सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 8 पर व्यक्ति को सूचना (धारा-11)

Shadab Salim

9 Nov 2021 11:08 AM GMT

  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 8 पर व्यक्ति को सूचना (धारा-11)

    सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के अंतर्गत धारा 8 पर व्यक्ति सूचना से संबंधित है। यह धारा पर व्यक्ति द्वारा सूचना लिए जाने संबंधित प्रावधानों को व्यवस्थित करती है। इस आलेख के अंतर्गत इस धारा 8 पर व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है।

    यह इस धारा का अधिनियम में दिया गया मूल स्वरूप है:-

    पर व्यक्ति सूचना - (1) जहाँ, यथास्थिति, किसी केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी का, इस अधिनियम के अधीन किए गए अनुरोध पर कोई ऐसी सूचना या अभिलेख या उसके किसी भाग को प्रकट करने का आशय है, जो किसी पर व्यक्ति से संबंधित है या उसके द्वारा इसका प्रदाय किया गया है और उस पर व्यक्ति द्वारा उसे गोपनीय माना गया है, वहाँ, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी अनुरोध प्राप्त होने से पांच दिन के भीतर, ऐसे पर व्यक्ति को अनुरोध की - और इस तथ्य की लिखित रूप में सूचना देगा कि यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी का उक्त सूचना या अभिलेख या उसके किसी भाग को प्रकट करने का आशय है, और इस तथ्य में कि सूचना प्रकट की जानी चाहिए या नहीं, लिखित में या मौखिक रूप से निवेदन करने के लिए पर-व्यक्ति को आमंत्रित करेगा तथा सूचना के प्रकटन के बारे में कोई विनिश्चय करते समय पर व्यक्ति के ऐसे निवेदन को ध्यान में रखा जाएगा।

    परन्तु विधि द्वारा संरक्षित व्यापार या वाणिज्यिक गुप्त बातों की दशा में के सिवाय, यदि ऐसे प्रकटन में लोकहित, ऐसे पर व्यक्ति के हितों की किसी संभावित अपहानि या क्षति से अधिक महत्वपूर्ण है तो प्रकटन को अनुज्ञात किया जा सकेगा।

    (2) जहाँ उपधारा (1) के अधीन, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी द्वारा पर व्यक्ति पर किसी सूचना या अभिलेख या उसके किसी भाग के बारे में किसी सूचना की तामील की जाती है, वहाँ ऐसे पर व्यक्ति को, ऐसी सूचना की प्राप्ति की तारीख से दस दिन के भीतर प्रस्तावित प्रकटन के विरुद्ध अभ्यावेदन करने का अवसर दिया जाएगा।

    (3) धारा 7 में किसी बात के होते हुए भी, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी धारा 6 के अधीन अनुरोध प्राप्त होने के पश्चात् चालीस दिन के भीतर यदि पर व्यक्ति को उपधारा (2) के अधीन अभ्यावेदन करने का अवसर दे दिया गया है, तो इस बारे में विनिश्चय करेगा कि उक्त सूचना या अभिलेख या उसके भाग का प्रकटन किया जाए या नहीं और अपने विनिश्चिय की सूचना लिखित में पर व्यक्ति को देगा।

    (4) उपधारा (3) के अधीन दी गई सूचना में यह कथन भी सम्मिलित होगा कि वह पर व्यक्ति, जिसे सूचना दी गई है, धारा 19 के अधीन उक्त विनिश्चय के विरुद्ध अपील करने का हकदार है।

    यह अधिनियम व्यक्तियों/फर्मों/संगठनों को भी आच्छादित करता है, जो प्रत्यक्षतः अधिनियम के क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं आते किन्तु उन्होंने संविदाओं, कारोबार संव्यवहार या सरकारी अभिकरणों (लोक प्राधिकारी) के वित्तीय संव्यवहार से सम्बन्धित उनकी सूचना में से कुछ को पेश किया है। ऐसी सूचना नागरिकों द्वारा अधिनियम के अधीन पहुँचा जा सकता है। ये व्यक्ति/फर्म/संगठन अधिनियम के अधीन पर पक्षकार की परिभाषा के अधीन आच्छादित हैं ।

    इस अधिनियम के अधीन पर-पक्षकार की परिभाषा आवेदन और सूचना के लिए आवेदक पर विचार करने वाले लोक प्राधिकारी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को आच्छादित करता है, जैसा कि नीचे दर्शित है:

    प्रथम पक्षकार आवेदन या अपील पेश करने वाला व्यक्ति; द्वितीय-पक्षकार- आवेदन पर कार्यवाही करने के लिए उत्तरदायी लोक प्राधिकारी तथा पर पक्षकार अन्य लोक प्राधिकारी को शामिल करके कोई अन्य व्यक्ति या निकाय पर पक्षकार द्वारा प्रदान किये गये किन्तु लोक प्राधिकारी द्वारा धारण किये गये अभिलेख अधिनियम के अधीन सूचना की परिभाषा के अन्तर्गत शामिल किये जाते हैं और सूचना के लिए अनुरोध की विषयवस्तु हो सकते हैं।

