा इसके कई सारे बाहरी और आंतरिक कारण भी होते है।

    ध्यान रखने योग्य बात यह है कि अस्थि(बोन) किसी व्यक्ति के कंकाल और जैविक परिपक्वता का एक संकेतक है, जो कि आयु के निर्धारण में सहायक है। इस गणना के लिए सबसे आम आयु 18 वर्ष तक की ही है इसलिए इससे अधिक के आयु की गणना नहीं की जा सकती। क्योंकि किशोरावस्था के बाद हड्डी का विकास पूर्ण हो जाता है। हालाँकि, ऑसिफिकेशन टेस्ट प्रासंगिक(रिलेवेंट) तो है, लेकिन इसे पूरी तरह से निर्णायक नहीं कहा जा सकता है।

    मेडिकल एक्सपर्ट का मानना है कि, ऑसिफिकेशन टेस्ट की एक बड़ी कमी यह है कि, केवल एक व्यक्ति की 'अनुमानित' उम्र बताता है, न कि सही उम्र। यह केवल उस व्यक्ति की 'जैविक' आयु का अनुमान लगाता है जो 'कानूनी' आयु से काफी अलग होती है। यह टेस्ट कम से कम 6 महीने की अधिक आयु या कम आयु का अंतर बता सकता है, चाहे ऐसा टेस्ट कई ज्वाइंट्स पर किया गया हो।

    ओसिफिकेशन टेस्ट आवश्यक क्यों है?

    जैसा कि हम ऊपर निश्चित कर चुके हैं कि अपराधी को ट्रायल(trial) करने या दण्डित करने के विषय में आयु का अपना एक महत्वपूर्ण आयाम है। यदि अपराध किए जाने की तारीख से वह व्यक्ति 18 वर्ष से कम आयु का है; तो उसे आपराधिक दायित्व से छूट प्रदान की जा सकेगी। जिसमें ना तो उसे कारावास भोगना पड़ेगा न ही कोई अन्य दंड।

    यह प्रक्रिया सब से ज्यादा निर्भया मामले के समय प्रकाश में आई थी। क्योंकि उसमें एक अभियुक्त की आयु 18 से कम थी और कोर्ट से दरख्वास्त की गई थी कि उसका विचारण भी 1 नाबालिग के भांति किया जाए।

    इस प्रक्रिया का उद्देश आयु के आधार पर किसी के साथ अन्याय होने से रोकना है, चाहे वो अपराधी हो या पीड़ित स्वयं। यदि कोई 18 वर्ष से अधिक उम्र का है तो उसे अवश्य ही आपराधिक प्रक्रिया से गुजरना ही होगा।

    जेजे एक्ट में इसकी प्रक्रिया धारा 94 के अंतर्गत वर्णित है, जो कि निम्न प्रकार से हैं-

    "(1) जहां बोर्ड या समिति को, इस अधिनियम के किसी उपबंध के अधीन (साक्ष्य देने के प्रयोजन से भिन्न) उसके समक्ष लाए गए व्यक्ति उपसंजाति के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि उक्त व्यक्ति बालक है तो समिति या बोर्ड बालक की यथासंभव सन्निकट आयु का कथन करते हुए ऐसे संप्रेक्षण को अभिलिखित करेगा और आयु की और अभिपुष्टि की प्रतीक्षा किए बिना, यथास्थिति, धारा 14 या धारा 36 के अधीन जांच करेगा।

    (2) यदि समिति या बोर्ड के पास इस संबंध में संदेह होने के युक्तियुक्त आधार हैं कि क्या उसके समक्ष लाया गया व्यक्ति बालक है या नहीं, तो यथास्थिति, समिति या बोर्ड, निम्नलिखित साक्ष्य अभिप्राप्त करके आयु अवधारण की प्रक्रिया का जिम्मा लेगा-

    (i) विद्यालय से प्राप्त जन्म तारीख प्रमाण-पत्र या संबंधित परीक्षा बोर्ड से मैट्रिकुलेशन या समतुल्य प्रमाण-पत्र, यदि उपलब्ध हो; और उसके अभाव में,

    (ii) निगम या नगरपालिका प्राधिकारी या पंचायत द्वारा दिया गया जन्म प्रमाण-पत्र ;

    (iii) उपरोक्त (i) और (ii) के अभाव में, आयु का अवधारण समिति या बोर्ड के आदेश पर की गई अस्थि जांच या कोई अन्य नवीनतम चिकित्सीय आयु अवधारण जांच के आधार पर किया जाएगा :

    परंतु समिति या बोर्ड के आदेश पर की गई ऐसी आयु अवधारण जांच ऐसे आदेश की तारीख से पंद्रह दिन के भीतर पूरी की जाएगी ।

    (3) समिति या बोर्ड द्वारा उसके समक्ष इस प्रकार लाए गए व्यक्ति की अभिलिखित आयु, इस अधिनियम के प्रयोजन के लिए उस व्यक्ति की सही आयु समझी जाएगी।"

