भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग: 5 ऐसे कौन से अपवाद हैंं जिन्हें भारतीय दंड संहिता से छूट प्राप्त है

Shadab Salim

8 Dec 2020 5:25 AM GMT

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग: 5 ऐसे कौन से अपवाद हैंं जिन्हें भारतीय दंड संहिता से छूट प्राप्त है

    भारतीय दंड संहिता सीरीज के अंतर्गत पिछले आलेख में सामान्य स्पष्टीकरण का अध्ययन किया गया था। इस आलेख में 'साधारण अपवाद' भारतीय दंड संहिता के अध्याय 4 का अध्ययन किया जा रहा है।

    भारतीय दंड संहिता 1860 के अध्याय 4 के अंतर्गत साधारण अपवाद दिए गए। साधारण अपवाद से तात्पर्य से वह अपवाद जिन्हें भारतीय दंड संहिता में वर्णित किए गए किसी अपराध से मुक्ति मिली है।

    कोई भी कार्य नैतिक दृष्टि से कितना भी बुरा क्यों न हो वह तब तक अपराध नहीं होता है जब तक किसी विधि के अंतर्गत उसे अपराध वर्णित न किया जाए।

    जब किसी विधि के अंतर्गत किसी कार्य को अपराध वर्णित किया जाता है तब ही वह कार्य अपराध हो पाता है। भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत जितने कार्य अपराध घोषित किए गए हैं वह सभी अपराध है। संसद समय-समय पर विधि निर्माण के माध्यम से कुछ कार्यों को अपराध से मुक्ति दे सकती हैं वह कुछ कामों को अपराध घोषित कर सकती है। जैसे अभी हाल ही के मामले में संसद में व्यभिचार को अपराध से मुक्ति दी है तथा समलैंगिक संबंधों को भी अपराध से मुक्ति दे दी गई है। वर्तमान में किसी भी प्रकार का समलैंगिक संबंध जो आपसी सहमति से होता है वह किसी प्रकार का अपराध नहीं है परंतु इस संशोधन के पूर्व समलैंगिकता भारतीय दंड विधि के अंतर्गत अपराध था।

    साधारण अपवाद

    भारतीय दंड संहिता के अध्याय 4 के भीतर धारा 76 से साधारण अपवाद अध्याय का प्रारंभ होता है। इसके अंतर्गत ऐसे कार्यों का उल्लेख किया गया है जिनके होने पर कोई कार्य अपराध नहीं होता है। साधारण अपवादों में निहित सिद्धांत साक्ष्य के ऐसे नियम हैं जिनमें निर्णयात्मक अथवा खण्डनीय है प्रकल्पनाए समाविष्ट हैं। इन नियमों को समाविष्ट करने में भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत चाहे किसी भी क्रम को अंगीकार किया गया हो इनके महीन विवेचन से यही प्रकट होता है कि इन के अंतर्गत ऐसी स्थितियों से व्यवहार किया गया है जो दृश्य को प्रतिबाधित करती हैं।

    इस अध्याय 4 के अंतर्गत सभी प्रकार के अपराधों को समाविष्ट कर दिया गया है। न्यायाधीशों के अनुसार इस प्रकार के अपवाद को एक ही स्थान पर समाविष्ट कर देने का कारण बार-बार हर अपराध के साथ में उससे जुड़े हुए अपवाद का उल्लेख नहीं करना पड़े।

    इस संहिता में सर्वत्र अपराध की हर परिभाषा हर दंड और हर ऐसी परिभाषा या उपबंध या हर दृष्टांत साधारण अपवाद शीषर्क वाले अध्याय में अंतर्विष्ट अपवादों के अधीन समझा जाएगा चाहे उन अपराधों को ऐसी परिभाषा अनुबंध दृष्टांत में दौरान आ गया हो।

    दंड सहिंता के निर्माताओं ने इस अध्याय के निर्माण का उद्देश्य व्यक्त करते हुए कहा था इस अध्याय का निर्माण दाण्डिक उपबंधों के अंतर्गत आने वाली परी सीमाओं को बार-बार दोहराने की आवश्यकता के निवारण के लिए किया गया है।

    साधारण अपवाद का सीधा सा अर्थ यह है कि ऐसे अपवाद जिनमें किए गए जिनमे कोई कार्य अपवाद नहीं होगा। साधारण अपराध के अध्याय में ऐसे अपराधों को धारा 76 से लेकर 95 तक के उपबंधों में निविष्ट किया गया है।