    यह धारा अपेक्षा करती है कि यदि नागरिकों द्वारा मांगी गई सूचना अभिलेख से सम्बन्धित है, जो पर पक्षकार द्वारा प्रदान की गई है और उस पक्षकार द्वारा गोपनीय के रूप में नहीं मानी जाती है, तो लोक प्राधिकारी या लोक सूचना अधिकारी आवेदक को ऐसी सूचना प्रदान करने के लिए स्वतन्त्र है।

    यदि सूचना पर पक्षकार द्वारा गोपनीय मानी जाती है, तो निम्नलिखित कदम लोक सूचना अधिकारी द्वारा उठाये जायेंगे :

    (क) लोक सूचना अधिकारी की सूचना के लिए आवेदन की प्राप्ति के पांच दिनों के भीतर उसकी राय की ईप्सा करने वाले पर पक्षकार को लिखित नोटिस देना है कि क्या सूचना आवेदक के समक्ष प्रकट की जानी चाहिए या नहीं

    (ख) पर-पक्षकार को 10 दिनों के भीतर लोक सूचना अधिकारी के समक्ष यह निवेदन करना चाहिए कि सूचना को प्रकट किया जाए या नहीं।

    (ग) आवेदन की प्राप्ति के 40 दिनों के भीतर, लोक सूचना अधिकारी को विनिश्चय करना चाहिए। पर-पक्षकार से सम्बन्धित सूचना आवेदक को प्रदान की जाए या नहीं और इसके पश्चात् उसका विनिश्चय पर पक्षकार को दिया जाए।

    (स) पर पक्षकार उससे सम्बन्धित सूचना को आवेदक के समक्ष प्रकट करने के लिए लोक सूचना अधिकारी के विनिश्चय के विरुद्ध अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष अपील दाखिल कर सकता है।

    लोक सूचना अधिकारी को पर-पक्षकार से सम्बन्धित सूचना की ईप्सा करने वाले आवेदन पर विचार करने में अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहिए। उसे अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय मस्तिष्क में विधि द्वारा संरक्षित या व्यापार और वाणिज्यिक गोपनीयताओं, व्यक्तियों के एकान्त के उल्लंघन के संरक्षण और पर-पक्षकार के हित की क्षति को अमान्य करके लोकहित को ध्यान में रखना चाहिए।

    इस धारा के अधीन सभी निजी उद्योग, बैंक या कोई अन्य फर्म, जिनका लोक प्राधिकारियों से किसी प्रकार का कारवार संव्यवहार संविदात्मक सम्बन्ध है, आच्छादित है।

    नागरिक लोक प्राधिकारियों से इन फर्मों के बारे में सूचना की मांग कर सकते हैं, जो अपना अभिलेख रखते हैं।

    सूचना का प्रकटन:-

    सहकारी समिति के ग्राहकों के सम्बन्ध में सूचना ऐसी सूचना नहीं है जिसे प्राप्त किया जा सकता हो तथा सोसाइटी द्वारा अनुरक्षित किया जाता है। अतः ऐसी सूचना को जैसा कि धारा 11 में प्रावधानित किया गया है, पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना को प्रक्रिया का अनुसरण करने के पश्चात् प्रदान किया है।

    व्यक्तिगत सूचना:-

    वार्षिक गोपनीयता रिपोर्ट और अन्य सूचना जैसे परिवार का विवरण प्रकृति में व्यक्तिगत है और किसी लोक क्रियाकलाप से सम्बन्धित नहीं है और निश्चित रूप से परिणाम सरकारी सेवक की गोपनीयता के उल्लंघन में होता है।

    पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना को ईप्सा की गयी है या प्रदान की गयी है और गोपनीय मानी गयी है, उपबन्धित प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना चाहिए।

    कोई विवाद नहीं है कि धारा 11 प्रावधान करती है कि जहाँ केन्द्रीय सार्वजनिक सूचना अधिकारी का आशय किसी सूचना या अभिलेख को प्रकट करने का है, जो पर पक्षकार से सम्बन्धित है और पर-पक्षकार द्वारा प्रदान की जाती है और उस पर पक्षकार द्वारा विश्वसनीय माना गया है, तो सम्बद्ध प्राधिकारी यह तर्क देने के लिये, कि क्या ऐसे दस्तावेज को प्रकट किया जाना चाहिये या नहीं, उसे अवसर प्रदान करते हुये अनुरोध पर ऐसे पक्षकार को सूचना देगा।

