भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 25: भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत चोरी का अपराध क्या होता है

Shadab Salim

31 Dec 2020 7:19 AM GMT

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 25: भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत चोरी का अपराध क्या होता है

    भारतीय दंड संहिता सीरीज के अंतर्गत लिखे जा रहे आलेखों में पिछले आलेख में दास बनाने और मनुष्य को खरीदने बेचने के संदर्भ में उल्लेखित अपराधों पर चर्चा की गई थी, इस आलेख में चोरी के अपराध के संदर्भ में उल्लेख किया जा रहा है।

    चोरी प्राचीन समय से चलता आ रहा एक प्रसिद्ध अपराध है। हर समाज हर परिस्थिति में यह अपराध घटित होता रहा है। वर्तमान में भी यह अपराध चारों ओर देखने को मिलता है।

    भारतीय दंड संहिता भारत की सीमा में केवल व्यक्तियों के शरीर की ही रक्षा हेतु दंड विधान का निर्माण नहीं करती है अपितु यह दंड संहिता व्यक्तियों के संपत्ति की रक्षा का भी प्रबंध करती है। मनुष्य अपने साथ कुछ संपत्तियों को लेकर चलता है जिससे अर्थव्यवस्था में उसका जीवन यापन हो सके। राज्य का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने अधीन रहने वाले व्यक्तियों की संपत्ति की सुरक्षा करें। संपत्ति की सुरक्षा के उद्देश्य से भारतीय दंड संहिता के अध्याय 17 के अंतर्गत संपत्ति से जुड़े हुए अपराधों के संबंध में उल्लेख किया गया है। इन अपराधों में सर्वप्रथम अपराध चोरी होता है।

    भारतीय दंड संहिता की 5 धाराओं के अंतर्गत चोरी पर स्पष्ट प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों का उल्लेख तथा चोरी की परिभाषा और उसके लिए दंड के निर्धारण के संबंध में चर्चा इस आलेख में की जा रही है।

    चोरी (धारा-378)

    भारतीय दंड संहिता की धारा 378 चोरी के अपराध की परिभाषा प्रस्तुत करती है। इस धारा के अंतर्गत चोरी की अत्यंत विस्तृत परिभाषा प्रस्तुत की गई है तथा इसी धारा के अंतर्गत कुछ दृष्टांत को भी प्रस्तुत किया गया है जिनके माध्यम से चोरी के अपराध का निर्धारण होता है। धारा 378 के अंतर्गत चोरी के अपराध की जो परिभाषा दी गई है उसके अधीन चोरी के कुछ तत्व गठित होते हैं, वह तत्व निम्न तत्व है-

    1)- संपत्ति को बेईमानी से लेने का आशय।

    2)- चल संपत्ति।

    3)- कोई किसी प्रकार की चल संपत्ति जो दूसरे के कब्जे में है तथा उसे लिया जाए

    4)- संपत्ति को ऐसे व्यक्ति की सहमति के बिना लिया जाए

    5)- संपत्ति को लेने के लिए उसे हटाया जाए

    संपत्ति को बेईमानी से लेने का आशय-

    भारतीय दंड संहिता की धारा 378 का अध्ययन करने के पश्चात यह बात मालूम होती है कि चोरी के अपराध के लिए सर्वप्रथम तत्व संपत्ति को बेईमानी से लेने का आशय होता है। चोरी का अपराध गठित करने के लिए उसे बेईमानी से लेने का आशय आवश्यक है। यदि आवश्यक आशय किसी संपत्ति को बेईमानी से लेने का नहीं है तो वहां चोरी का अपराध घटित नहीं होता है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 24 बेईमानी शब्द को परिभाषित करती है। जिसके अंतर्गत जो कोई इस आशय से कोई कार्य करता है कि एक व्यक्ति को सदोष अभिलाभ कारित करें या अन्य व्यक्ति को सदोष हानि कारित करें वह उस कार्य को बेईमानी से करता है।

    चोरी के अपराध में संपत्ति इस आशय से ली जाती है उसमें किसी को सदोष अभिलाभ हो और किसी अन्य को सदोष हानि। इस आशय के अभाव में चोरी का अपराध घटित नहीं होता है। वह वस्तुओं की सही प्रकृति के संदर्भ में यह सदैव संभव नहीं है कि किसी प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा बेमानीपूर्ण आशय को साबित किया जा सके। इसे कोई ऐसी परिस्थितियों द्वारा साबित किया जा सकता है जिन से कोई युक्तियुक्त अनुमान निकाला जा सकता है।

