भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग: 6 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत निजी प्रतिरक्षा का अधिकार

Shadab Salim

10 Dec 2020 10:25 AM GMT

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग: 6 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत निजी प्रतिरक्षा का अधिकार

    राज्य प्रत्येक व्यक्ति के शरीर और संपत्ति की रक्षा करने का कर्तव्य रखता है। एक राज्य का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने नागरिकों तथा गैर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करें उनके शरीर की रक्षा करें तथा उनकी संपत्ति की रक्षा करें। प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर और संपत्ति की रक्षा करने का अधिकार भी प्रदान किया गया है। जिस प्रकार की सुरक्षा का अधिकार उपलब्ध नहीं होता तो शायद उसका शरीर संपत्ति हमेशा खतरे में पाए जाते, शरीर संपत्ति की रक्षा का अधिकार कानून द्वारा प्रदत है अर्थात शरीर और संपत्ति की रक्षा करने हेतु कानून ने भी इजाजत दी क्योंकि राज्य पर भी व्यक्ति के शरीर की रक्षा का दायित्व होता है परंतु यह संभव नहीं है कि हर जगह वही हमारे अधिकारों की रक्षा कर सके, कुछ स्थानों पर व्यक्ति को विशेष अधिकार दिया गया है स्वयं भी अपने शरीर तथा अपनी संपत्ति की रक्षा कर सकता है।

    कभी-कभी ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती है जब किसी व्यक्ति के शरीर पर अपहानि होने पर उसके पास इतना समय नहीं होता कि वह राज्य से अपनी रक्षा के उपाय प्राप्त करें। ऐसी आपातकालीन परिस्थितियों में व्यक्ति अपने शरीर तथा अपनी संपत्ति की स्वयं भी रक्षा कर सकता है। निजी सुरक्षा के लिए कुछ अधिकार प्रदान किए गए जिनका उल्लेख भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक किया गया है।

    दंड संहिता की धाराओं के निर्माण के पीछे विधि निर्माताओं की यह इच्छा थी की विधि विहीन आक्रमणों को सद्भावना के साथ अपास्त कर देने वाले कुछ कार्यों को दांडिक प्रावधानों के प्रवर्तन से दूर रखा जाए जिससे उनको प्रोत्साहन मिले।

    कानून की यह मंशा नहीं है कि व्यक्ति इतना अधिक विधि अनुगामी बन जाए की विधि विहीन आक्रमण का सामना करने पर वह कायर की भांति व्यवहार करें। विधि हिंसा के लिए रोकती है तथा मनुष्य को किसी भी हिंसा तथा कोई भी ऐसे कार्य को करने से रोकती है जिसे करना राज्य का कर्तव्य है परंतु विधि कायर नहीं बनाती है।

    विधि समय-समय पर ऐसे अधिकार भी देती है जहां पर व्यक्ति अपनी स्वयं रक्षा कर सकता है। खतरे का सामना पड़ने पर मनुष्य का भाग खड़ा होना उसके लिए सबसे अधिक अपमानजनक है। प्रतिरक्षा के अधिकार की रूपरेखा सामाजिक उद्देश्यों की सेवा करने के लिए बनाई गई है। निर्धारित सीमा के अंतर्गत प्रतिरक्षा का उपयोग किया जा सकता है।

    निजी प्रतिरक्षा का अधिकार उसी क्षण प्रारंभ हो जाता है जिस क्षण शरीर को धमकी की युक्तियुक्त आशंका प्रतीत हो। ऐसी स्थितियों में हस्तक्षेपी तरीके से पुनर्विलोकन किया जाना चाहिए और इस बात पर विचार करने के लिए आवेश के चरण में क्या हुआ था अति तकनीकी दृष्टिकोण अपनाने से बचना चाहिए।

    निजी प्रतिरक्षा

    धारा 96 से धारा 106 तक के उपबंध प्राइवेट प्रतिरक्षा से संबंधित संपूर्ण विधि को संहिताबद्ध करते हैं। अनुबंधों के द्वारा संरक्षित अधिकार प्रतिरक्षा का अधिकार है, प्रतिफल या बदला अथवा प्रतिशोध का अधिकार नहीं है। विधि किसी बदले को मान्यता नहीं देती है दंड भी कोई बदला नहीं होता है अपितु या राज्य द्वारा दिया गया न्याय होता है।

