धारा 188 आईपीसी : जानिए कैसे और कब लिया जाता है अदालत द्वारा इस अपराध का संज्ञान?

SPARSH UPADHYAY

28 April 2020 10:39 AM GMT

  • धारा 188 आईपीसी : जानिए कैसे और कब लिया जाता है अदालत द्वारा इस अपराध का संज्ञान?

    कोरोना महामारी के बीच जैसे कि हम जानते ही हैं कि देश में तमाम जगहों पर शासन/प्रशासन द्वारा अधिसूचना जारी/प्रख्यापित करते हुए तमाम प्रकार के ऐसे आदेश जारी किये जा रहे हैं या किये जा चुके हैं, जिससे इस महामारी से लड़ने में हमे मदद मिले।

    ऐसे किसी आदेश, जिसे एक लोकसेवक द्वारा प्रख्यापित किया गया है और यदि ऐसे आदेश की अवज्ञा की जाती है तो अवज्ञा करने वाले व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 188 के अंतर्गत दण्डित किया जा सकता है।

    एक पिछले लेख में हम विस्तार से इस बारे में जान चुके हैं कि आखिर आईपीसी की धारा 188 क्या कहती है और क्या हो सकते है प्रशासन के आदेश की अवज्ञा के परिणाम

    मौजूदा लेख में हम केवल इस बात पर गौर करेंगे कि आखिर आईपीसी की धारा 188 के तहत किये गए अपराध का संज्ञान, अदालतों द्वारा किस प्रकार से लिया जाता है।

    इस धारा के अंतर्गत किये गए अपराध के संज्ञान लेने के सम्बन्ध में प्रावधान, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 (1) (क) में दिया गया है। इस धारा को भी हम धारा 188 आईपीसी को समझने के उद्देश्य से इस लेख में जानने का प्रयास करेंगे। तो चलिए इस लेख की शुरुआत करते हैं।

    धारा 188 आईपीसी: कब लिया जाता है अपराध का संज्ञान?

    यदि हम दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 (1) (क़) को देखें तो हम यह पाएंगे कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 172 से धारा 188 (दोनों सम्मिलित) के अंतर्गत किये गए किसी भी अपराध (एवं उसका उत्प्रेरण, प्रयत्न या यह ऐसा अपराध करने के लिए आपराधिक षड़यंत्र) का संज्ञान किसी न्यायालय द्वारा तभी लिया जायेगा जब सम्बंधित लोक सेवक के द्वारा (या ऐसे किसी अधिकारी द्वारा जिसके वह अधीनस्थ है) लिखित परिवाद (Written Complaint) न्यायालय में दाखिल किया जायेगा।

    ध्यान रहे कि यह लोक सेवक वही होना चाहिए जिस लोक सेवक की बात भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 172 से धारा 188 के अंतर्गत की गयी है। यदि हम बात केवल दंड संहिता की धारा 188 की करें, तो लिखित परिवाद ऐसे लोक सेवक द्वारा न्यायालय के सामने दाखिल किया जायेगा जिसके द्वारा कोई आदेश प्रख्यापित किया गया था (और जिसकी अवज्ञा की गयी है और जिसके चलते किसी व्यक्ति के विरुद्ध धारा 188 के अंतर्गत मामला बना है)।

    हाँ, यह जरुर है कि धारा 195 (1) (क) के अंतर्गत "लोक सेवक" अभिव्यक्ति के अर्थ में, उस समय के लिए लोक सेवक का पद धारण करने वाला व्यक्ति शामिल होगा, जिसने कोई आदेश प्रख्यापित किया था। इसके अलावा, इसके अंतर्गत उस लोक सेवक के कार्यालय का उत्तराधिकारी भी शामिल होगा, यानी कि उस पद को धारित करने वाला कोई भी अन्य व्यक्ति भी लिखित परिवाद दाखिल कर सकता है, भले उसने स्वयं ऐसा कोई आदेश नहीं जारी किया था बल्कि उसके पद पर उससे पहले बने रहने वाले व्यक्ति ने ऐसा आदेश जारी किया था। आगे बढ़ने से पहले आइये धारा 195 (1) (क़) पढ़ लेते हैं।

    यह धारा यह कहती है कि:-

    (1) कोई न्यायालय--

    (क) (i) भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 172 से धारा 188 तक की धाराओं के (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएँ भी हैं) अधीन दण्डनीय किसी अपराध का, अथवा