    पर व्यक्ति को सूचना का प्रकटन:-

    प्रत्युत्तरदाता को सूचना के प्रकटन के पूर्व राज्य सूचना आयोग को चाहिए कि वह याचीगण को नोटिस जारी करे तथा उन्हें उनको आपत्तियों पर सुने। लोक सूचना अधिकारी के समक्ष तथा राज्य सूचना आयोग के समक्ष कार्यवाहियों को नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त की संगति में निष्कर्षित किया जाना चाहिये तथा जहां उस प्रकृति के प्रकटन को ईप्सा भागीदारी फर्म के व्यवसाय के बारे में थी लेकिन यह आवश्यक था कि किसी अन्तिम आदेश को पारित करने के पूर्व याचीगण को सुना जाता।

    राज्य सूचना आयोग द्वारा पारित आदेशों को एतदद्वारा अपास्त किया जाता है। याचीगण को नोटिस जारी किये जाने के लिए राज्य सूचना आयोग को निर्देशित किया जाता है तथा उन्हें निर्देशित किया जाता है कि ये चतुर्थ प्रत्युत्तरदाता द्वारा दाखिल आवेदन का विनिश्चय करने के पूर्व सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान करें।

    प्रकटन के लिए प्रक्रिया:- आयोग केवल विधि के अनुसार और इस धारा के अधीन अनुरोध पर पक्षकार सूचना के प्रकट करने के लिए प्रक्रिया के अनुपालन में प्रकटन का निर्देश देने के लिए बाध्य है।

    अरविन्द केजरीवाल बनाम केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी, ए आई आर 2012 दिल्ली के मामले में कहा गया है कि धारा 11 के अधीन विहित प्रक्रिया का अनुपालन उन दोनों दशाओं में किया जाना चाहिए, जब सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित है या पर पक्षकार द्वारा दी जाती है।

    कोई सूचना, जिसकी ईप्सा की जाती है, पर पक्षकार से सम्बन्धित है या पक्षकार द्वारा प्रदान की गयी है।

    या उस पर पक्षकार द्वारा गोपनीय रूप में मानी गयी है, सदैव प्रक्रिया है, जैसे कि अधिनियम की धारा 7 (7) और 11 द्वारा अधिकिधत है, जिसका ईमानदारी से अनुसरण किया जाना चाहिए। यह बात हाईकोर्ट ऑफ गुजरात बनाम स्टेट चीफ इन्फार्मेशन कमिश्नर, ए आई आर 2008 गुजरात 371 के मामले में कही गई है।

    पर-पक्षकार को बिना सुने और उसकी आपत्ति पर विचार किए बिना बेतुकी प्रार्थना के आधार पर सूचना प्रदान करने का निर्देश देना उचित नहीं।

    धारा 11 (1) के अधीन पर पक्षकार से परामर्श किसी सूचना के प्रकटन के पूर्व आवश्यक हो गया है, जो पर पक्षकार से सम्बन्धित है या उसके द्वारा प्रदान की जाती है।

    धारा 11 (1) के अधीन, प्रकटन के लिए आधारों को जोड़ने के लिए पर-पक्षकार से कहने की अपेक्षा है। और पर पक्षकार की स्पष्ट अनुमति के बिना सूचना का प्रत्याख्यान करने के लिए कोई प्रावधान नहीं है।

    जयकिशन अग्रवाल बनाम डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस (लाइसेंसिंग) के मामले में कहा गया है कि लोक प्राधिकारी के लिए पर पक्षकार द्वारा दिये गये कथन के प्रकटन के पूर्व पर पक्षकार से विचार विमर्श करना आज्ञापक है।

    प्रक्रिया का अनुपालन:-

    अरविन्द केजरीवाल बनाम सेण्ट्रल पब्लिक इन्फार्मेशन आफिसर, एआईआर 2012 डेलही 291 के प्रकरण में कहा गया है कि इस धारा के अधीन विहित प्रक्रिया का अनुपालन गोपनीय सूचना के मामले में किया जाना चाहिए, जब सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित है या पर पक्षकार द्वारा प्रदान की जाती है।

    आर० के० जैन बनाम भारत संप, ए आई आर 2013 दिल्ली 24 के मामले में कहा गया है कि सूचना केवल तब प्रदान की जा सकती है, जब मुख्य सूचना आयुक्त द्वारा आज्ञापक प्रक्रिया का पालन करने के पश्चात् यह राय बनाई गई है कि सूचना का प्रकटन लोकहित में होगा।

