भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 4 : जानिए क्या होता है सामान्य आशय ?

Shadab Salim

6 Dec 2020 6:45 AM GMT

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 4 : जानिए क्या होता है सामान्य आशय ?

    पिछले आलेख में भारतीय दंड संहिता के अध्याय 2 साधारण स्पष्टीकरण के अंतर्गत संहिता के भीतर बताए गए कुछ विशेष शब्दों का उल्लेख किया गया है। इस आलेख में अध्याय 2 के ही एक महत्वपूर्ण विषय सामान्य आशय पर टिप्पणी की जा रही है।

    सामान्य आशय ( Common Intention)

    भारतीय दंड संहिता की धारा 34 सामान्य आशय का उल्लेख कर रही है। अनेक अपराध तत्कालिक रूप से नहीं होते हैं अपितु पूर्व योजना के अनुसार किए जाते हैं तथा उन अपराधों में अनेक लोग भी शामिल होते हैं।

    सभी लोगों का उस अपराध को करने में कुछ न कुछ योगदान तो होता है। आपराधिक विधि में सामान आशय का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्य आशय के बगैर आपराधिक विधि की कल्पना की जाना कठिन है क्योंकि ऐसे अपराध जो बहुत सारे व्यक्तियों द्वारा मिलकर किए जाते हैं उन अपराधों के अंतर्गत अपराधियों को दंडित किया जाना दूभर हो जाता है। सामान्य आशय ऐसे अपराधियों को दंडित करने में सहायता करता है जो सब मिलकर किसी एक कार्य को करते हैं।

    जैसे कि क्रिकेट के खेल में 11 खिलाड़ी मैदान में खिलते हैं तथा इन सभी खिलाड़ियों का आशय सामान्य होता है। कोई भी खिलाड़ी उस आशय के विपरीत नहीं जाता है, सभी खिलाड़ियों का केवल एक ही आशय होता है विरोधी टीम को हरा दिया जाना। हर एक खिलाड़ी अपना अपना योगदान विरोधी टीम को हरा देने हेतु ही देता है। कोई खिलाड़ी गेंदबाजी करता है तथा कोई खिलाड़ी बल्लेबाजी करता है कोई खिलाड़ी रनों की गति को रोकता है तथा कोई खिलाड़ी विकेट कीपिंग करता है। विरोधी टीम को हरा देने में क्रिकेट का खेल खेल रहे सभी खिलाड़ियों का आशय सामान्य होता है। कोई भी खिलाड़ी इस उद्देश्य से नहीं खेलता है कि विरोधी टीम जीत जाए अर्थात हर एक खिलाड़ी अपनी टीम को जिताने के उद्देश्य से खेलता है।

    यही सामान्य आशय कहलाता है। सामान्य आशय को आपराधिक दंड विधि में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है क्योंकि हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार जिसे अनेक अपराध है जो एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा पूर्व में योजना बनाकर कार्य किए जाते हैं तथा कभी कभी तात्कालिक रूप से भी यह अपराध हो जातें है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 34 ऐसे ही सामान्य का उल्लेख कर रही है जिसके अनुसार-

    'जबकि कोई आपराधिक कार्य कई व्यक्तियों द्वारा अपने सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया जाता है तब इसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति उस कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्व के अधीन हैं मानो व कार्य अकेले उसी ने किया हो।'

    भारतीय दंड संहिता की धारा 34 अत्यंत व्यापक रूप से सामान आशय की परिभाषा को स्पष्ट कर रही है। इस धारा के अनुसार सामान्य आशय कोई अपराध नहीं है अर्थात यह कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसमें सजा का भी उल्लेख हो जिसमें दंड का भी कोई प्रावधान हो धारा 34 का उपयोग अन्य अपराधों के साथ में किया जाता है। जैसे 1 से अधिक व्यक्तियों ने मिलकर कोई हत्या का अपराध कारित किया है इस स्थिति में धारा 34 की भी सहायता ली जाएगी धारा 302 का अपराध बनेगा और उसके साथ में धारा 34 भी बनेगी क्योंकि एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा साथ मिलकर सामान आशय के साथ हत्या की गई है।