    (ii) ऐसे अपराध के किसी दुष्प्रेरण या ऐसा अपराध करने के प्रयत्न का, अथवा

    (iii) ऐसा अपराध करने के लिए किसी आपराधिक षड़यंत्र का,

    संज्ञान संबद्ध लोक-सेवक के, या किसी अन्य ऐसे लोक-सेवक के, जिसके वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है, लिखित परिवाद पर ही करेगा, अन्यथा नहीं;

    गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश राज्य बनाम माता भीख और अन्य (1994) 4 एससीसी 95 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह साफ़ किया था कि कोई भी अदालत, आईपीसी की धारा 172 से 188 (दोनों सम्मिलित) के तहत किसी भी अपराध का संज्ञान, 'सम्बंधित लोक सेवक' या किसी अन्य लोक सेवक (जिसके अधीनस्थ उस आदेश को प्रख्यापित करने वाला लोक सेवक प्रशासनिक रूप से है) द्वारा लिखित परिवाद को छोड़कर, नहीं ले सकती है।

    धारा 195 (1) (क): संक्षेप में

    अब यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 (1) (a) के अनुसार, किसी न्यायालय को संज्ञान नहीं लेना है

    (a) किसी ऐसे अपराध का जो भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 172 से धारा 188 (दोनों सम्मिलित) के अंतर्गत दंडनीय हो, या

    (b) ऐसे किसी अपराध के दुष्प्रेरण, प्रयत्न का, या

    (c) ऐसे किसी अपराध को करने के आपराधिक षड़यंत्र का

    जबतक कि इस बाबत ऐसे लोक सेवक (जो धारा 172 से धारा 188 से सम्बंधित हो) की ओर से लिखित परिवाद न्यायालय को न मिल जाये या यह लिखित परिवाद ऐसे लोकसेवक की तरफ से भी आ सकता है जिसके अधीनस्थ यह लोक सेवक हो जिसने आदेश प्रख्यापित किया।

    सुन्दलैमदम बनाम राज्य 1985 Cri LJ 1310 (Mad) के मामले के अनुसार, मद्रास उच्च न्यायालय ने यह साफ़ किया था कि एक लोकसेवक को धारा 188 (या दंड संहिता की धारा 172 से धारा 188) के अंतर्गत एक्शन, पुलिस के समक्ष/जरिये न लेकर अदालत के जरिये लेना अनिवार्य है। और यही धारा 195 (1) (क) का सार भी है।

    वहीं, तेज सिंह बनाम राज्य 1976 Cri LJ 1310 (J&K) के मामले में यह आयोजित किया गया था कि एक मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 188 के अंतर्गत अपराध का संज्ञान केवल सम्बंधित लोकसेवक (जिसके आदेश की अवज्ञा की गयी है) के लिखित परिवाद (Written Complaint) पर ही लिया जा सकता है या किसी ऐसे लोकसेवक के लिखित परिवाद पर जिसके अधीनस्थ किसी लोकसेवक ने कोई आदेश प्रख्यापित किया था और तत्पश्च्यात जिस आदेश की अवज्ञा की गयी और जिसके चलते धारा 188 के अंतर्गत मामला बना।

    परिवाद (Complaint) में पुलिस रिपोर्ट शामिल नहीं

    सीआरपीसी की धारा 195 (1) (a) में प्रयुक्त "परिवाद" (Complaint) शब्द, सीआरपीसी की धारा 2 (d) के तहत परिभाषित किया गया है, जो निम्नानुसार है:

    (घ) 'परिवाद' से इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्रवाई किए जाने की दृष्टि से मौखिक या लिखित रूप में उससे किया गया यह अभिकथन अभिप्रेत है कि किसी व्यक्ति ने, चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात, अपराध किया है, किन्तु इसके अन्तर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं है

    इस प्रकार, "परिवाद" शब्द की परिभाषा को पढ़ने से हमे यह स्पष्ट होता है कि परिवाद में "पुलिस रिपोर्ट" शामिल नहीं होती है।

    उच्चतम न्यायालय ने एमएस अहलावत बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2000) 1 एससीसी 278 के मामले में भी यह कहा था कि धारा 195 (1) (क) सीआरपीसी के प्रावधान अनिवार्य हैं, और किसी भी न्यायालय के पास धारा 195 (1) (क) सीआरपीसी के तहत किसी भी अपराध (जोकि वास्तव में भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय किये गए हैं) का संज्ञान लेने का अधिकार नहीं है जब तक कि उस धारा के तहत लिखित में कोई परिवाद अदालत को न मिल जाये।