    एक प्रकरण में अभियुक्त के खेत की फसल उसकी उपज को कुछ जानवरों द्वारा नुकसान पहुंचाया जा रहा था। अभियुक्त जानवरों को यह प्रदर्शित करते हुए हांक कहा था कि जैसे वह उन्हें किसी जानवरों के निवास की ओर ले कर जा रहा है। इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पशुओं को काँजी हाउस की ओर ले जाना चोरी का कार्य नहीं था क्योंकि उसका आशय बेमानी से परिपूर्ण नहीं था।

    एक अन्य प्रकरण में एक संभ्रांत व्यक्ति ने जिस की साईकिल खो गई थी दूसरे की साईकिल को भ्रम वश अपनी साईकिल समझ उठा लिया था और उसे उसे उठाकर घर ले आया। न्यायालय ने कहा कि उसने चोरी नहीं की क्योंकि उसका कृत्य अपराधिक आशय से युक्त नहीं था और न ही उसके कृत्य से कोई सदोष लाभ होने वाला था।

    चोरी के प्रकरण में संपत्ति को बेईमानी से लेने का आशय उस समय अवश्य होना चाहिए जब संपत्ति को हटाया जाए। संपत्ति का बेमानी से लिया जाना इस प्रकार जहां किसी लोक अधिकारी द्वारा परिवादी के धान की आवश्यक लेवी लेने के आशय से उसकी सहमति के बिना ही ले लिया जाता है वैसे अभियुक्त को धारा 379 के अधीन दंडनीय अपराध का दोषी नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें भी आशय बेईमानी पूर्वक नहीं था। हर चोरी के अपराध के लिए सर्वप्रथम तत्व बेईमानी से किसी संपत्ति को लेना है।

    केन मेहरा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान एआईआर 1957 उच्चतम न्यायालय 369 के प्रकरण में अभियुक्त ने भारतीय वायु सेना के एक जहाज को अनाधिकृत रूप से उड़ान भरने के लिए ले लिया था। उच्चतम न्यायालय ने उसे चोरी का अपराधी घोषित किया था। यदि कोई व्यक्ति किसी संपत्ति को अस्थाई रूप से किसी के कब्जे से लेता है चाहे भले ही उस संपत्ति को बाद में लौटा देने का आशय हो वह चोरी का दोषी माना जाएगा।

    कुछ ऐसा ही प्रकरण प्यारेलाल एआईआर 1963 उच्चतम न्यायालय 1094 का भी है। इस प्रकरण में अभियुक्त एक सरकारी कर्मचारी था उसने अपने कार्यालय से एक फाइल हटा ली और उसे एक बाहरी व्यक्ति को उपलब्ध करा दी। 2 दिनों के बाद पुनः कार्यालय में फाइल को जमा कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि वह चोरी का अपराधी है।

    के ए मथाई बनाम कोरा बिब्बी कुट्टी के प्रकरण में अभियुक्त संख्या दो द्वारा एक भाड़ा क्रय करार के अंतर्गत बस खरीदी गई थी। बाद में वह बस परिवादी को बेच दी गई। परिवादी ने वित्त व्यवस्थाक को बस की किस्तों के भुगतान में आनाकानी करना प्रारंभ कर दिया और अंत में उस व्यवस्थापक ने अभियुक्त एक तथा अभियुक्त दो की मदद से उस बस को अपने कब्जे में ले लिया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि दुराशय और बेमानीपूर्ण आशय के अभाव में चोरी का अपराध नहीं बनता।

    चल संपत्ति

    चोरी के अपराध के लिए दूसरी प्रमुख शर्त तथा उसका दूसरा महत्वपूर्ण तत्व चल संपत्ति होना है। चोरी का अपराध केवल चल संपत्ति के अंतर्गत ही घटित हो सकता है। किसी भी स्थाई स्थावर संपत्ति के संबंध में चोरी नहीं की जा सकती है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 378 के प्रथम और दूसरा स्पष्टीकरण या स्पष्ट करते हैं कि जब तक कोई वस्तु धरती से जुड़ी हुई रहती है तब तक वह संपत्ति जंगम संपत्ति नहीं होती है।

