भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 19 : भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आत्महत्या का दुष्प्रेरण और हत्या का प्रयास

Shadab Salim

24 Dec 2020 11:34 AM IST

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 19 : भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आत्महत्या का दुष्प्रेरण और हत्या का प्रयास

    पिछले आलेख में मानव शरीर पर प्रभाव डालने वाले अपराधों के संबंध में भारतीय दंड संहिता के अध्याय 16 के अंतर्गत उतावलेपन द्वारा और उपेक्षा द्वारा मृत्यु कार्य करने तथा दहेज मृत्यु के संबंध में चर्चा की गई थी, इस आलेख में अध्याय 16 के अंतर्गत जीवन के लिए संकटकारी अपराध आत्महत्या का दुष्प्रेरण तथा हत्या का प्रयास अपराध के संबंध में उल्लेख किया जा रहा है।

    आत्महत्या का दुष्प्रेरण

    जैसा कि पिछले आलेख में उल्लेख किया गया है भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत किसी अपराध को कारित करना ही अपराध नहीं है अपितु इस प्रकार के अपराध में दुष्प्रेरण देना भी अपराध है। किसी ऐसे कार्य के लिए दुष्प्रेरण देना जिस कार्य को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध घोषित किया गया है इस प्रकार का दुष्प्रेरण भी अपराध होता है तथा उसके लिए वही दंड का उल्लेख किया गया है जो उस अपराध के लिए दंड निर्धारित किया गया है।

    आत्महत्या का कार्य जीवन के लिए संकट कार्य है, जब मनुष्य चारों ओर से टूट जाता है तथा उसके मन में जीने की अभिलाषा समाप्त हो जाती है तब उसके द्वारा आत्महत्या जैसा कदम उठाया जाता है। कभी-कभी इस प्रकार की परिस्थितियां होती है जिनमें किसी व्यक्ति द्वारा आत्महत्या के लिए प्रेरित किया जाता है अर्थात दूसरे व्यक्ति द्वारा कुछ इस प्रकार की यातनाएं दी जाती है जिसके परिणामस्वरूप व्यथित व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आत्महत्या के दुष्प्रेरण को अपराध करार दिया गया है।

    धारा 306

    भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत आत्महत्या के दुष्प्रेरण को रोकना तथा दंडित करना निर्धारित किया गया है। इस धारा के अंतर्गत आत्महत्या के दुष्प्रेरण को दंडनीय अपराध करार देकर समाज के भीतर आत्महत्या के दुष्प्रेरण को उन्मूलन करने के प्रयास किए गए हैं। अनेकों ऐसे प्रकरण देखने को मिलते हैं जहां पर किसी ने किसी प्रकार से व्यक्ति को आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित या फिर विवश कर दिया जाता है। व्यक्ति किसी कार्य के परिणामस्वरूप इतना त्रस्त हो जाता है कि उसके द्वारा आत्महत्या कर ली जाती है। कभी-कभी गलत प्रकार के दुष्प्रेरण के कारण भी आत्महत्या के लिए प्रेरित किया जाता है, जैसे कि किसी महिला के सती होने के लिए उसे दुष्प्रेरित किया जाता है तथा उसकी सती होने में सहायता की जाती है इस स्थिति में अभियुक्त धारा 306 के अंतर्गत आरोपी होंगे।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत आत्महत्या के दुष्प्रेरण से संबंधित अनेक प्रकरण उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय में आए हैं उनका इस आलेख में उल्लेख किया जा रहा है।

    वजीर चंद बनाम हरियाणा राज्य के मामले में अभियोजन की ओर से यह मामला प्रस्तुत किया गया था कि मृतका ने आग लगाकर आत्महत्या कर ली थी आत्महत्या संबंधी कोई लिखा हुआ नोट अथवा मृतका का कोई कथन उपलब्ध नहीं था। मृतका के वस्त्र से मिट्टी के तेल की महक के साक्ष्य, स्टोव से जल जाने की संभावना, मृतका को जानबूझकर अस्पताल ले जाने में विलंब करना और रेडियो या दूरदर्शन के स्वर को तेज करके मृतका की चीख को दबा देने की बात को दोषसिद्धि के लिए भरोसेमंद नहीं पाया गया।