    पूर्व योजना के अनुसरण में कार्य करना सामान्य आशय होता है। यह सिद्ध करना आवश्यक है कि योजना के अनुसार इनमें कोई न कोई अवैध कार्य अवश्य किया गया है। सामान्य आशय की दृष्टि से अपराध के संपादन के पूर्व ही उत्पन्न होता है अर्थात अपराध होने के पूर्व ही आशय का जन्म हो जाता है तथा वही आशय सभी अपराधियों को एक साथ लेकर आता है। किसी व्यक्ति में सामान्य आशय का जन्म घटनास्थल पर भी हो सकता है। सामान्य आशय को सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्ष साक्ष्य प्राप्त करना थोड़ा कठिन होता है, इसे परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर सिद्ध करना होता है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 34 का मुख्य उद्देश्य ऐसे मामलों को हल करना है जिसमें यह सिद्ध किया जाना कठिन हो कि सामान्य आशय है। अग्रसर किसी समूह के प्रत्येक व्यक्ति ने आपराधिक कार्य का कितना भाग कार्य किया है यह केवल एक साक्ष्य का नियम है, वह स्वयं किसी साबुत अपराध का सर्जन नहीं करता। इसका अर्थ है यदि दो या अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से सामान्य आशय से कोई कार्य करते हैं तो ऐसा ही है जैसा कि यदि कोई एक व्यक्ति करता तो होता।

    सामान्य आशय के लिए आवश्यक बातें-

    भारतीय दंड संहिता की धारा 34 का अध्ययन करने के उपरांत सामान्य आशय से संबंधित कुछ विशेष बातों का ज्ञान होता है।

    सामान्य आशय के होने के लिए-

    दो व्यक्तियों के बीच किसी पूर्व योजना के अनुसार सामान्य आशय उपस्थित होना।

    सामान्य आशय के अग्रसर में कोई अपराध गठित किया जाएगा और अपराध घटित करने वाले कार्य में व्यक्ति का योगदान भी होना चाहिए।

    जब कोई अपराध किया जाता है और एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किया जाता है उस अपराध को करने में सभी व्यक्तियों का आशय सामान्य आशय होता है।

    अब ऐसी स्थिति में कहा जाएगा कि सामान्य आशय के अंतर्गत अपराध किया गया है। धर्मपाल और अन्य बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में सामान्य आशय प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अपराधी के साथ रहने मात्र से सामान्य आशय का आधार नहीं है, इसमें योजना पूर्व से होना चाहिए तथा अपराध में अपराधियों का योगदान भी होना चाहिए।

    घनश्याम और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश एआईआर 1983 एससी 293 के प्रकरण में यह कहा गया है कि अभियुक्त के साथ घटना स्थल पर उपस्थित होने मात्र से किसी व्यक्ति को सामान्य आशय के अंतर्गत दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जहां अचानक कोई घटना घटी हो और उसके लिए अपीलार्थी एक 15 वर्षीय बालक का पिता व भाई जिम्मेदार हो वहां उस 15 वर्षीय बालक को मात्र इसलिए अभियुक्त नहीं माना जा सकता क्योंकि वह उसके साथ होने में सामान्य आशय से था।

    धारा 34 के प्रवर्तन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक अभियुक्त द्वारा मृतक पर अवश्य ही हमला किया गया हो। इस निमित्त यह दर्शित कर देना पर्याप्त है कि अभियुक्त व्यक्तियों द्वारा प्राप्त करने के सामान्य आशय में भागीदारी की गई और उसको अग्रसर करने में प्रत्येक अभियुक्त द्वारा पृथक कार्यों के माध्यम से अपनी नियत भूमिका का निर्वहन किया गया।

    इस तरह जहां अपीलार्थी बी द्वारा अभियोजन साक्षी पीडब्ल्यू को मृतक इसको बचाने से निवारित किया गया हो वह धारा 34 की मदद से उसकी दोषसिद्धि को ठीक नहीं माना गया।