    ऐसे अपराध जिनमें किए गए अपराध न्यायनुमोध है ऐसे अपराधों को प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के रूप में धारा 96 से लेकर 106 में प्रवेश दिया गया है।

    दंड संहिता के अध्याय 4 साधारण अपवाद के अंतर्गत धारा 76 से लेकर 95 तक जो धाराएं दी गई है उनमें किए गए अपराध इसलिए क्षम्य है क्योंकि वह दुराशयविहीन है।

    क्रम दो की स्थिति में यद्यपि आपराधिक आशय से परिपूर्ण है फिर भी वह इसलिए क्षम्य यह है क्योंकि वह विधि द्वारा सराहनीय है अर्थात यदि किसी व्यक्ति को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार देती है।

    धारा 76

    भारतीय दंड संहिता की धारा 76 कोई व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर यह विश्वास करता है कि वह किसी कार्य को करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध है। धारा 76 के अंतर्गत वह कोई कार्य इसलिए करता है क्योंकि उसका यह विश्वास है कि उसे वह कार्य अवश्य करना है।

    जैसे कि कोई पुलिस वाला कोई अपराध घटित होने पर किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी करता है। पुलिस द्वारा किए गए ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी सदोष परिरोध का अपराध नहीं है। पुलिस को इस धारा के अंतर्गत साधारण अपवाद में दंड संहिता से अनेक मामलों में मुक्ति मिली हुई है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 76 के अनुसार इस धारा के तीन तत्व सामने आते हैं-

    पहला यह कि किसी व्यक्ति द्वारा कोई ऐसा कार्य किया गया हो जो अपराध की परिभाषा में आता हो।

    दूसरा यह कि वह व्यक्ति उस कार्य को करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध हो।

    यह कि वह व्यक्ति तत्व की भूल के कारण न की विधि के भूल के कारण सदभावनापूर्वक यह विश्वास करता हो कि वह उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध है।

    इस संबंध में गोपाल कालिया 1933 का एक प्रकरण है, इसमें पुलिस अधिकारी एक व्यक्ति का वारंट लेकर गिरफ्तार करने के लिए मुंबई जाता है। जांच के पश्चात एवं सदभावनापूर्वक विश्वास करते हुए कि गिरफ्तार किए जाने वाला व्यक्ति यही है वह परिवादी को गिरफ्तार कर लेता है। परिवादी उस पुलिस अधिकारी के विरुद्ध सदोष परिरोध के लिए कार्यवाही करता है यह धारण किया गया कि पुलिस अधिकारी इस धारा के अंतर्गत सुरक्षित होने के कारण किसी भी अपराध का दोषी नहीं था।

    धारा 77

    भारतीय दंड संहिता की धारा 77 न्यायिक कार्य करते हुए किसी न्यायाधीश को दंड संहिता से मुक्ति देती है। इस धारा के अनुसार कोई बात अपराध नहीं है जो न्यायिक कार्य करते हुए न्यायाधीश द्वारा ऐसी किसी शक्ति के प्रयोग में की जाती है जिसके बारे में उसे सदभावनापूर्वक विश्वास है कि वह उसे विधि द्वारा दी गई है।

    यह धारा और उसके बाद की धारा आपराधिक अभियोजन के प्रतिकूल न्यायिक अधिकारियों और उनके अनुसचिव कर्मचारियों को वही संरक्षा प्रदान करती है जो उन्हें व्यवहार विषयक सिविल उत्तरदायित्व के प्रतिकूल जुडिशल ऑफिसर प्रोटेक्शन एक्ट 1850 द्वारा प्राप्त है।