    इन उपबंधों के अंतर्गत कोई उपधारण नहीं किया जा सकती कि मानव वध के प्रत्येक मामले में अभियुक्त ही आक्रामक होता है। इसके युक्त संदेह का लाभ अभियुक्त के पक्ष में जाएगा कि वह मृतक पक्ष ही था जो आक्रमक था, चाहे भले ही अभियुक्त के द्वारा इस संबंध में कोई भी साक्ष्य पेश किया गया। प्राइवेट प्रतिरक्षा को साबित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    आपराधिक अभियोजन के प्रारंभ से लेकर अंत तक अभियुक्त का अपराध साबित करने का भार अभियोजन पक्ष पर रहता है। अभियोजन पक्ष को अभियुक्त का अपराध युक्तियुक्त संदेह से परे साबित करना पड़ता है। यदि अभियुक्त अपने बचाव में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क प्रस्तुत करता है तो उसे इसके केंद्र बिंदु पर या तो अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों के प्रति परीक्षण करते समय साक्ष्या प्रतिरक्षा के साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहिए अथवा दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत परीक्षण के समय परिस्थितियों का वर्णन करना चाहिए।

    प्रस्तुत किए गए विवरण और परिस्थितियां न्यायालय के मस्तिष्क में उत्पन्न करती है कि हो सकता है कि अभियुक्त कहो तो वह दोषमुक्ति के योग्य है परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि रक्षा के लिए मात्र एक शब्द कह देना पर्याप्त है जो कुछ आवश्यक है वह यह है कि अभियुक्त अपने बचाव में कुछ तर्क प्रस्तुत करें।

    वह युक्तियुक्त संभव अवश्य हो अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत उनके प्रति परीक्षण बचाव पक्ष द्वारा प्राधिकार के उपयोग के संबंध में प्रस्तुत किए गए वाक्य न्यायालय के अधिकार के उपयोग के संबंध में अभियोजन पक्ष द्वारा कही गई बात अभियुक्त को छोड़ने योग्य नहीं है।

    निजी सुरक्षा के अधिकार को कुछ भागों में विभाजित किया गया है-

    निजी प्रतिरक्षा का अधिकार।

    निजी सुरक्षा के अधिकार के अपवाद।

    निजी सुरक्षा के अधिकार का विस्तार।

    निजी सुरक्षा के अधिकार का आरंभ तथा अंत।

    निजी संपत्ति की सुरक्षा का अधिकार।

    धारा 96 प्राइवेट प्रतिरक्षा में की गई कोई बात अपराध नहीं है जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में प्रयोग की जाती है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 96 इस बात का उल्लेख कर रही थी कोई भी बात अपराध नहीं होगी यदि वह निजी सुरक्षा के संदर्भ में प्रयोग की जाती है।

    धारा 98

    भाग दंड सहिंता की धारा 98 ऐसे व्यक्ति के कार्य के विरुद्ध निजी प्रतिरक्षा का अधिकार देती है जो चित्त विकृत है अर्थात पागल है। कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के शरीर संपत्ति को क्षति नहीं पहुंचा सकता यदि वह इस तरह का कोई कार्य करता है तो वह एक दंडनीय अपराध माना जाता है लेकिन धारा 96 के अनुसार ऐसा कोई कार्य अपराध नहीं है जो निजी सुरक्षा के अधिकार ने किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि मानव शरीर पर डालने वाले किसी अपराध के शरीर और किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की सुरक्षा करें तथा किसी ऐसे कार्य के विरुद्ध चोरी, लूट की परिभाषा में आने वाला अपराधों चोरी लूट, रिष्टि आपराधिक अतिचार करने का प्रयत्न है अपनी यह किसी व्यक्ति की संपत्ति की चाहे वह चल हो या चल सुरक्षा करें।