    ऐसे मामलों के सिवाय, जिसमें अभिभावी लोकहित शामिल हो, कार्यालय के एसीआर अभिलेख को प्रकट नहीं किया जा सकता है धारा 11 (1) के अधीन प्रक्रिया के आज्ञापक होने के कारण उसका पालन किया जाना है, जिसमें संबद्ध सूचना अधिकारी को, जिससे ए सी आर की मांग की गई है, सूचना प्रदान करना शामिल है। उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश सहित सभी अवर प्राधिकारियों द्वारा सूचना के प्रकटन की इंकारी को संपुष्ट किया गया।

    पर पक्षकार को नामंजूर करने के लिए स्वतः कोई अधिकार नहीं:-

    पर-पक्षकार को, उससे सम्बन्धित सूचना को प्रकट न करने के लिए लोक प्राधिकारों के लोक सूचना अधिकारी को आदेश देने का स्वतः कोई अधिकार नहीं है और लोक प्राधिकारी को धारा 8 (1) (ञ) और धारा 11 (1) के प्रावधानों के निबन्धनों में पर-पक्षकार के मामले का मूल्यांकन करने और यह पता लगाने की अपेक्षा की जाती है कि मांगी गई सूचना प्रकटन से वर्जित नहीं है।

    यदि सूचना प्रकटन से वर्जित है, तो लोक प्राधिकारी को यह परीक्षा करनी चाहिए कि क्या ईप्सित सूचना को प्रकट करना लोकहित में होगा और उसका प्रकटन व्यक्तिगत पर पक्षकार के प्रति क्षति को, यदि कोई हो, अमान्य करेगा।

    लोक प्राधिकारी को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का समुचित रूप से मूल्यांकन करके निष्कर्ष निकालना चाहिए। इसके पश्चात् सकारण आदेश तद्नुसार पारित किया जाना चाहिए।

    संवेदनशील सूचना:-

    एक ओर पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व की आवश्यकता तथा अन्य और वित्तीय संसाधनों के सीमान्त प्रयोग तथा संवेदनशील सूचना की गोपनीयता की आवश्यकता पर विचार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया गया था कि सिविल सेवा परीक्षा में अंकों के सम्बन्ध में ईप्सित सूचना को यांत्रिक ढंग से प्रदान करने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है।

    अन्य शैक्षिक निकायों की परीक्षाओं की परिस्थिति भिन्न आधार पर स्थित हो सकती है। अस्थाई अंकों को प्रदान करना समस्या उत्पन्न करेगा, जैसा कि ऊपर यथा उद्धृत संघ लोक सेवा आयोग द्वारा अभिवचन किया गया था, जो लोकहित में नहीं होगा।

    यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन, आदि बनाम अंगेश कुमार एवं अन्य, आदि, 2018 के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि हालांकि यदि मामला निर्मित किया जाता है जहां न्यायालय यह पाता है कि लोकहित सूचना प्रस्तुत करने की अपेक्षा करता है तब न्यायालय दो गयी तथ्यात्मक स्थिति में निश्चित रूप से ऐसी अपेक्षा करने का अधिकारी है। यदि नियम अथवा पद्धति ऐसी अपेक्षा करते हैं, तब निश्चित रूप से ऐसे नियम अथवा पद्धति को प्रवर्तित किया जा सकता है। वर्तमान मामले में इन सिद्धान्तों पर विचार किये बिना निर्देश जारी किये गये हैं।

    कुछ गोपनीय नहीं:-

    टिप्पण-पत्र और आदेश-पत्र की अन्तर्वस्तु को लोक प्राधिकारी द्वारा रखा गया था। लोक सूचना अधिकारी को पर-पक्षकार द्वारा दी गयी सूचना गोपनीय होना नहीं कही जा सकती है।

    राशन की दुकान से सम्बन्धित सूचना:-

    राशन की दुकान से सम्बन्धित सूचना लोक सूचना है और वह प्रदान की जानी चाहिए। यह निर्णय ए सी सेकर बनाम डिप्टी रजिस्ट्रार ऑफ कोआपरेटिव सोसाइटीज, 2008 (65) ए आई सी 397 के मामले में दिया गया है।

    पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना प्रदान नहीं की जा सकती।

    राज्य सूचना आयोग पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना उपलब्ध कराने के लिये सार्वजनिक सूचना अधिकारी को निर्देश देने के लिये सक्षम है।

    पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना प्रकट की जा सकती है, किन्तु ऐसा करने के पूर्व इस धारा को आज्ञापक अपेक्षा का अनुसरण किया जाना चाहिए।

    बैंक से ऋण प्राप्त करने के बारे में पर-पक्षकार से सम्बन्धित सूचना बैंक द्वारा प्रदान नहीं की जा सकती क्योंकि बैंक को उसके ग्राहकों के लेखा की गोपनीयता बनाये रखने की आबद्धता है।

    पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना का प्रत्याख्यान पर पक्षकार की सम्मति को अभिप्राप्त करने के पश्चात् किया गया है।

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