    इन दोनों धाराओं में केवल न्यायधीश शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि जुडिशल ऑफिसर प्रोटेक्शन एक्ट के अंतर्गत न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट, जस्टिस ऑफ द कलेक्टर, अन्य व्यक्तियों को भी संरक्षण में रखा गया है परंतु दंड संहिता की धारा 19 के अनुसार न्यायाधीश शब्द न केवल हर ऐसे व्यक्ति का घोतक है जो पद रूप से न्यायाधीश हो बल्कि हर उस व्यक्ति का भी घोतक है जो पद रूप से न्यायाधीश हो बल्कि हर उस व्यक्ति का भी घोतक है जो विधि कार्यवाही में चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक अंतिम निर्णय ऐसा निर्णय जो उसके विरुद्ध अपील न होने पर अंतिम हो जाए। ऐसा निर्णय जो किसी अधिकारी द्वारा पोस्ट किए जाने पर अंतिम हो जाए निर्णय देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया। इस प्रकार समस्त न्यायिक अधिकारियों को उनके कर्मचारियों को धारा 77 के अंतर्गत धारा 78 के अंतर्गत भारतीय दंड संहिता के अपराधों से मुक्ति मिल जाती है।

    जैसे कि किसी न्यायाधीश द्वारा अपने किसी कर्मचारी को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का आदेश दिया जाता है तो यहां पर न्यायधीश किसी अपराध को करने का दोषी नहीं है तथा किसी न्यायाधीश द्वारा किसी व्यक्ति को मृत्यु दंड दिया जाता है तो न्यायाधीश हत्या का आरोपी नहीं है।

    धारा 80

    भारतीय दंड संहिता की धारा 80 दुर्घटना के संबंध में उल्लेख कर रही है। कभी-कभी ऐसी दुर्घटनाएं हो जाती है जिसमें किसी दुर्घटना को करने का कोई आशय नहीं होता तथा उचित सावधानी भी बरती जाती है परंतु फिर भी कोई घटना घटित हो जाती है। जब आशय ही नहीं होता और मन ही अपराधी नहीं होता ऐसी स्थिति में विधि किसी व्यक्ति को दंडित करने का नहीं कहती है। सामान्य अपवाद में दुर्घटना को इसलिए रखा गया है क्योंकि दुर्घटना किसी भी कार्य को अपराध नहीं घोषित करती है। दुर्घटना सामान्य अपराधों के अंतर्गत तीसरा अपवाद है। धारा के अनुसार ऐसी कोई बात जो दुर्घटना से की गई है अपराध नहीं मानी जाएगी यदि वह-

    बिना किसी आपराधिक अभिप्राय ज्ञान के।

    एक विधि पूर्ण कार्य करने में।

    विधि पूर्ण रीति से।

    विधि पूर्ण साधनों से।

    उचित सावधानी और सतर्कता से किया गया है।

    दुर्घटना का तात्पर्य मात्र संयोग नहीं है वैसे इसका तात्पर्य कोई अनशायित अथवा अप्रत्याशित कार्य है। कोई ऐसा कार्य जिसको करने का कोई आशय न हो परंतु वह घटित हो जाए। इस शब्द में यह भी भाव निहित है कि कोई बात जो न केवल अनशायित और ऐसा भी है जो इतनी कम प्रत्याशित थी कि एक आश्चर्य के रूप में घटित हो गई। दुर्घटना के परिषद में आ जाती है इसका शाब्दिक अर्थ किसी बुरी घटना का हो जाना है। सामान्य भाव बोध के अंतर्गत इसका तात्पर्य वह घटना है जो किसी व्यक्ति की दूरदर्शिता प्रत्याशा के विपरित घटित हो गई। विधि किसी परिणाम को दुर्घटना तब मानती है जब वह कार्य जिससे ऐसा परिणाम कारित हुआ है इसे परिणाम को कार्य करने आशय से न किया गया हो, ऐसे आशय के परिणाम स्वरूप उसका घटित होना ऐसा संभव न हो कि कोई सामान्य बुद्धि का व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों में जिसमें कि ऐसा परिणाम घटित हुआ है उसके विपरीत युक्तियुक्त पूर्व में पूर्वाधान का प्रयोग करता है।

    जैसे कि एक अध्यापक एक छात्र को इस आशय से नहीं पीटता ताकि उसकी मृत्यु हो जाए या उसे उपर शिकायत हो वरन वह उसके सुधार के लिए मर्यादित पिटाई करता है तो छात्र की मृत्यु के लिए अध्यापक उत्तरदायीं नहीं है।

    भूपेंद्र सिंह सुदामा बनाम गुजरात राज्य 1998 एसएससी 603 के प्रकरण में अभियुक्त कांस्टेबल अपने से तत्काल वरिष्ठ हेड कांस्टेबल के साथ गुजरात राज्य में सांपला बांध पर उसकी रक्षा के प्रायोजन से नियुक्त किया गया था। रात्रि काल में उसने अपने उस वरिष्ठ सहकर्मी पर नजदीक से गोली चला कर उसकी मृत्यु कार्य कर दी।

    यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह तथ्य कि अभियुक्त ने रात्रिकाल में अपने ही साथी को नजदीक से निशाने में लेकर उसकी पहचान किए बिना उस पर गोली चला कर उसकी मृत्यु कारित कर दी थी। यहां यह दर्शित करता है कि उसने उचित सतर्कता और सावधानी के साथ अपना कार्य नहीं किया था। अतः उसका कार्य क्षम्य नहीं है इसके अतिरिक्त अभियुक्त ने कभी भी यह दलील नहीं की थी कि मृतक को मारने का उसका कार्य दुर्घटना अथवा दुर्भाग्य का परिणाम था।

    धारा 82

    भारतीय दंड संहिता की धारा-82 (7) वर्ष से कम आयु के शिशु के कार्य को अपराध नहीं मानती है अर्थात कोई भी बालक जो 7 वर्ष से कम आयु का है उसके द्वारा किया गया कोई भी कार्य अपराध नहीं माना जाएगा। विशुद्ध रूप से 7 वर्ष के बालक को अपराध की श्रेणी से दूर रख दिया गया है विवेक अथवा समझ का निर्माण न कर सकने वाली आयु के संबंध में विभिन्न देशों में विभिन्न मत है। मुख्य न्यायाधीश के अनुसार सिविल विधि 25 वर्ष के लोगों को अल्पवयस्क मानती है और ऐसे युवकों को 3 वर्गों में विभाजित करती है। प्रथम आयु वर्ग को इंफ्रेंटी अर्थात जन्म से लेकर 7 वर्ष के आयु वर्ग में रखा गया है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 82 (7) वर्ष से कम आयु के शिशु को आपराधिक कार्य से परम मुक्ति प्रदान करती हैं। इंग्लैंड में जो विधि है उसमें भी ऐसे शिशु को अपराध करने में सक्षम माना गया है। इसका तात्पर्य अच्छाई और बुराई के बीच अंतर स्थापित करने में असमर्थ होना है। यदि शिशु 7 वर्ष से कम आयु का है तो इस सत्य का प्रमाण उसके कार्य से ही मिल जाएगा। दंड संहिता की धारा 40 में विनिर्दिष्ट प्रावधानों के अनुसार धारा 82 में विहित परम उन्मुक्ति संहिता के अतिरिक्त किसी भी स्थानीय विशिष्ट विधि में परिभाषित अपराधियों तक विस्तृत है अर्थात केवल भारतीय दंड संहिता के मामले में ही 7 वर्ष के बालक को किसी अपराध से मुक्ति नहीं मिली है अपितु कोई भी विधि जो किसी भी दंड की व्यवस्था करती है उसके अंतर्गत किसी भी बालक को जिसकी आयु 7 वर्ष से कम है अपराधी नहीं माना जाएगा।

    मकबूल शाह के मामले में कहा गया है कि 7 वर्ष से कम आयु के शिशु को अभिकर्ता बनाकर यदि कोई व्यक्ति अपराध करवाता है तो ऐसा शिशु दंडनीय नहीं है परंतु वह व्यक्ति दुष्प्रेरण के रूप में दंडनीय है जो उससे अपराध करवाता है।

    धारा 83

    संहिता की धारा-83 (7) वर्ष से अधिक परंतु 12 वर्ष से कम आयु के शिशु को आपराधिक दायित्व से विशुद्ध उन्मुक्ति प्रदान करती है। अपराध के लिए सक्षम व्यक्ति की कोटि में आते हैं इस श्रेणी के शिशु इतने सक्षम हो जाते हैं कि अपने आचरण की प्रकृति और उसके परिणामों का निर्णय न कर सके। यदि ऐसे शिशु की समझत इतनी परिपक्व नहीं हो पाई है कि वह आपराधिक कृत्य के अवसर पर अपने आचरण की प्रकृति और उसके परिणामों का निर्णय कर सके तो यह धारा उसे विशेष उन्मुक्ति प्रदान करती है और 7 वर्ष तथा 12 वर्ष की आयु के शिशु का उत्तरदायित्व उसकी समझ के अनुसार निर्धारित किया जा सकता है।