    इस प्रकरण में न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया की धारा 306 के अधीन अपराध के निर्माण हेतु यह आवश्यक है कि आत्महत्या का किया जाना साबित किया जाए। तथ्य के आधार पर चूंकि युक्तियुक्त निश्चिता के साथ आत्महत्या किया जाना स्थापित नहीं हो सका तथा धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि को मान्य नहीं किया गया।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत आत्महत्या के दुष्प्रेरण में अपराध का मुख्य तत्व दुष्प्रेरण है। दुष्प्रेरण हेतु विस्तृत आलेख लेखक द्वारा पूर्व में लिखा जा चुका है। भारतीय दंड संहिता के अध्याय पांच के अंतर्गत दुष्प्रेरण के विषय में विस्तृत उल्लेख किए गए हैं। किसी भी ऐसे कार्य के लिए प्रेरित करना जिसे दंड संहिता के अंतर्गत अपराध घोषित किया गया है दुष्प्रेरण कहलाता है।

    नेताई दत्त बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 2005 उच्चतम न्यायालय 659 के प्रकरण में कंपनी का एक कर्मचारी स्थानांतरित कर दिया गया था परंतु उसने नए स्थान पर कार्यभार ग्रहण नहीं किया था, वह दो लंबे वर्षों तक अनुपस्थित रहने के बाद वेतन में गतिरोध पूर्व संतोषजनक कार्य की दशाओं का विरोध व्यक्त करते हुए उसने अपना त्यागपत्र दे दिया।

    उसके बाद उसकी मृत शरीर पाया गया और उसकी मृत्यु देह से बरामद आत्महत्या से संबंधित एक नोट के आधार पर पुलिस द्वारा अपीलकर्ता के विरुद्ध एक मामला रजिस्टर किया गया। आत्महत्या के इस नोट में अपीलकर्ता के विरुद्ध ऐसा कुछ भी कथन नहीं किया गया था कि उसने मृतक को कोई हानि कारित थी या यह की उसके द्वारा उसके वेतन को रोका गया था। कुछ स्थानों पर अपीलकर्ता के नाम के उल्लेख के सिवाय आत्महत्या के नोट में उसके विरुद्ध ऐसा कोई भी अभिकथन नहीं था कि उसने जानबूझकर ऐसा कोई कार्य या लोप किया था या यह की उसने साशय मृतक को इस तरह उकसाया था कि मृतक ने आत्महत्या कर ली थी।

    परिवादी द्वारा भी ऐसा कोई अभिकथन नहीं किया गया था की अपीलकर्ता द्वारा मृतक को तंग किया गया था। इन परिस्थितियों में अपीलकर्ता के विरुद्ध धारा 306 के अधीन की गई कार्यवाही को आधार विहीन और अभियुक्त अपीलकर्ता के लिए तंग करने वाला बतलाया गया।

    धारा 306 के अंतर्गत गुरबचन सिंह बनाम सत्यपाल सिंह 1990 उच्चतम न्यायालय 445 एक और महत्वपूर्ण प्रकरण है। इस मामले में कहा गया है कि जहां किसी नवविवाहिता से निरंतर दहेज की मांग की जा रही हो और साथ ही साथ उस पर बुरी भाषाएं बोलकर मानसिक रूप से तंग भी किया जा रहा हो या उसका हास्य उड़ाया जा रहा हो दुर्व्यवहार क्रूरतापूर्ण आचरण परपीड़न और गंदे लांछन लगाए जा रहे हो, उसके गर्भ में उपस्थित संतान को अवैध संतान कहा जा रहा हो, वहां यह सारी बातें भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी किसी महिला को आत्महत्या के उत्प्रेरण हेतु गंभीर और घोर प्रकोपन देती है। कोई भी सम्मानित स्त्री इस तरह के मिथ्या लांछन से अवश्य ही मानसिक रूप से पीड़ित होकर आत्महत्या कर सकती है।

    दुष्प्रेरण का प्रत्यक्ष साक्ष्य तो नहीं मिल पाता है परंतु परिस्थिति जिनमें मृत्यु हुई है, अभियुक्त व्यक्तियों के आचरण और अपराध की प्रकृति पर अवश्य ही ध्यान दिया जाना चाहिए।

    अनेकों महिलाओं द्वारा ससुराल में आत्महत्या की जाती है। इस प्रकार की आत्महत्याओं के पीछे कहीं न कहीं दहेज की मांग या ससुराल द्वारा प्रताड़ित किया जाना संभव होता है। आत्महत्या के दुष्प्रेरण में जहां आत्महत्या करने में सहायता की गई हो और विवाह के 7 वर्ष के भीतर घटना घटित होने के संबंध में किसी प्रमाण की अनुपस्थिति के कारण भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 113 (क) का प्रवर्तन न हो रहा हो वहां मृत्यु को दहेज मृत्यु की संज्ञा न दी जा सकती हो वहां इन सबसे परे सहिंता की धारा 304 बी 498 ए और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-113 (क) धारा-114 (ख) में प्रकट विधायी आशय को जानने का प्रयास किया जाना चाहिए जो की कठोरता के साथ दहेज मृत्यु की धमकी को दंडित करना चाहती है। धारा 306 के अधीन दहेज से संबंधित आत्महत्याओं के दुष्प्रेरण के अपराध में दोषसिद्धि के समय इन्हें ध्यान में रखना चाहिए।