    जब कोई अभियुक्त निजी सुरक्षा के अधिकार का अभिवाक करता है तो उसे अपने इस अधिकार को साबित करना होता है जबकि कोई कार्य जो अन्यथा अपराध होता है उस कार्य को करने वाले व्यक्ति के बालकपन समाज की परिपक्वता के अभाव में चित्त विकृति या मत्तता के कारण या उस व्यक्ति के किसी भ्रम के कारण अपराध नहीं है तब हर व्यक्ति उस कार्य के विरुद्ध निजी सुरक्षा का वही अधिकार रखता है जो वो उस कार्य के वैसा अपराध होने की दशा में रखता है। इस बात का उल्लेख भारतीय दंड संहिता की धारा 98 के द्वारा किया गया है।

    धारा 96, 97, 98 व्यक्ति को अपने शरीर और संपत्ति की सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान करती है लेकिन यहां पर यह याद रखा जाना चाहिए किसी विधि द्वारा दिया गया यह अधिकार अत्यंत संकुचित है अर्थात बहुत आपातकालीन परिस्थिति में ही इस अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है।

    अभियुक्त से अपेक्षा की जाती है कि वह इस अधिकार एवं परिस्थितियों के औचित्य को अभिप्रमाणित करें। इस अधिकार की प्रवर्तन के लिए सभी सुसंगत तत्व पर विचार किया जाना आवश्यक है। इसे साबित करने का भार अभियुक्त किसी मुकदमे में प्राइवेट प्रतिरक्षा का अभिवाक करता है तो इस प्रकार का अभिवाक उसे सिद्ध करना होगा।

    निजी प्रतिरक्षा से जुड़े हुए एक महत्वपूर्ण मुकदमा योगेंद्र मोरारजी बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात एआईआर 1980 एससी 660 के प्रकरण में शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के संबंध में कतिपय सामान्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है जिसका उल्लेख इस आलेख में किया जा रहा है-

    निजी प्रतिरक्षा का अधिकार ऐसे किसी कृत्य के विरुद्ध नहीं मिलता है जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध नहीं है। अर्थात निजी सुरक्षा का अधिकार उसी काम के विरुद्ध मिलेगा जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध है। यदि कोई ऐसा कार्य जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध नहीं है और उसे कारित किया जा रहा था तो प्राइवेट प्रतिरक्षा का अभिवाक नहीं किया जा सकता तथा यहां पर प्राइवेट सुरक्षा का अधिकार उपलब्ध नहीं है।

    इस अधिकार का उपयोग तभी किया जा सकता है जब शरीर के प्रति कोई वास्तविक तत्काल खतरा सामने हो। निजी सुरक्षा के अधिकार का उपयोग तात्कालिक परिस्थिति में किया जाता है जब खतरा बिल्कुल सामने आ गया हो है तथा खतरे का टल पाना ही असंभव हो। ऐसी परिस्थिति में निजी प्रतिरक्षा के अधिकार को उपयोग में लाया जा सकता है।

    यह एक प्रतिरक्षात्मक अधिकार है न कि दंडात्मक अथवा प्रतिकारात्मक अर्थात इस अधिकार का उपयोग केवल प्रतिरक्षा के भाव बोध नहीं किया जाता है।

    इस अधिकार का उपयोग दंड देने के लिए या प्रतिकर प्राप्त करने के लिए नहीं किया जा सकता है। यह अधिकार की रक्षा हेतु प्रदान किया गया है बदले के लिए इस अधिकार का कोई प्रयोग नहीं किया जा सकता न ही इस अधिकार का अभिवाक बदले के स्वरूप में किया जा सकता है।

    जैसे किसी व्यक्ति को यदि चाकू मारा गया तो उसके बदले में वह सामने वाले व्यक्ति को चाकू नहीं मार सकता तथा यह नहीं कह सकता कि मैंने यहां पर चाकू इसलिए मारा क्योंकि चाकू मुझे मारा गया था अर्थात मैंने बदला लिया। विधि बदले की भावना को प्रचारित नहीं करती हैं तथा किसी बदले की भावना का कोई समर्थन नहीं करती है।

