भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 16 : भारत में धर्म से संबंधित अपराध

Shadab Salim

21 Dec 2020 12:34 PM IST

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 16 : भारत में धर्म से संबंधित अपराध

    पिछले आलेख में भारतीय दंड संहिता के अध्याय 14 के अंतर्गत लोक स्वास्थ्य और सदाचार से संबंधित अपराधों का अध्ययन किया गया था। इस आलेख में भारतीय दंड संहिता के अध्याय 15 के अंतर्गत धर्म से संबंधित अपराधों के विषय में सारगर्भित चर्चा की जा रही है।

    धर्म व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, भारत के संविधान द्वारा अनुच्छेद 25 में धर्म की स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। धर्म नितांत निजी मामला है हर व्यक्ति किसी भी धर्म और किसी भी पूजा पद्धति को मानने के लिए स्वतंत्र है परंतु धर्म केवल पूजा पद्धति नहीं है अपितु एक वर्ग एक संगठन भी है।

    भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है जहां पग पग पर भिन्न भिन्न भाषाएं तथा भिन्न भिन्न संस्कृतियां और भिन्न-भिन्न धर्म उपलब्ध है। इतनी विभिन्न संस्कृतियों और विभिन्न धर्मों के बीच अखंड भारत का निर्माण करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। इस धार्मिक विभिन्नता के कारण समाज में धर्म के आधार पर विवाद फैलने के खतरे प्रत्येक क्षण बने रहते हैं। धर्म के मामले में विवाद जंगल की आग की तरह फैलता है इन सभी धर्म के वर्ग के बीच शांति को बनाए रखने का एक ही उपाय है कि सभी धर्मों का आदर किया जाए। राज्य का कोई धर्म नहीं हो तथा राज्य सभी धर्मों का आदर करे और धर्म से संबंधित कुछ बातों को अपराध घोषित कर दिया जाए जो बातें किसी धर्म पर अनावश्यक लांछन लगाती है।

    लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य का यह कर्तव्य होता है कि वह व्यक्तियों को भयमुक्त तथा शांति से परिपूर्ण समाज उपलब्ध करें। जब धर्म को लेकर विवाद होंगे तो भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर शांति के लिए खतरा उत्पन्न होगा, इस उद्देश्य से भारतीय दंड संहिता के अध्याय 15 के अंतर्गत उन सभी कार्यों को धर्म से संबंधित अपराध घोषित किया है जो अनावश्यक रूप से किसी धार्मिक वर्ग को ठेस पहुंचाते हैं या उसे व्यथित करते हैं या उस पर कोई लांछन लगाते हैं।

    भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत धर्म से संबंधित अपराध

    भारतीय दंड संहिता के अध्याय 15 में धारा 295 से लेकर 298 तक धर्म से संबंधित अपराधों के विषय में उल्लेख किया गया है।

    उपासना के स्थान को क्षति पहुंचाना या अपवित्र करना। (धारा 295)

    हर धर्म का अपना उपासना का स्थान होता है जैसे मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा यह उपासना के स्थान उस धर्म और वर्ग के लोगों के लिए सर्वोच्च होते हैं तथा उनकी धार्मिक आस्थाओं का मुख्य केंद्र होते हैं।

    इन उपासना के स्थानों को यदि किसी व्यक्ति द्वारा यह जानते हुए कि यह किसी की धार्मिक उपासना का स्थल है उसे क्षति कारित करना या उसे अपवित्र करना दंडनीय अपराध है, इस प्रकार की क्षति कारित करने वाला या उस उपासना के स्थल को अपवित्र करने वाला व्यक्ति उस धर्म के लोगों की आस्थाओं को आघात पहुंचाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 295 इस प्रकार के कार्य को दंडनीय अपराध करार देती है जिसके अंतर्गत 2 वर्ष तक के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है।

    दुराशय से दूसरे धर्मावलंबियों के उपासना स्थल को अपवित्र या नष्ट करके उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं वह इस प्रकार का अपराध कारित करते हैं। यहां किसी वस्तु अभिव्यक्ति में मूर्ति और पवित्र ग्रंथों के साथ ऐसी अन्य चीजें भी आती है जिन्हें किसी भी वर्ग द्वारा पवित्र माना जाता है जैसे कि मुसलमानों द्वारा कुरान को पवित्र माना जाता है हिंदुओं के द्वारा गीता को पवित्र माना जाता है।