    जैसे कि कोई फसल यदि धरती से जुड़ी हुई है तो वह जंगम संपत्ति नहीं है परंतु कोई संपत्ति धरती से अलग हो गई है फिर वह जंगम संपत्ति हो जाएगी। इसी प्रकार प्रथक से की गई इस प्रकार की संपत्ति को हटाना चोरी करना है। मिट्टी पत्थर नमक मीटर द्वारा नियंत्रित गैस जहां जंगम संपत्ति माने गए हैं वहीं विद्युत जंगम संपत्ति नहीं मानी गई है।

    अवतार सिंह एआईआर 1965 उच्चतम न्यायालय 666 के प्रकरण में न्यायालय द्वारा कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता के अधीन विद्युत चुकी जंगम संपत्ति नहीं है इसलिए बेईमानीपूर्ण आशय से इसका अपकर्षण चोरी का अपराध नहीं है, विद्युत चूंकि तारों के द्वारा प्रभावित होती है और तार को काटकर विद्युत को उसके साथ अलग नहीं किया जा सकता। अतः संहिता के अधीन इसका अपकर्षण चोरी नहीं है।

    यदि इस प्रकार तार को काटकर बिजली काबू किया जा रहा है बिजली का उपभोग किया जा रहा है तो इस हेतु विद्युत अधिनियम के अंतर्गत मामला संस्थित किया जा सकता है न कि भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत चोरी का अपराध संस्थित किया जाएगा। जल आपूर्ति विभाग द्वारा मीटर के माध्यम से पूरित किया गया जल चोरी का विषय है परंतु किसी नहर का बहता हुआ जल चोरी का विषय नहीं है।

    किसी देव मूर्ति को अर्पित और दूर-दूर तक विचरण के लिए छोड़ा गया सांड लावारिस माल माना जाता है परंतु यह उस देवालय के न्यास की जंगम संपत्ति है इसलिए चोरी किए जाने का विषय है। किसी धार्मिक रोड़ी के अंतर्गत छोड़ा गया सांड किसी न्यास की संपत्ति नहीं होता है अथवा वह चोरी का विषय नहीं है।

    मानव शरीर चाहे जीवित हो या मरा हुआ संपत्ति नहीं है परंतु अजायबघर अथवा वैज्ञानिक संस्थान में अनुरक्षित मानव शरीर उसका कोई भाग कोई पुरातन शव जंगम संपत्ति की कोटि में आता है और उसकी चोरी हो सकती है। इस बात का उल्लेख रामाधीन के प्रकरण में 1902 में किया गया है, जहां एक वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए रखे गए शव को चुराया गया था। जीवित मनुष्य की चोरी भारतीय दंड संहिता की अन्य धाराओं के अंतर्गत होती है जिसे व्यपहरण कहा जाता है।

    संपत्ति को किसी व्यक्ति के कब्जे से लिया जाए

    चोरी के अपराध के गठन के लिए तीसरा आवश्यक तत्व संपत्ति को किसी दूसरे के कब्जे से लिया जाना है। इस तरह चोरी के अपराध के लिए यह आवश्यक है कि संपत्ति किसी ऐसे व्यक्ति के कब्जे में हो जो अभियुक्त नहीं है और यदि ऐसा नहीं है तो चोरी का प्रश्न ही नहीं उठता है।

    जंगली पशु खुले आसमान में उड़ते पक्षी अथवा नदी या नहर में विचरण करती मछलियों की चोरी नहीं की जा सकती क्योंकि इस प्रकार के जीव किसी भी कब्जे में नहीं होते हैं परंतु कोई पालतू पशु की चोरी की जा सकती है जैसे कि कोई कुत्ता चोरी किया जा सकता है जो पालतू है क्योंकि इस प्रकार का पालतू कुत्ता किसी व्यक्ति के कब्जे में होता है। बेमानीपूर्ण आशय से ली गई संपत्ति यदि किसी मरे हुए व्यक्ति की है और किसी कब्ज़े में नहीं है तो ऐसी संपत्ति चोरी की संपत्ति न होकर आपराधिक दुर्विनियोग की संपत्ति हो सकती है। संपत्ति का कोई मालिक होना चाहिए तथा वह किसी के कब्जे में होना चाहिए। लावारिस संपत्तियों की चोरी नहीं होती है।