    इसका विस्तार मृत्यु कारित करने तक उस समय होता है जब धारा 100 में वर्णित परिस्थितियां उत्पन्न हो जाएं। भारतीय दंड संहिता की धारा 100 के अंतर्गत इस बात का उल्लेख किया गया है कि निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए मृत्यु कहां तक कारित की जा सकती है।

    जहां लोक प्राधिकारी के संरक्षण प्राप्त करने का युक्तियुक्त समय अवसर उपलब्ध हो वहां इस अधिकार का उद्भव नहीं होता है।

    इस मुकदमे के बाद में अन्य मुकदमा डोमिनिक बनाम स्टेट ऑफ केरल एआईआर 1971 एससी 1208 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि निजी सुरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते समय निम्न बातों का ध्यान रखा जाना आवश्यक है, केरल का यह प्रकरण निजी प्रतिरक्षा के मामले में मील का पत्थर है-

    इस अधिकार का प्रयोग करते समय किसी व्यक्ति को उससे अधिक अपहानि कारित नहीं की जा सकती जितनी की प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक है।

    प्रतिकूल आक्रमण की ऐसी युक्तियुक्त आशंका होनी चाहिए कि यदि प्रतिरक्षण न की जाए तो उस आक्रमण से क्षति हो सकती है।

    अधिकार का प्रयोग तब तक प्रारंभ नहीं किया जा सकता जब तक कि आक्रमण की युक्तियुक्त आशंका मस्तिष्क में उतर नहीं जाती।

    निजी सुरक्षा के अधिकारों के प्रयोग में किसी व्यक्ति को अभद्र शब्दों से अपमानित कथनों के लिए क्षमा नहीं किया जा सकता क्योंकि अभद्र शब्दों से किसी प्रकार की कोई सुरक्षा नहीं होती है।

    निजी सुरक्षा के अधिकार में कब मृत्यु तक कारित की जा सकती है-

    भारतीय दंड संहिता निजी सुरक्षा के अधिकार में मृत्यु तक का विस्तार करती है अर्थात यदि किसी व्यक्ति की निजी सुरक्षा को खतरा है तो वह मृत्यु तक कारित कर सकता है। जिस व्यक्ति से उसे खतरा है साधारण नियम यह है कि अपने शरीर में संपत्ति की रक्षा के लिए किसी व्यक्ति को इतनी क्षति नहीं पहुंचाई जा सकती जो शरीर संपत्ति को पहुंचाने वाली क्षति से अधिक हो लेकिन कुछ अवस्थाओं में निजी सुरक्षा का यह अधिकार किसी की मृत्यु कारित कर दिए जाने तक विस्तृत हो जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 100 के अंतर्गत ऐसी परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है-

    ऐसा हमला जिससे युक्तियुक्त रूप से यह शंका हो जाए की अन्यथा हमले का परिणाम मृत्यु होगी इस बात का उल्लेख धारा 100 के अंदर किया गया है।

    जैसे कि क ख को छुरा दिखाते हुए कहता है कि वह उसे आमुख धनराशि तत्काल प्रदान करें अन्यथा वह छुरे से उसकी हत्या कर देगा और ऐसा कहते हुए ही वह हमला करने को तैयार हो जाता है। इसी अवस्था में ख क हो अपनी प्रतिरक्षा का अधिकार क की हत्या कर देने तक विस्तृत हो जाएगा।

    दंड संहिता की धारा 106 के अनुसार यदि प्रतिरक्षा ऐसी परिस्थिति में हो कि वह अधिकार का प्रयोग बिना एक निर्दोष व्यक्ति को हानि पहुंचाए नहीं कर सकता तो वह जोखिम ले सकता है। जैसे कि एक व्यक्ति बलवाई भीड़ पर अपनी रक्षा के लिए गोली चलाता है जिसमें निर्दोष व्यक्ति भी सम्मिलित हो जाते हैं और उससे यह संभव है कि ऐसे व्यक्तियों को भी चोट लग जाए उनकी मृत्यु हो जाए ऐसी परिस्थिति में ऐसे व्यक्तियों की मृत्यु होने पर भी कोई अपराध नहीं बनता है।

    उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नियमित एआईआर 1987 एससी 1652 के प्रकरण में रात के समय पुलिस कर्मचारी कुछ व्यक्तियों को अवैध रूप से गिरफ्तार कर ले जा रहे थे। इन व्यक्तियों को छुड़ाने के लिए गांव के कुछ व्यक्तियों ने पुलिस कर्मचारियों का पीछा किया तो वह थोड़ी दूर पर उनके पीछे पीछे चल रहे थे। इस पर एक पुलिस कर्मचारी ने उन पर तीन बार बंदूक चलाई, प्रतिरक्षा में उन व्यक्तियों ने पुलिसकर्मियों पर हमला कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप एक पुलिसकर्मी की हत्या हो गई।

    न्यायालय ने आक्रमण को प्रतिरक्षा का आधार मानते हुए उचित ठहराया इसी प्रकार अत्यधिक दबाव या मजबूरी का उचित बोध होने की स्थिति में भी सुरक्षा का अधिकार मृत्यु कर देने तक विस्तृत हो जाता है।

    केशा और अन्य बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान 1993 एससी 2651 के प्रकरण में कहा गया है कि हाथापाई के मामले में जहां अभियुक्त को कुछ साधारण चौटें हुई कारित हुई, प्रतिरक्षा का अधिकार तो मिल जाता है पर मृत्यु कारित कर देने तक का नहीं क्योंकि यहां अभियुक्त ने न तो मृत्यु हो जाने की आशंका व्यक्त थी और न ही अपने को गंभीर चोट कारित होने की।

    यहां अभियुक्त ने प्रतिरक्षा में मृतक की मृत्यु कारित कर दी। अपनी अभिरक्षा में अधिकार सीमा मृत्यु कारित करने का अधिकार तभी है जब मृत्यु का होने की आशंका है या फिर अभियुक्त द्वारा इतनी गंभीर चोटों को सहन किया जा चुका है कि उसके परिणाम स्वरूप उसकी मृत्यु हो सकती थी तथा बचने के लिए केवल एक ही उपाय बचा था कि यदि वह हत्या कर दें तो ही उसकी जान बच सकती थी इसलिए उसने हत्या कारित कर दी।

    यदि किसी व्यक्ति का कृत्य ऐसा है जिससे गंभीर चोट पहुंचने की आशंका हो तो निजी सुरक्षा के अधिकार का विस्तार हो जाता है। अब्दुल कादिर के एक प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं, जिनमें अभियुक्तगण के निजी प्रतिरक्षा के अधिकार को मान्यता प्रदान की जा सकती है, जो निम्न है-

    जहां अभियुक्त के कब्जे में कोई भूमि हो और उसमें उन्होंने फसल बो रखी हो जो पक कर कटने की स्थिति में आ गई हो।

    मृतक और उसके साथी घातक हथियारों से सुसज्जित होकर फसल काटने के लिए अभियुक्तगण की भूमि पर आए हो।

    अभियुक्तगण द्वारा विरोध किए जाने पर मृतक और उसके साथियों ने अभियुक्तगण पर हमला कर उनको चौटें कारित की हो।

    बलात्कार आदि के आशय पर भी मृत्यु क्या की जा सकती है-

    बलात्कार का मामला समाज के लिए नासूर की तरह हो रहा है। आज छोटी छोटी बच्चियों के लिए बलात्कार जैसी वीभत्स और क्रूर घटना सुनने को मिल रही है। भारतीय दंड संहिता की धारा 100 बलात्कार के आशय से किए गए हमले के अंतर्गत भी मृत्यु कारित कर देने तक प्रतिरक्षा का अधिकार देती है। बलात्कार अप्राकृतिक मैथुन अथवा अपहरण करने के आशय से किए जाने वाले हमले की अवस्था में निजी सुरक्षा का अधिकार मृत्यु कारित कर देना तक विस्तृत हो जाता है। इस धारा में शब्द प्रयुक्त किया गया है अपहरण जिसको भारतीय दंड संहिता की धारा 362 में परिभाषित किया गया है। जहां हमला बलात्कार करने के आशय से किया जाता है वहां निजी सुरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु तक हो जाता है इसके लिए बलात्संग के खतरे को साबित किया जाना आवश्यक होता है।