    इस उपबंध को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि, कोर्ट द्वारा सबसे पहले मात्र और मात्र दस्तावेजों के आधार पर ही आयु का निर्धारण किया जायेगा तथा उसके अभाव में अस्थि जांच(ओसिफिकेशन टेस्ट) का सहारा लिया जाएगा। इससे हमें पता चलता है की यह सिर्फ एक प्रक्रिया का नियम है न की बाध्यकारी प्रावधान(ऑब्लिगेटरी प्रोविजन)। इसी आधार को ऋषिपाल सिंह सोलंकी बनाम यूपी,2021 मामले में तय किया गया की "मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट या अन्य दस्तावेज इस टेस्ट के मूल्य को कम नहीं करते है। यह तो मात्र एक प्रक्रिया का नियम है न की यह साक्ष्य के महत्त्वता को दर्शाता है। यदि किसी अवयस्क की आयु को तय करने में धारा 94(2) में वर्णित प्राधिकारियों द्वारा जारी किए दस्तावेज, ओसिफिकेशन टेस्ट पर अभिभावी [prevail] होंगे और तब प्राथमिकता दस्तावेजों को दी जायेगी। अर्थात् हर परिस्थिति में ऐसे टेस्ट का आदेश दिया जाना आज्ञापक नहीं है। यह मात्र अपवादित दशाओं के लिए मौजूद है व बोर्ड के विवेक पर भी आधारित है।"

    साक्षिक मूल्य :

    न्यायालय में हर तथ्य को साक्ष्य की कसौटी पर कसा जाना अति आवश्यक है। अन्यथा यह पक्षकारों के साथ अन्याय की स्थिति पैदा कर सकता है।

    इसके संबंध में निम्न निर्णयों का सहारा लिया जा सकता है, जैसे रामदेव चौहान बनाम असम राज्य (2001) 5SCC, 714 मामले में कहा गया,

    "ऑसिफिकेशन टेस्ट को दिया गया साक्ष्य मूल्य वही है जो साक्ष्य अधिनियम, की धारा 45 के तहत विशेषज्ञों की राय के लिए दिया गया है। यदि प्रत्यक्ष और दस्तावेजी सबूत मौजूद है तो अवश्य ही उन्हें प्रधानता दी जायेगी।"

    इसके अलावा मदन गोपाल कक्कड़ बनाम नवल दुबे (1992) 3SCC,204 के मामले में निर्देशित करते हुए कहा गया,

    "एक मेडिकल एक्सपर्ट तथ्य का गवाह नहीं है, बल्कि वह अनजान पक्षकार हैं,(stranger to the proceedings)। इसलिए मेडिकल एक्सपर्ट द्वारा दी गई राय मात्र सलाह के तौर पर विचार में ली जा सकती है। लेकिन यदि इसे अन्य संपोषक (corroborative) सबूतों के साथ पेश किया जाए तब वह कोर्ट की राय बन सकती है, अन्यथा यह मात्र एक्सपर्ट की राय ही रह जाती है।

    साथ ही अब हमें यह कहना उचित होगा कि, यह टेस्ट एक सटीक विज्ञान नहीं है जो हमें व्यक्ति की सही उम्र बता सकता हो। कोर्ट ने राम सुरेश सिंह बनाम प्रभात सिंह और ज्योति प्रकाश राय बनाम बिहार राज्य जैसे मामलों में बताया कि, "आयु निर्धारण के लिए यह टेस्ट निर्णायक नहीं है क्योंकि यह व्यक्ति की सही उम्र को प्रकट नहीं करता है। रेडियोलॉजिकल टेस्ट व्यक्ति की उम्र सही उम्र से 2 साल अधिक या 2 साल कम भी बता सकता है।"

    भारत में अदालतों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि बंद आंखों से ऑसिफिकेशन टेस्ट पर भरोसा नहीं किया जा सकता है और दस्तावेजी सबूत ही प्राथमिक माने जायेंगे। भारत जैसे देश में कई कारणों से व्यक्ति के पास उम्र का दस्तावेजी सबूत हमेशा मौजूद होना आवश्यक नहीं है। इसी लिए न्याय हित में ऐसा मेडिकल टेस्ट करना आवश्यक हो जाता है।

    हालांकि, यदि न्यायालयों ने इस टेस्ट को आयु के संबंध में निर्णायक नहीं माना है पर यह भी कहना उचित होगा की नई आधुनिक रेडियोलॉजी तकनीक पर विश्वास करना गलत भी नहीं हैं बल्कि यह अधिक सहायक भी हो सकता है। ऋषिपाल सिंह सोलंकी मामले में यह माना गया कि, न्यायिक परख और आधुनिक तकनीक से ऐसे परीक्षण पर विश्वास करना सर्वदा ही अनुचित नहीं है।

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