    दंड संहिता के प्रारूपकारो ने इसी संदर्भ में यह अभिमत व्यक्त किया कि हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि किसी शब्द के माध्यम से चाहे वह शब्द कितना ही संक्षिप्त क्यों न हो उन परिस्थितियों को इंगित नहीं किया जा सकता जो अधिपत्य कब्जे की संरचना करती है, ऐसे बहुत से मामले हो सकते हैं जिनमें निश्चिता के साथ यह कहना कठिन होता है कि कोई संपत्ति किसी व्यक्ति के कब्जे में है अथवा नहीं।

    किसी संपत्ति को तभी तक किसी दूसरे व्यक्ति के कब्जे में माना जा सकता है जब वह व्यक्ति ऐसी संपत्ति के संदर्भ में ऐसी स्थिति में हो कि वह संपत्ति के स्वामी के रूप में अन्य व्यक्तियों से अलग उपभोग कर सके। उस व्यक्ति के लिए जिसके कब्जे से संपत्ति ली जाए आवश्यक नहीं है कि वह संपत्ति का स्वामी ही हो अथवा संपत्ति पर उसका ठीक कब्जा हो। चोरी के अपराध की संरचना के लिए ऐसी वस्तु पर किसी व्यक्ति का शारीरिक नियंत्रण होना चाहिए।

    यदि कोई वस्तु गुम हो गई है तथा वह लावारिस रूप में कहीं पड़ी है और इस प्रकार की संपत्ति उसके स्वामी के कब्जे में नहीं है जैसे कि कोई पशु किसी व्यक्ति का पालतू पशु है और वह पशु भटक गया है तथा वह उसके स्वामी के कब्जे में नहीं है इस स्थिति में यदि उस पशु को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बेईमानीपूर्ण आशय से रख लिया जाता है तो यहां चोरी का अपराध नहीं होगा अपितु आपराधिक दुर्विनियोग का अपराध होगा क्योंकि चोरी के अपराध के गठन के लिए तीसरा आवश्यक तत्व है कि उस संपत्ति का कब्जा किसी व्यक्ति से लिया जाए या संपत्ति को किसी का व्यक्ति के कब्जे से प्राप्त किया जाए।

    सड़क पर गिरा हुआ मोबाइल फोन यदि किसी व्यक्ति द्वारा उठा लिया जाता है और बेईमानीपूर्ण आशय से उस मोबाइल फोन को रख लिया जाता है तो यहां आपराधिक दुर्विनियोग का मामला होगा न कि चोरी का मामला होगा क्योंकि इस प्रकार से चोरी के अपराध के लिए मोबाइल को कब्जे से नहीं लिया गया है अपितु संयोगवश किसी व्यक्ति को वह मोबाइल पड़ा हुआ प्राप्त हुआ है।

    सहमति

    चोरी के अपराध का चौथा आवश्यक तत्व सहमति है। चोरी के अपराध के लिए संपत्ति उस व्यक्ति की सहमति के बिना लेना आवश्यक है जिसका उस संपत्ति पर कब्जा है। भारतीय दंड संहिता की धारा 378 के पांचवें स्पष्टीकरण के अनुसार सहमति या तो अभिव्यक्त हो सकती है या विवक्षित। इसी प्रकार संपत्ति उस व्यक्ति द्वारा दी जा सकती है जिसका संपत्ति पर कब्जा हो अथवा ऐसे व्यक्ति द्वारा जो संपत्ति देने का अभिव्यक्ति अव्यवस्थित अधिकार रखता है परंतु यदि सहमति अनुचित परिस्थितियों के कारण दी गई है तो ऐसी दी गई सहमति का कोई महत्व नहीं।

    त्रिलोकचंद तिवारी के मामले में ए एक दूसरे व्यक्ति बी की सहायता से उसके स्वामी की संपत्ति की चोरी करना चाहता है। इस आशय से उसने बी की सहायता मांगी थी बी ने अपने स्वामी के ज्ञान और उसकी सहमति से ए को दंड दिलाने हेतु सहायता प्रदान की।