    सामान्य आशय के आत्मनिष्ठ तत्व का उद्देश्यपरक अनुचिंतन अपराध के अनुक्रम में किए गए अभियुक्त के आचरण से किया जा सकता है और अन्य लोगों के साथ अपराध कार्य में भाग लेना ही पर्याप्त नहीं है। सामान आशय का जन्म और उसका विकास झटपट तत्काल हो सकता है।

    सामान्य आशय का तात्पर्य पूर्व व्यवस्थित योजना उस योजना के अनुसार मिलकर कार्य करना है, यद्यपि इस आशय का विकास घटनास्थल पर भी हो सकता है परंतु उसे अपराध की जाने के समय बिंदु पूर्व का होना चाहिए। सामान आशय का अनुमान अभियुक्त के कार्य आश्रम से तथा मामले की अन्य सुसंगत परिस्थितियों से किया जाना चाहिए। वह परिस्थितियों की क्षमता पर ध्यान देना चाहिए अब तक के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि सामान्य आशय को सिद्ध करना कठिन आवश्यक है परंतु साक्षी यदि परिस्थितिजन्य उपलब्ध है तो ऐसी स्थिति में सामान्य आशय साबित किया जा सकता है।

    कोई कार्य सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया गया है अथवा नहीं यह निर्भर करता है कि सामान्य आशय और कार्य की प्रकृति क्या है। यह प्रश्न तथ्य का है की विधि का नहीं। धारा 34 में उल्लेखित सामान्य आशय एक तथ्य का प्रश्न है और उसका अनुसंधान तथ्यों और परिस्थितियों से किया जा सकता है।

    राणा प्रताप बनाम हरियाणा राज्य 1983 एसएससी 327 के प्रकरण में कहा गया है कि जहां तक की उपस्थिति उसे सह अभियुक्त का हत्या करने का सामान्य आशय साबित नहीं होता वहां उसे धारा 34/302 के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता परंतु यदि पूर्व कार्य करने के सामान्य आशय के रूप में साबित हो जाता है तो उसे धारा 34/326 के अधीन दोष सिद्ध किया जा सकता है।

    वीरेंद्र कुमार घोष बनाम सम्राट 1930 के पुराने प्रकरण में अपीलकर्ता पर दंड संहिता की धारा 302/34 के अंतर्गत एक पोस्टमास्टर की हत्या का आरोप लगाया गया था। 3 अगस्त 1923 ईस्वी को कोलकाता नगर के सकरी टोला पोस्ट ऑफिस का सब पोस्टमास्टर पिछवाड़े के कमरे में अपने टेबल पर पैसे गिन रहा था कि बहुत सारे व्यक्ति आंगन की ओर से खुलने वाले दरवाजे में प्रवेश करके उसके पास आ गए और उससे उन पैसों को दे देने को कहा। इसी के ठीक बाद उस पर गोली चला दी गई, पोस्टमास्टर को दो स्थानों पर गोली लगी हो उसकी वहीं मृत्यु हो गई।

    आक्रमणकारी बिना पैसे लिए अलग-अलग भाग गए। वीरेंद्र कुमार घोष को पोस्ट ऑफिस के सहायकों ने पीछा करके पकड़ लिया। उसके हाथ में पिस्तौल भी पाई गई। हत्या अपराध के लिए उसका विचारण किया गया। उसका कथन था कि वह बाहर खड़ा था उसने मृतक पर गोली नहीं चलाई थी तथा उसे बाध्य किया गया था कि वह लूट के लिए दूसरों के साथ संयुक्त हो। उसने यह भी स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि पोस्टमास्टर को मारने का उसका कोई आशय था।

    विचारण न्यायाधीश ने जूरी को निर्देश दिया कि यदि वह उस तथ्य पर संतुष्ट हो जाए की पोस्ट मास्टर की हत्या सब के सामान्य आशय को अग्रसर करने में की गई थी तो सभी हत्या के लिए उत्तरदायी हैं चाहे भले ही उसने मृत्यु कार्य करने वाली गोली चलाई हो अथवा नहीं।