    धारा 83 के अंतर्गत उसे उन्मुक्ति नहीं मिल सकती यदि उसने कोई कार्य दुर्भावना से ग्रसित होकर किया है। एक बहुत पुराने प्रकरण में 10 वर्षीय बालिका को अपने पति की हत्या कार्य करने के लिए आजन्म निर्वासन की सजा दी गई थी जो बाद में न्यायालय द्वारा 7 वर्ष के दंडादेश में परिवर्तित कर दी गई।

    बालिका को उसके पति और ससुर ने गाली दी थी और मारने का प्रयत्न किया था। एक दिन जब उसका पति सो रहा था उसने लकड़ी काटने के उपकरण से उसके गले पर वार कर दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। इस हमले के बाद वह भागकर कहीं छुप गई। न्यायालय में उसकी प्रतिभा और व्यवहार तथा कार्य करने के बाद उसके छुप जाने के तरीके से यह निष्कर्ष निकाला कि वह अपराध करने में सक्षम व्यक्ति की श्रेणी में आ गई थी। उसे अपने कृत्य के तदनुसार दोष सिद्ध किया गया।

    1974 के एक और पुराने प्रकरण में 12 वर्षीय बालिका ने अपने पड़ोसी के घर में आग लगा दी थी क्योंकि उसने उसकी मां को धमकाया था। उच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में समुचित विधिक सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए भावना व्यक्त की यदि किसी बालक को हत्या आगजनी जैसे किसी अपराध के लिए विचारण किया जा रहा है तो विचारों का केंद्र बिंदु यह होना चाहिए कि क्या उसे ज्ञान था कि उसके कार्य का परिणाम हत्या है या उस चीज के प्रति जो आग का प्रयोग कर रही है क्या वह उसे जला देगी।

    हीरालाल मलिक बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के वाद में अपीलकर्ता जो 12 वर्ष कि कम आयु का था मृतक के गले पर तलवार से वार किया था। उसका आचरण स्पष्ट या प्रकट करता था कि वह दुर्भावना से ग्रस्त था उसने वही किया जो वह चाहता था। उसे धारा 326 के अधीन दोषसिद्ध किया गया परंतु मृत्यु के बाद में 10 वर्षीय नौकरानी ने 50 पैसे मूल्य का एक बटन चुराकर अपनी मां को दे दिया था, उसकी दोषसिद्धि को अखंडित करते हुए निर्णय प्रदान किया कि उसके मामले में कोई भी ऐसा निष्कर्ष नहीं निकल रहा है कि उसकी समाज इतने परिपक्व हो चुकी थी कि वह अपने कार्य की प्रकृति को समझ सकें।

    धारा 84

    भारतीय दंड संहिता की धारा 84 ऐसे व्यक्ति द्वारा किए गए काम को जो चित्त विकृत प्रकृति का है या जो वह कर रहा है वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल जानने में असमर्थ है कोई भी काम अपराध नहीं है।

    इस विधि के अंतर्गत धारा 84 के अनुसार पागल व्यक्तियों को दंड संहिता से मुक्ति दी गई है। अपने पागलपन से ही दंड मुक्ति पाता है। विधिशास्त्र के मूल सिद्धांत की किसी व्यक्ति को विधि की परिधि में लाने के लिए स्थापित किया जाना चाहिए कि वह व्यक्ति अपनी स्थिति से इतना सक्षम था कि वह विवेक आदि का निर्माण कर सकता था। पागल इसी कारण से मुक्त कर दिए गए हैं कि वह विवेक का निर्माण करने में सक्षम नहीं होते।

    अपराधी इच्छा की अनुपस्थिति में केवल समझ की परिपक्वता के अभाव के कारण होती है वरन् वह मस्तिष्क की एक विकृति स्थिति के कारण भी होती है चाहे वह स्थिति हो अथवा अस्थाई मस्तिष्क की यह विकृत स्थिति जिससे आप अधिक दायित्व से मुक्ति मिलती है।

    चिकित्सा तथा विधि के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखी जाती है, चिकित्सा दृष्टिकोण के अनुसार अपराध करते समय हर व्यक्ति पागल होता है उसे अपराध से मुक्ति मिलनी चाहिए परंतु व्यक्ति की मौत के बीच अंतर स्थापित करने में समर्थ होता है और इसी मापदंड को भागीदारी में भारतीय दंड संहिता की धारा 84 में समाविष्ट किया गया है। इस तरह विधिक तथा चिकित्सा दृष्टिकोण एक दूसरे से पूर्णता भिन्न है।