    न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया किचूँकि संपत्ति उसके स्वामी के ज्ञान से हटाई गई थी इसलिए ए छोरी का दोषी नहीं है परंतु उसने चोरी के दुष्प्रयत्न के लिए उत्तरदायी ठहराया गया। यह निर्णय न्यायपूर्ण नहीं लगता कि संपत्ति के स्वामी ने वास्तव में बेमानीपूर्ण आशय है कि संतुष्टि के लिए अपनी संपत्ति को हटाने की अनुमति नहीं दी थी। स्वामी ने चोर के बेमानीपूर्ण आशय के क्रियान्वयन में मात्र सहायता पहुंचाई थी जिसका अंतिम उद्देश्य उसे विधि विरुद्ध कार्य के लिए दंड प्रदान कराना था। चोर को भी संपत्ति के स्वामी के कार्यों का ज्ञान नहीं था, यह कार्य सहमति की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता है।

    चांडलर के स्वतंत्रता पूर्व के एक प्रकरण में अभियुक्त ए अभियुक्त बी के नौकर को अपनी योजना बताई थी कि वह उसके स्वामी की दुकान में लूट करना चाहता है इस नोकर ने उसकी योजना से सहमति का भाव प्रदर्शित करते हुए दुकान की चाबियों का गुच्छा दे दिया जिससे उसने उन चाबियों की नकल बनवा ली थी।

    निर्धारित तिथि पर अभियुक्त ने उन चारों में से एक चाबी से दुकान के बाहर का दरवाजा खोलकर दुकान में प्रवेश किया ही था कि वही वह गिरफ्तार कर लिया गया। नौकर ने अभियुक्त की योजना से अपने स्वामी को अवगत करा दिया था। अभियुक्त को चोरी के आशय से दरवाजा खोलने और उसमें प्रवेश करने के अपराध का दोषी पाया गया अभिनिर्धारित किया गया है कि अभियुक्त को दी गई दोषसिद्धि ठीक थी चाहे भले ही अभियुक्त को यह जानकारी रही हो कि दरवाजा खोलने और उसमें प्रवेश करने के साधनों की जानकारी उसी के नौकर द्वारा उसकी व्यवस्थित सम्मति से की गई हो।

    संपत्ति को हटाया जाना

    भारतीय दंड संहिता की धारा 378 के अंतर्गत चोरी का अपराध घटित होने के लिए पांचवा और अंतिम आवश्यक तत्व संपत्ति को हटाया जाना है। चोरी का अपराध उसी समय पूर्ण हो जाता है जब किसी संपत्ति को बेमानीपूर्ण आशय से हटा दिया जाता है। संपत्ति का उस स्थान से रंच मात्र भी हटाया जाना चोरी का अपराध संरक्षित करता है जिस स्थान पर उसे उसके कब्जे दार द्वारा रखा गया था।

    धारा 380 बाधा को जो किसी चीज को हटाने से रुके हुए हैं कोई व्यक्ति हटाता है या उस व्यक्ति को किसी वस्तु से पृथक करता है तो यह कहा जाएगा कि वह व्यक्ति उस वस्तु को हटाता है।

    इस धारा के दृष्टांत के अंतर्गत इस सिद्धांत का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है एक स्पष्टीकरण के अनुसार वह व्यक्ति जो किसी साधन द्वारा किसी जीव जंतु को हटाना कारित करता है यह कहा जाता है कि वह जीव जंतु को हटाता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी चीज को ऐसे जीव जंतु के माध्यम से हटाता है उसको हटाने वाला माना जाएगा।

    मल्लू यादव बनाम बिहार राज्य के प्रकरण में अभियुक्त द्वारा एक वृक्ष खेत से खड़ी हुई फसल को प्रत्यक्ष रूप से उखाड़ आ जा रहा था। यह बात साक्ष्य द्वारा स्थापित कर दी गई थी यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह कार्य धारा 379 के अधीन चोरी का अपराध है।उखाड़ी गई फसल के मूल्य के संबंध में साफ न होने का कारण धारा 379 के अंतर्गत उपबंधित अधिकतम दंड का निरूपण आवश्यक नहीं समझा गया।

    एक प्रकरण में अपीलकर्ता पर सोने की चेन छीनने का आरोप लगाया गया था। उसे दौड़ता हुआ पाया गया उसका पीछा किया गया और उसे पकड़ लिया गया परंतु उसके पास सोने की चेन न मिलकर एक इयररिंग प्राप्त हुई। अभियोजन के किसी भी साक्षी ने उस व्यक्ति को नहीं देखा था जिसने सोने की चेन छीनी थी।