    इस प्रकार पंजाब वर्सेस इकबाल सिंह 1951 के प्रकरण में जहां किसी मामले में पति निरंतर अपनी पत्नी से दहेज की मांग करता आ रहा है और उसे समय-समय मारता पीटता हो, प्रताड़ित करता हो और उसके लिए आतंक का वातावरण उत्पन्न करता रहता हो, पत्नी ने स्वयं को अपने तीन बच्चों के साथ अग्नि की ज्वाला में प्रदीप्त कर लिया हो वहां इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया गया कि पति ने अपने सुविचार आशय द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न किया था जिसने उसकी पत्नी को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया।

    इस प्रकरण में विचारण न्यायालय द्वारा धारा 306 के अधीन अभिलिखित दोष सिद्धि और 7 वर्षों के कठोर कारावास के आदेश को मान्य किया गया और उच्च न्यायालय का आदेश गलत ठहराया गया जिसमें विचारण न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि और दंडादेश को उलट दिया गया था।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत संजू बनाम मध्य प्रदेश राज्य 2002 उच्चतम न्यायालय 371 का एक प्रकरण महत्वपूर्ण प्रकरण है। इस प्रकरण में अपीलकर्ता का नाम विनिर्दिष्ट रूप से आत्महत्या से संबंधित पत्र में उल्लेखित किया गया था। वह पत्र अन्यथा भी सुसंगत नहीं था क्योंकि उसमे मन की अशांत दशा नज़र आ रही थी।

    अभिलेख पर ऐसे भी साक्ष्य उपलब्ध थे जिससे यह ज्ञात होता था कि पति सदैव पीता रहता था और कोई काम धंधा नहीं करता था। आत्महत्या से संबंधित पत्र को भी इस अन्य परिस्थितियों के साथ देखा गया और प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वह विश्वसनीय नहीं थे। इस प्रकरण में अपीलकर्ता और मृतक के बीच बहस हुई जिसमें अपीलकर्ता के संबंध में यह कहा गया था कि उसने मृतक से यह कहा था कि जाओ और जाकर मर जाओ, 2 दिनों बाद मृतक मरा हुआ पाया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उसने शब्दों के माध्यम से वाक्य कलह किया। आत्महत्या के पत्र में अपीलकर्ता का नाम उल्लेखित था अतः आत्महत्या उस वाक्य कलह का प्रत्यक्ष परिणाम नहीं था जिसमें अपीलकर्ता द्वारा गाली-गलौज से परिपूर्ण भाषा का प्रयोग किया गया था और मृतक से कहा गया था कि जाओ और जाकर मर जाओ।

    जहां किसी विवाहित स्त्री द्वारा आत्महत्या की जाती है और यह साबित हो गया हो कि आत्महत्या करने के लिए उसके पति या पति के नातेदरों द्वारा उसको दुष्प्रेरण दिया गया था, यह भी साबित हो गया हो कि पति और पति की माता तथा पिता द्वारा दहेज की मांग की गई थी और विवाह के 7 वर्ष के भीतर पति की मृत्यु हो गई हो, पत्नी के साथ इतनी अधिक क्रूरता की गई कि आत्महत्या के माध्यम से अपने जीवन को समाप्त करने के लिए प्रेरित हो गई, वहां रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य के प्रकरण में धारा 306 के अधीन की गई दोषसिद्धि को ठीक माना गया।

    आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिए दंड

    भारतीय दंड संहिता की धारा 306 आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिए दंड का उल्लेख करती है। इस धारा के अंतर्गत दुष्प्रेरण की अधिक विस्तृत परिभाषा इसलिए प्रस्तुत नहीं की गई है क्योंकि दुष्प्रेरण हेतु भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत एक संपूर्ण अध्याय उल्लेखित किया गया है। धारा 306 केवल आत्महत्या के दुष्प्रेरण शब्द को वर्णित करती है। इस धारा के अंतर्गत आत्महत्या करने हेतु 10 वर्ष तक की अवधि के कारावास का निर्धारण किया गया है। इस प्रकार के दंड की अवधि के साथ जुर्माना भी हो सकता है, यह दंड की अधिकतम अवधि है अर्थात यदि किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण हेतु दोषसिद्ध किया जाता है इस परिस्थिति में 10 वर्ष तक ही दंड दिया जा सकता है, इससे अधिक दंड की व्यवस्था इस धारा के अंतर्गत उपलब्ध नहीं है।