    यानी कि उच्चतम न्यायालय द्वारा तय किया गया एमएस अहलावत मामला भी यह साफ़ करता है कि एक पुलिस रिपोर्ट के आधार पर धारा 188 के अंतर्गत किये गए अपराध का संज्ञान, अदालत द्वारा नहीं लिया जा सकता है और उसका संज्ञान केवल लोक सेवक के लिखित परिवाद पर ही लिया जा सकता है।

    धारा 195 (1) (क़) सीआरपीसी का उद्देश्य

    इस धारा का उद्देश्य व्यक्तियों के खिलाफ, दुर्भावनापूर्ण तरीके से अपर्याप्त सामग्री या अपर्याप्त आधार पर अभियोग चलाने से बचना है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि, इस धारा के प्रावधान अनिवार्य हैं और न्यायालय के पास, तब तक किसी भी अपराध का संज्ञान लेने का कोई अधिकार नहीं है, जब तक कि सम्बंधित 'लोक सेवक' द्वारा लिखित में कोई परिवाद न दाखिल किया जाए - दौलत राम बनाम पंजाब राज्य AIR 1962 SC 1206।

    सी मुनियप्पन बनाम स्टेट ऑफ टीएन (2010) 9 एससीसी 567 के मामले में भी माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि सीआरपीसी की धारा 195 (1) (क) के प्रावधान अनिवार्य हैं और इनका गैर-अनुपालन अभियोजन और अन्य सभी परिणामी आदेशों को नष्ट कर देगा।

    इस मामले में आगे यह कहा गया है कि अदालत इस तरह की मामलों में परिवाद के बिना संज्ञान नहीं ले सकती है और ऐसे परिवाद के अभाव में ट्रायल और दोषसिद्धि बिना अधिकार क्षेत्र के निरर्थक हो जाएगा।

    एक प्रासंगिक उदाहरण

    दौलत राम बनाम पंजाब राज्य AIR 1962 SC 1206 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट को सीआरपीसी की धारा 195 (1) (क) के तहत निर्धारित प्रावधानों की प्रकृति पर विचार करने का अवसर मिला था। इस मामले में, मामले के तथ्यों का संज्ञान सीआरपीसी की धारा 173 (2) के तहत प्रस्तुत पुलिस रिपोर्ट के आधार पर मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया था और मौजूद अपीलकर्ता के खिलाफ मुकदमा चला कर उसे दोषी ठहराया गया था।

    गौरतलब है संबंधित लोक सेवक, तहसीलदार ने कोई भी लिखित परिवाद अदालत में दाखिल नहीं किया था, जबकि अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप ऐसा था, जिसके लिए लोकसेवक द्वारा लिखित परिवाद दाखिल करना अनिवार्य था।

    अपील का निर्णय करते समय, सुप्रीम कोर्ट ने यह आयोजित किया कि मजिस्ट्रेट द्वारा मामले का संज्ञान इसलिए गलत तरीके से लिया गया था क्योंकि अदालत में लोक सेवक, अर्थात तहसीलदार द्वारा कोई लिखित परिवाद दाखिल नहीं किया गया था।

    इसके चलते मुकदमे को बिना वैध क्षेत्राधिकार के माना गया, आरोपी की दोषसिद्धि को बनाए नहीं रखा जा सकता था, इसलिए अपील को अनुमति दी गई और अपीलकर्ता को सुनाई गई सजा को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया।

    मौजूदा परिदृश्य

    हाल ही में लॉकडाउन दिशानिर्देशों के कथित उल्लंघन के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट के पंजीकरण को अवैध बताते हुए, उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ विक्रम सिंह ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

    उन्होंने लॉकडाउन उल्लंघन के लिए IPC की धारा 188 के तहत दर्ज FIR रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की।

    इससे पहले, आर आनंद सेकरन एवं अन्य बनाम राज्य, पुलिस इंस्पेक्टर, तूतीकोरिन [2019 Indlaw MAD 5177], के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने धारा 188 आईपीसी के तहत अपराध के सम्बन्ध में व्यापक दिशानिर्देश जारी किये थे और यह कहा था कि इस धारा के तहत किये गए अपराध के मामलों में, पुलिस के पास एफआईआर दर्ज करने की कोई शक्ति मौजूद नहीं है।

    अंत में, मैं आपको ऐश्वर्य प्रताप सिंह के इसी सम्बन्ध में लेख के साथ छोड़ जाता हूँ, जोकि कानुपर नगर में अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट हैं।

    इस लेख में वे आईपीसी की धारा 188 के तहत दर्ज एफआईआर की वैधता पर बात कर रहे हैं और यह चर्चा कर रहे हैं कि क्या COVID 19 को नियंत्रित करने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त कानूनी प्रावधान हैं?

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