    पागलपन के रूप होते हैं पागलपन भी कई प्रकार होते हैं। पागल न केवल संकाय को प्रभावित करता है वर्णन वह मस्तिष्क के अन्य प्रकोष्ठ को भी प्रभावित करता है। विचार और इच्छा भी उससे प्रभावित होते हैं विधि के अंतर्गत पागलपन का तात्पर्य वह मानसिक स्थिति है जिसमें या तो विभ्रम विद्यमान होने के कारण अथवा कार्यवाही में लाए गए किसी मामले के संदर्भ में ठीक और गलत के बीच अंतर स्थापित कर सकने में असमर्थ होने के कारण कोई व्यक्तिगत दायित्व नहीं बनता है।

    दंड संहिता की धारा 84 के अंतर्गत चित्त विकृति को प्रतिरक्षा के तर्क के रूप में प्रस्तुत करने के लिए यह प्रतिस्थापित करना आवश्यक है कि अभियुक्त ने जिस समय आपराधिक कार्य किया था उस समय वह चित्त विकृति के कारण यह समझने में असमर्थ था कि उसके कार्य की प्रकृति क्या थी और क्या है।

    अभियुक्तों को धारा 86 के अंतर्गत चित्त विकृति का लाभ मिल सकता है। समय का वह बिंदु निर्णायक है जब अपराध घटित हुआ था यह तथ्य के अपराध करने के पहले अभियुक्त पागलपन के दौरे से ग्रस्त था और उसके बाद उस पर सब पागलपन का दौरा आया जब वह मजिस्ट्रेट की जांच विचारण के समय विचाराधीन कैदी के रूप में कारागार में रखा गया था।

    यह साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि अपराध करते समय भी वह पागल के दौर से गुजर रहा था धारा 86 के अंतर्गत अभियुक्त को चित्त विकृति का लाभ तभी मिल सकता है जब वह स्पष्ट यह साबित करे कि अपराध करते समय वह पागल था। चित्त विकृति साबित करने का भार अभियुक्त पर है परंतु यह भार उस भार से अधिक नहीं है जो किसी पक्षकार पर सिविल कार्यवाही में होता है।

    धारा 87

    भारतीय दंड संहिता की धारा 87 पट्टेबाजी करने पर सहमत होने के परिणाम पर कोई क्षति होने के कारण क्षतिकर्ता को अपराध से मुक्ति देती है अर्थात किसी खेलकूद में यदि किसी को कोई चोट आती है तो यहां पर धारा 87 के अंतर्गत उन्मुक्ति दी गई है। कोई व्यक्ति कोई खेल खेलने के लिए अपनी सहमति देता है तथा कोई विधि पूर्ण खेल खेला जा रहा है उचित सावधानी के साथ और वहां पर कोई घटना घट जाती है तो वह घटना अपराध नहीं मानी जाएगी।

    जैसे कि क्रिकेट का खेल खेला जा रहा था और बल्लेबाज ने छक्का लगाने के लिए बल्ले को घुमाया और गेंद बल्ले पर आई तथा गेंद उड़कर एक खिलाड़ी के माथे पर लग गई तथा गेंद माथे पर लगने से खिलाड़ी की मौके पर ही मृत्यु हो गई। अब यहां पर बल्लेबाज किसी अपराध का दोषी नहीं है क्योंकि उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 8 के अंतर्गत मुक्ति प्रदान की गई। खेल पूरी सावधानी के साथ खेला जा रहा था जो नियम थे उसी के अनुसार खेला जा रहा था खेल के भीतर कोई दो राय नहीं था मारने का आशय नहीं था। खेल के उद्देश्य से ही खेला जा रहा था और वहां पर मृत्यु कारित हो जाती है तो इस स्थिति में भारत भारतीय दंड संहिता की धारा 86 उसे मुक्ति देती है। धारा 312 के अंतर्गत इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी गर्भवती स्त्री की सम्मति से उसका गर्भपात कारित करता है तो उसके दंड का परिसीमन हो जाता है।