    हत्या का प्रयास

    भारतीय दंड संहिता की धारा 300 के अंतर्गत हत्या की परिभाषा प्रस्तुत की गई है तथा धारा 302 के अंतर्गत हत्या के लिए दंड निर्धारित किया गया है जो कि मृत्यु या आजीवन कारावास तक का दंड हो सकता है। भारतीय दंड संहिता केवल हत्या के अपराध को ही दंडनीय करार नहीं देती है अपितु इस प्रकार की हत्या किए जाने के प्रयास को भी घोर दंडनीय अपराध करार देती है। कभी कभी किसी व्यक्ति का आशय किसी की हत्या करना होता है तथा परिस्थितियों के कारण हत्या हो नहीं पाती है जिस व्यक्ति की हत्या करने का आशय रखा गया था, हत्या के लिए उसे क्षति की गई थी वह व्यक्ति बच जाता है तथा उसकी मृत्यु नहीं होती है। भारतीय दंड सहिंता की धारा 307 इस ही हत्या के प्रयास के संबंध में उल्लेख कर रही है। इस आलेख के अंतर्गत हम धारा 307 से संबंधित कुछ विशेष प्रकरणों का अध्ययन भी करेंगे।

    धारा 307

    भारतीय दंड संहिता की धारा 307 एक विशेष धारा है। इस धारा के अंतर्गत दो पैरा दिए गए हैं तथा दो प्रकार के दंड की व्यवस्था है। एक प्रकार का अपराध ऐसा है जिसमें किसी व्यक्ति की हत्या की जाने का प्रयास किया जाता है परंतु उस व्यक्ति को किसी प्रकार की कोई क्षति नहीं होती है परंतु यदि ऐसा प्रयास किया जाता है और किसी व्यक्ति को क्षति हो जाती है तो यह दूसरे प्रकार का अपराध है, यदि क्षति नहीं होती है और हत्या का प्रयास किया जाता है तो धारा 307 के अंतर्गत 10 वर्ष तक की अवधि के दंड का निर्धारण किया गया है। यदि हत्या का प्रयास किया जाता है तथा व्यक्ति को क्षति हो जाती है ऐसी स्थिति में आजीवन कारावास के दंड से दंडित किया जाएगा।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 307 अपराध करने का प्रयत्न के संबंध में उल्लेख करती है। धारा 307 के अंतर्गत अपराध की संरचना के लिए दो बातें मुख्य रूप से होना चाहिए, पहला दुराशय और दूसरा ऐसे आशय के अंतर्गत किया गया कोई कार्य।

    धारा 307 के अधीन इस प्रकार अपराध के निर्माण के लिए निर्णयात्मक प्रश्न मारने का आशय या ज्ञान है कि अभियुक्त के कार्य से मृत्यु कारित होगी परिणाम चाहे जो भी हो और क्षति की प्रकृति अप्रासंगिक है।

    धारा 307 के अधीन दोषसिद्धि को बनाने के लिए इतना पर्याप्त है कि आशय के साथ कोई विसुप्त कार्य भी किया गया। धारा 307 के अधीन आरोपित अभियुक्त केवल इस आधार पर दोषमुक्त नहीं किया जा सकता कि अधिरोपित क्षतियां सरल या छोटी होती थी। मारने का आशय ज्ञान की मृत्यु कारित होगी तथ्य के प्रश्न है, प्रत्येक मामले तथ्यों पर आधारित होता है।

    जहां कोई व्यक्ति धारा 307 के अंतर्गत हत्या का प्रयास तब करता है जब वह हत्या करने के आशय के साथ हत्या करने की ओर उन्मुख होकर कोई कार्य करता है, यह आवश्यक नहीं है कि उसका कार्य अंतिम है अथवा नहीं। इस धारा में प्रयुक्त आशय अथवा ज्ञान का तात्पर्य वही है जो धारा 300 में है। धारा 307 में प्रयुक्त इन शब्दों जो कोई किसी कार्य को ऐसे ज्ञान से और ऐसी परिस्थितियों में करेगा से तात्पर्य उस आशय है या ज्ञान या परिस्थितियों से है जो धारा 300 में हत्या का अपराध संरचना करने के लिए आवश्यक है। धारा 307 में प्रयुक्त शब्द उस कार्य से तात्पर्य यह नहीं है कि कार्य का तुरंत प्रभाव मृत्यु ही हो, इस धारा में प्रयुक्त कार्य शब्द का तात्पर्य किसी व्यक्ति का कोई विशिष्ट अथवा तात्कालिक कारित ही न होकर धारा 307 के अंतर्गत कार्यों के विभिन्न अनुक्रमा से भी है।