    यह कहा गया कि साक्षी इस बात को संदेह से परे साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं थे की अपीलकर्ता ही दोषी था। मात्र इस कारण से कि किसी कारण अपीलकर्ता को दौड़ता हुआ तेज गति से जाता हुआ देखा गया। इस बात की स्थापना के लिए पर्याप्त नहीं है वही अपराधकर्ता था, अपीलकर्ता को दोषमुक्ति का हकदार माना गया।

    चोरी पति पत्नी के रिश्ते के अंतर्गत भी हो सकती है क्योंकि पति पत्नी एक ही व्यक्ति नहीं होते हैं। यदि पत्नी द्वारा पति की कोई संपत्ति को उसके स्थान से हटाया जाता है तो चोरी का अपराध हो सकता है इसी प्रकार यदि पति पत्नी के स्त्रीधन को हटाता है तो भी चोरी का अपराध हो सकता है।

    चोरी के लिए दंड (धारा-379)

    भारतीय दंड संहिता की धारा 378 चोरी के संबंध में विस्तृत परिभाषा प्रस्तुत करती है तथा 379 चोरी के लिए दंड का निर्धारण करती है। धारा 379 के अंतर्गत जो कोई इस प्रकार की चोरी करता है वह 3 वर्ष तक के कारावास से दंडित किया जाएगा और उसके साथ जुर्माना भी अधिरोपित किया जा सकता है। चोरी का अपराध जिस व्यक्ति की संपत्ति की चोरी हुई है उसकी इच्छा पर समझौते के योग्य अपराध है अर्थात इस अपराध के अंदर समझौता हो सकता है।

    घर में घुसकर चोरी करना (धारा-380)

    भारतीय दंड संहिता की धारा 380 घर में घुसकर चोरी करने के अपराध का उल्लेख करती है। घर में घुसकर चोरी करना चोरी का गंभीर पर रूप है तथा इसके अंतर्गत दंड की अवधि भी अधिक है।

    किसी घर में जो ईंट पत्थरों का निर्माण हो, किसी तंबू में या किसी जलयान में जहां कोई व्यक्ति रहता हो या फिर किसी संपत्ति की रक्षा हेतु इस प्रकार का निर्माण किया गया है जैसे कि कोई कारखाना या फिर कोई गोडाउन,उस में घुसकर यदि चोरी की जाती है तो धारा 380 के अंतर्गत 7 वर्ष तक के कारावास की अवधि के दंड का निर्धारण किया गया है उसके साथ जुर्माना भी हो सकता है।

    नौकर और लिपिक के द्वारा स्वामी की संपत्ति की चोरी (धारा-381)

    भारतीय दंड संहिता की धारा 381 किसी नौकर या लिपिक द्वारा अपने मालिक की संपत्ति की चोरी करने को विशेष रुप से उल्लेखित करती है। यदि इस प्रकार किसी नौकर या किसी लिपिक द्वारा अपने मालिक की संपत्ति की चोरी की जाती है तो धारा 381 के अंतर्गत 7 वर्ष तक की दंड की अवधि से दंडित किया जाएगा।

    चोरी करने के उद्देश्य से मृत्यु और गंभीर चोट देने की तैयारी करना (धारा-382)

    यदि किसी व्यक्ति द्वारा चोरी की जाती है वह चोरी करते समय उस व्यक्ति द्वारा प्रतिरोध के साधन के तौर पर कोई गंभीर चोट पहुंचाने का उद्देश्य रखा जाता है या फिर मृत्यु कारित करने का उद्देश्य रखा जाता है तो यह चोरी का गंभीर अपराध है।

    इस धारा 382 के अंतर्गत 10 वर्ष तक के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा अपनी जेब में भरी हुई पिस्तौल इस उद्देश्य से रखी जाती है कि मेरे द्वारा चोरी करने पर पकड़ा जाता हूं तो इस पिस्तौल की गोलियां चलाकर मैं अपना प्रतिरोध कर लूंगा या फिर कोई चाकू अपने पास रख कर इस प्रकार की चोरी का अपराध किया जाता है। यह धारा मात्र चोरी की तैयारी अंतर्गत प्रयोज्य होती है यदि अभियुक्त चोरी करते समय मृत्यु गंभीर चोट या रास्ता रोकने की तैयारी में था धारा 382 का अपराध बन जाता है।

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