    कलकत्ता उच्च न्यायालय तथा प्रिवी कौंसिल द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि विरेंद्र कुमार पोस्टमास्टर की हत्या के लिए उत्तरदायी है। प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति की ओर से निर्णय प्रदान करते हुए लॉर्ड समनर में विचार व्यक्त किया था- चाहे भले ही अपीलकर्ता ने कुछ भी न किया हो क्योंकि वह बाहर खड़ा हुआ था फिर भी यह याद रखना चाहिए कि अपराध में भी जैसा कि अन्य बातों में होता है वह भी व्यक्ति सेवक है जो केवल खड़े रहते हैं वह प्रतीक्षा करते हैं।

    दंड संहिता की धारा 34 के अंतर्गत दायित्व का सार सामान्य आशय की मौजूदगी में पाया जाता है जो अभियुक्त को ऐसे आशय को अग्रसर करने में आपराधिक कार्य के लिए प्रेरित करता है। धारा 34 की सफलतापूर्वक सहायता पाने के लिए यह अवश्य प्रकट किया जाना चाहिए कि आपराधिक कार्य जिस के विपरीत परिवाद किया गया है अभियुक्तों में से किसी एक द्वारा अपने सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया गया है, यदि ऐसा प्रतिस्थापित हो जाता है तो उनमें से हर व्यक्ति पर आपराधिक दायित्व उसी प्रकार आरोपित किया जाएगा मानो वह कार्य उसी ने किया है।

    बिशनदयाल बनाम दिल्ली राज्य एआईआर 1992 एससी 504 के मामले में राजमार्ग पर लूट हत्या का अपराध कारित किया गया था। विचारण न्यायालय द्वारा धारा 302/149 के अधीन 5 व्यक्तियों को दोष सिद्ध किया था परंतु उच्च न्यायालय द्वारा उनमें से एक को दोष मुक्त कर दिया गया और शेष चार को धारा 302/34 और 394 के अधीन दोषसिद्ध किया गया।

    मृतक की बाई भुजा के ऊपरी पार्श्व भाग में जो चोट पाई गई थी वह मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त पाई गई। इन चारों में से किस अभियुक्त ने यह चोट कारित की थी ज्ञात नहीं हो सका। चाकू की चोट खाने के बाद मृतक उस स्थान से लगभग 116 कदम चलकर गया था।

    उच्च न्यायालय का यह दृष्टिकोण था कि किसी भी साक्षी को मृतक को लगी क्षति के प्राणघातक होने की आशंका नहीं थी क्योंकि मृतक चल सकने की स्थिति में था। इन परिस्थितियों और क्षति की प्रकृति के दृष्टिकोण से उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि उच्च न्यायालय द्वारा यह दृष्टिकोण अपनाने में गलती की गई कि अभियुक्तों का सामान्य आशय मृतक की मृत्यु करना था ताकि मामले को धारा 34 के अधीन लाया जा सकें। धारा 302/34 के अधीन की गई दोषसिद्धि को निरस्त कर दिया गया और अभियुक्तों को धारा 394 में दोषी करार दिया गया।

    वैजयंती बनाम महाराष्ट्र राज्य 2005 एसएससी 134 के प्रकरण में अपीलकर्ता द्वारा घटनास्थल पर उत्साहवर्धन किया गया था और उसके द्वारा कोई भी अन्य विकृत कार्य नहीं किया गया था। उसके पास कोई हथियार भी नहीं था वह घटनास्थल पर तब पहुंची थी जब अन्य अभियुक्त वहां पहुंच चुके थे और मृतक पर हमला कर रहे थे।

    अपीलकर्ता की वास्तविक भूमिका और उन तथ्यों तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जिसमें विवाद उत्पन्न हुआ था जिसमें मृतक के भाई द्वारा अपीलकर्ता की बहन की बेटी का शीलहरण किया गया था यह अभिनीत किया गया कि यह निष्कर्ष निकालना कठिन है कि अपीलकर्ता प्रश्नगत हत्या की एक पक्षकार थी।

    उच्च न्यायालय द्वारा सामान्य आशय में भागीदारी से संबंधित जो निष्कर्ष इस आधार पर निकाला गया था कि अपीलकर्ता द्वारा उत्साहवर्धन किया गया, उसके द्वारा मृतक को खोजा गया उसके द्वारा अन्य अभियुक्तों को अपराध करने से निवारित नहीं किया गया। सामान्य आशय का विकास उत्तेजना के क्षण में हुआ था वह तथ्यों के आधार पर उचित नहीं था। धारा 34 के अधीन अभियुक्त की सहभागिता का विनिश्चय तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए।

    परमजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य 2005 एसएससी 143 के प्रकरण में अपीलकर्ता के पास कोई हथियार नहीं था जबकि मुख्य अभियुक्त ए के पास अमृतधारी सिख की परंपरा के अनुसार एक कृपाण था। यह अभिनिश्चय किया गया कि अपीलकर्ता ने ए को उत्साहित करते हुए कहां की 'मृतक जाने न पाए'

    उसके तत्काल बाद इन्हें ए ने अपनी कृपाण निकाल ली थी वह मृतक के सीने और बाईं भुजा में क्षति अधिरोपित की थी जिसके परिणामस्वरूप मृतक की मृत्यु हो गई थी।

    अपीलकर्ता द्वारा किए गए अभिकथित उत्साहवर्धन और का की कृत्य के बीच कोई संबंध स्थापित नहीं हो सका था। मृत्यु कारित करने के किसी सम उत्साह या ऐसे किसी कृत्य के अभाव में जो अपीलकर्ता को आरोपी हो और जो संभव रूप से ऐसे अभियुक्त अनुमान की ओर उन्मुख हो की अपीलकर्ता है कि यह प्रबल इच्छा थी कि ए मृतक पर ऐसा घातक प्रहार करें कि उसे उसकी मृत्यु हो जाए। यह निर्धारित किया गया है कि अपीलकर्ता धारा 302/34 के अधीन दोषसिद्धि का दायीं नहीं था उसके बदले उसे धारा 324/109 के अधीन दोषी को 30 माह के कारावास और ₹5000 के जुर्माने से दंडित किया गया।

    सामान आशय के मामलों में कभी-कभी यह होता है की एक को दोषसिद्धि तथा अन्य को दोषमुक्ति मिल जाती है। न्यायालय किन्हीं लोगों को सामान्य आशय के अंतर्गत मान लेता है तथा किन्हीं लोगों को सामान्य आशय से परे मान लेता है। धारा 34 के प्रवर्तन के संबंध में एक विधिक प्रश्न यह उठता है कि क्या इस धारा के अंतर्गत विचार इन अभियुक्तों में से कुछ को दोष मुक्ति मिल जाने पर शेष को दोषसिद्ध किया जा सकता है।

    उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न का उत्तर प्रभु बाबाजी नावले बनाम बॉम्बे एआईआर 1956 एससी 51 के प्रकरण में दिया है। एक व्यक्ति पर धारा 302/34 के अंतर्गत अन्य नाम के व्यक्तियों के सामान्य आशय पर भागीदार बनने और अपराध कारित करने के लिए अभियोग लगाया गया था।

    अन्य व्यक्तियों को अभियोग से दोषसिद्धि मिल जाने पर उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जब तक यह साबित न हो जाए कि उसके वास्तविक हत्यारों के सामान्य आशय में भाग लिया है उसे धारा 34 के अंतर्गत नहीं किया जा सकता। हर स्थिति में या तो प्रत्यक्ष साक्ष्य अथवा सामान्य निष्कर्ष द्वारा यह साबित होना चाहिए कि उस व्यक्ति ने अन्य अपराध करने के सामान्य आशय को अग्रसर करने में कोई योगदान दिया है।

    जे एम देसाई बनाम मुंबई एआईआर 1960 एससी 889 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने इस संदर्भ में धारा 34 के प्रवर्तन के लिए तीन तत्वों की आवश्यकता बतलाई है-

    पहली एक से अधिक व्यक्ति। दूसरी सभी का सामान्य आशय। तीसरी ऐसे समस्त व्यक्तियों द्वारा अपने सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने में भाग लेना।

    इस प्रकार का भाग लेना शारीरिक रूप से ही उपस्थित होना आवश्यक नहीं है अर्थात कोई व्यक्ति घटनास्थल से दूर होकर भी किसी अपराध में भाग ले सकत।

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