    महाराष्ट्र राज्य बनाम बलराम के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जीवन को खतरे में डाल देने वाली क्षति धारा 307 के प्रवर्तन की आवश्यक पूर्ति की आवश्यक शर्त नहीं है परंतु यदि अपराध धारा 307 के अधीन आ रहा है तो साधारण क्षति का कारित करना मात्र ही दोषमुक्ति का उपयुक्त आधार नहीं है परंतु चूंकि धारा 307 के प्रवर्तन की पूर्व शर्त हत्या का आशय अथवा ज्ञान की विधामानता है और इसका सुनिश्चित तथ्यों परिस्थितियों के आधार पर किया जा सकता है। अतः अभियुक्त का दल अगर तेज धार वाले हथियार के साथ घटना और की ओर जा रहा था परंतु उसने उसके कुंद भाग का ही प्रयोग किया जबकि विपक्ष की ओर से उन पर तेजधार से चोट पहुंचाई गई हो वहां यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिस्थिति है और यह स्पष्ट रूप से अभियुक्त पक्ष के हत्या के आशय अथवा ज्ञान के अभाव का और घटना की आकस्मिकता का दिग्दर्शन कराता है। इस तरह के मामलों में अभियुक्तगण धारा 307 के अधीन दोषमुक्ति के हकदार हैं।

    प्रबीर मंडल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 2010 के प्रकरण में अपराध से पीड़ित परिवादकर्ता का अभिकथन था कि उसको मार डालने के लिए दोनों ही अपीलकर्ता अभियुक्त द्वारा एक अन्य सह अभियुक्त के साथ एक चाकू से उसके गले को काटने का प्रयत्न किया गया और अपने को बचाने के प्रयत्न में उसको अपने बाएं गाल और बाएं हथेली पर क्षति सहन करनी पड़ी। उसकी बाईं हथेली पर कोई क्षति नहीं पाई गई और दाहिनी हथेली पर जो चोट लगी थी वह रगड़ की प्रकृति की थी न कि कटे हुए घाव की प्रकृति की।

    परिवादकर्ता द्वारा चिकित्सक को क्षति का कारण नहीं बताया गया था तभी कथित अपराध का आयुद्ध अन्य उपकरण खून के धब्बों के साथ चटाई आदि फॉरेंसिक परीक्षा के लिए नहीं भेजा गया था। गांव वाले से राय मशविरा करने के बाद प्रथम सूचना रिपोर्ट दाखिल की गई थी अतः यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियोजन पक्ष द्वारा तैयार किया गया प्रकरण झूठा प्रतीत हो रहा है और अपीलकर्ता कि दोषसिद्धि अभियोजन पक्ष की ओर से प्रस्तुत साक्ष्य के अनुरूप नहीं है, दोषसिद्धि अपास्त कर दिया गया।

    जैसा कि लेख के पूर्व में कहा गया है धारा 307 का अपराध उस अपराध की गंभीरता के अनुरूप दंड का निर्धारण करता है। धारा 307 के प्रकरण के अंतर्गत आरोपियों द्वारा कोई कार्य किया जाना ही आवश्यक नहीं है यदि कोई इस प्रकार का कार्य किया जा रहा था जिससे किसी मनुष्य की हत्या हो सकती थी तथा हत्या के आशय से किया जा रहा था तो धारा 307 के अंतर्गत प्रकरण बनाया जाएगा और यदि इस प्रकार हत्या के आशय से किए गए कार्य के द्वारा क्षति कारित कर दी जाती है ऐसी स्थिति में भी धारा 307 के अंतर्गत दोषसिद्ध किया जा सकता है।

    धारा के अंतर्गत यदि हत्या का केवल प्रयत्न किया गया है तो उसके लिए दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 10 वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी दंडित करने का उपबंध किया गया है।

    यदि हत्या के प्रयत्न के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति को कोई उपहति कारित होती है तो अपराधी आजीवन कारावास के दंड से दंडित किया जाएगा।

    यदि हत्या के प्रयत्न का अपराध करने वाला आजीवन कारावास के दंडादेश के अधीन है और उसकी हत्या के प्रयत्न के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति को उपहति कारित होती है तो वह मृत्युदंड से दंडनीय है अर्थात यदि किसी व्यक्ति को आजीवन कारावास दिया जा चुका है और उसके द्वारा हत्या का प्रयास किया जाता है ऐसे प्रयास से किसी व्यक्ति को कोई नुकसानी होती है तो उस को मृत्युदंड दिया जा सकता है।

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