    यदि किसी महिला से बलात्कार के उद्देश्य से कोई हमला किया गया है ऐसी परिस्थिति में हमला करने वाले की मृत्यु भी की जा सकती है। इस संबंध में यशवंतराव बनाम स्टेट ऑफ़ मध्य प्रदेश का एक प्रकरण है इसमें अभियुक्तों द्वारा एक व्यक्ति को गंभीर चोटे कारित की गई जो अभियुक्त की अवयस्क की लड़की के साथ बलात्कार करते हुए पाया गया। इस कृत्य को अभियुक्त की निजी सुरक्षा का अधिकार के अधीन माना गया। ऐसा ही एक मामला राघवन बनाम स्टेट ऑफ़ केरल का है जिसमें अभियुक्त ने मृतक को अपनी पत्नी के साथ मैथुन करते हुए देख लिया था मृतक ने अभियुक्त को कई चौटें दी और अभियुक्त ने मृतक पर वार किया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्त का यह कार्य प्रतिरक्षा की सीमा में मृत्यु कारित करने तक माना गया।

    लूट के संबंध में भी मृत्यु कारित की जा सकती है अग्नि द्वारा रिष्टि या फिर लूट जो मानव निवास स्थान टेंट या जलयान में संपत्ति है उसकी अभिरक्षा के स्थान पर कारित की जा सकती है।

    महावीर चौधरी बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार एआईआर 1996 एससी 1998 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि संपत्ति पर अतिक्रमणकारियों की मृत्यु कारित करने का निजी सुरक्षा का अधिकार तब तक नहीं मिलता जब तक कि अतिक्रमणकारियों से मृत्यु अथवा गंभीर चोट की आशंका न हो। मात्र अतिक्रमण करने पर ही अधिकार उपलब्ध नहीं हो जाता है, अतिक्रमण के साथ में अतिक्रमणकारियों द्वारा मृत्यु दिए जाने का आशय भी होना चाहिए।

    स्टेट आफ उत्तर प्रदेश बनाम चतुर सिंह एआईआर 2006 एससी 745 के प्रकरण में कहा गया है कि निजी सुरक्षा के अधिकार पर एक महत्वपूर्ण मामला सामने आया है। इसमें अभियुक्त कुल्हाड़ी लेकर अपने भाई के घर गया तथा वहां भाई वैशाली पर कुल्हाड़ से वार किया। अभियोजन पक्ष का मामला न्यायालय एक्स्ट्राज्यूडिशल एवं अन्य साक्ष्य से संबंधित था लेकिन संपूर्ण मामले में कहीं पर भी यह बात नहीं आई कि अभियुक्त को मृतक द्वारा लाठी से मारा गया था। अभियुक्त द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अंतर्गत किए गए अपने बयानों में भी अभियुक्त द्वारा स्वयं को लाठी से मारने की बात नहीं कही गई उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इसमें कारित की गई हत्या को निजी सुरक्षा के अंतर्गत बचाव के तौर पर नहीं माना जा सकता।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 102 में निजी सुरक्षा के आरंभ और उसके अंत होने के संबंध में प्रावधान किया गया है। शरीर की निजी सुरक्षा का अधिकार उसी क्षण आरंभ हो जाता है जिस समय की अपराध करने की चेष्टा या धमकी से शरीर को संकट युक्त आशंका उत्पन्न होती हो और यह अधिकार उस समय तक बना रहता है जब तक की आशंका बनी रहे आवश्यक नहीं है कि अधिकार का प्रयोग उचित समय किया जाए। जब अपराध किया जा रहा है इसका प्रयोग केवल अपराध किए जाने की आशंका पर ही किया जा सकता है।

    अन्य प्रकरणों में यह विस्तारित किया गया है कि निजी सुरक्षा के अधिकार का प्रारंभ खतरे की आशंका के साथ-साथ हो जाता है और यह तब तक बना रहता है जब तक खतरा बना रहता है।

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