    यदि सम्मति ऐसे किसी कार्य को करने के लिए प्राप्त की जाती है जिसकी प्राकृति खतरनाक है और उस कार्य के परिणामस्वरूप सहमति देने वाले की मृत्यु हो जाती है जो आशय नहीं था अथवा उसके घटित होने का ज्ञान अभियुक्त को नहीं था तो विधि ऐसे व्यक्ति के साक्ष्य परिशिमित दंड की व्यवस्था करती है।

    उदाहरण के लिए प्रदर्शन आक्रामक खेल में क दूसरे व्यक्ति ख के सिर पर रखे गए नींबू पर लक्ष्य लेकर गोली चलाता है जिसके परिणामस्वरूप ख की मृत्यु हो जाती है। ऐसी स्थिति में अभियुक्त हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानववध के लिए दंडनीय है।

    इसी प्रकार भारतीय विधि के अंतर्गत आत्महत्या के समझौते में उत्तरजीवी व्यक्ति हत्या की कोटि में न आने वाले अपराधिक मानव वध के लिए दंडनीय है।

    परंतु कुछ कार्य अथवा खेल जो विधि द्वारा वर्जित है किसी की सहमति लेकर करने अथवा खेलने पर यदि किसी पक्षकार को कोई उपहति होती है तो उसे धारा 87 के अंतर्गत संरक्षण नहीं मिल सकती।

    जैसे सांड पाड़ो को लड़वाना। आपसी सहमति से इनमें से लिप्त होना और किसी पक्षकार को अपहानि पहुंचाना क्षम्य नहीं है। इसी प्रकार दूसरे की करुणा अथवा दया प्राप्त करने के लिए किसी की सहमति से अंग भंग करना, सैनिक सेवा से भी मुक्ति के लिए ऐसा करना आपराधिक दायित्व से छुटकारा पाने के लिए पर्याप्त नहीं है। धारा 87 के अंतर्गत संरक्षण नहीं दिया जाएगा।

    धारा 88

    भारतीय दंड संहिता की धारा चिकित्सक को संरक्षण प्रदान कर रही है। इस धारा का जो चिकित्सक का दृष्टांत दिया गया है उसके अनुसार एक चिकित्सक यदि किसी का ऑपरेशन करता है तथा ऑपरेशन के दौरान उसकी मृत्यु हो जाती है ऑपरेशन उचित सावधानियों के साथ किया जा रहा था तथा रजिस्टर डॉक्टर द्वारा किया जा रहा था तो यहां पर डॉक्टर द्वारा कोई अपराध कारित नहीं किया गया है क्योंकि वह सदभावनापूर्वक कार्य कर रहा था, जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उसके लाभ के लिए कार्य कर रहा था।

    यह तथ्य की एक व्यक्ति सदभावनापूर्वक और दूसरे के फायदे के लिए कोई कार्य करता है उसको वह कार्य बलपूर्वक करने का अधिकार नहीं प्रदान कर देता चाहे भले ही वह व्यक्ति जिसके फायदे के लिए कार्य किया जाने वाला है एक मूर्ख व्यक्ति है और अपने फायदे के कार्य को जिसे दूसरा व्यक्ति उसके साथ करना चाहता है।

    अभिव्यक्त न होकर विवक्षित परिणाम बहुत बड़ी हो सकती है वह मृत्यु तक भी हो सकती है परंतु ऐसी हानि तभी माफी योग्य है जब वह आशय से न हो। इसी प्रकार देखा जा सकता है कि विधि उस व्यक्ति के साथ अधिक उदारता का बर्ताव करती है जो दूसरे के फायदे के लिए कार्य करता है।

    धारा 88 के आवश्यक तत्व

    धारा 88 के अंतर्गत किसी व्यक्ति को क्षमा नहीं प्रदान की जा सकती यदि उसने आशय मृत्यु कारित की है। कार्य जिससे मृत्यु कारित हुई है सदभावनापूर्वक न किया गया हो यदि अभियुक्त का कार्य किसी भी रूप में निंदनीय नहीं है तो वह किसी कार्य के लिए जिनमें मृत्यु भी सम्मिलित है दोषी नहीं है। चाहे भले ही उसे ज्ञात हो कि मृत्यु संभाव्यता हो सकती है। वह चाहे भले ही उसनेे किसी ऐसी हानि को कारित किया हो जिससे वह जानता हो कि मृत्यु कारित हो सकती है।

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