    इस धारा के अंतर्गत मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर संगमरमर या पत्थर की मूर्तियां भी सम्मिलित हैं। मिट्टी की बनी देवता की मूर्ति को तोड़ना इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं माना गया है क्योंकि पूजा या उपासना के संदर्भ में ही मूर्ति की पवित्रता आदि को देखा जाता है। यदि किसी मूर्ति की पूजा की जा रही है और उस मूर्ति को तोड़ा गया है तो धारा 295 का अपराध बनेगा। सम्मान के विषय तथा पवित्र विषय में अंतर है धर्म सही है या गलत यह विचार नहीं है केवल धर्म को मानने वालों की भावनाओं को आघात पहुंचाना ही महत्वपूर्ण है। यह धारा किसी धर्म के मूल सिद्धांत के संदर्भ में कोई उल्लेख नहीं करती है तथा उस धर्म को सही या गलत साबित नहीं करती है इस धारा का उद्देश्य केवल उस धर्म के मानने वालों की मूल भावनाओं को आघात पहुंचाने वाले व्यक्तियों को दंडित करना है। अपवित्र क्या है और कोई चीज होती है यह स्थान समय समुदाय धर्म आदि के संदर्भ में देखा जाना चाहिए विभिन्न धर्मों में इस संबंध में विभिन्न मान्यताएं और रूढ़ि या विधान है जैसे कि सूअर इस्लाम धर्म के अंतर्गत अपवित्र माना जाता है तथा इस जानवर को किसी मस्जिद में घुसा देना इस धारा के अंतर्गत दंडनीय अपराध होगा।

    इस धारा के अंतर्गत अपराध की संरचना के लिए यह सिद्ध किया जाना चाहिए कि अभियुक्त का आशय किसी वर्ग विशेष के धर्म का अनादर करना था। आशय का पता किए गए कार्य की प्रकृति से लगाया जा सकता है। मंदिर की चारदीवारी में किसी शुद्र का जाना अपराध नहीं है यदि उसका आशय धर्म का अपमान करना नहीं है। यह आशय आवश्यक तत्व है किसी व्यक्ति द्वारा धारित जेनाउ को अभियुक्त द्वारा नष्ट करना अपराध नहीं है क्योंकि उसके धर्म के अंतर्गत जेनाउ पहनना आवश्यक नहीं बताया गया है। उसे जेनाउ धारण करने का अधिकार नहीं है वह तो उच्चवर्गीय न होते हुए भी उच्चवर्गीय दिखाई देने के उद्देश्य से जेनाउ पहनता था।

    हिंदू मंदिर के किसी भाग में जो गैर ब्राह्मणों के निमित्त खोला गया है किसी शूद्र की उपस्थिति उस मंदिर को अपवित्र नहीं बनाती है। कृषि भूमि पर अनाज के लिए झोपड़ी खड़ी कर देने को मस्जिद नहीं कहा जा सकता यदि उसका उद्देश्य भविष्य में मस्जिद का निर्माण करना है तो उसे उपासना स्थल नहीं माना जा सकता।

    बनारसीलाल के एक प्रकरण में व्यक्तियों के किसी समूह को एक वर्ग में गठित करने के लिए आवश्यक है कि वर्गीकरण के सिद्धांतों का पालन किया जाए। शिव शंकर 1940 लखनऊ के प्रकरण में कहा गया है कि धारा 295 के उपबंधों को लागू करने के लिए आवश्यक है कि किसी वस्तु को व्यक्तियों के किसी वर्ग द्वारा माना जाए जहां कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा धारण किए गए पवित्र धागे को नष्ट क्षतिग्रस्त करता है जो ऐसे धागे को अपनी धार्मिक प्रथाओं के अंतर्गत धारण करने के लिए अधिकृत नहीं है वहां इसे किसी धर्म का अपमान नहीं माना गया है अर्थात वह पवित्र धागा हिंदुओं के उच्चवर्गीय समाज हेतु ही पवित्र है किसी अन्य समाज के लिए धागा पवित्र नहीं है। जिस समाज के लिए धागा पवित्र नहीं है उसके द्वारा उस धागे को पहना गया है उस धागे को तोड़ दिया जाता है यहां धारा 295 का अपराध नहीं माना जाएगा।

    धारा 295 के लिए आवश्यक है कि जिस कार्य के द्वारा किसी धार्मिक मान्यता को अपमानित किया गया है तो इस प्रकार की धार्मिक मान्यता उस व्यक्ति के धर्म में पवित्र होनी चाहिए जैसे की मस्जिद केवल मुसलमानों के लिए पवित्र है मस्जिद के अपमान के लिए कोई मुसलमान ही मुकदमा ला सकते हैं, कोई हिंदू जिसके लिए मस्जिद पवित्र नहीं है अपमान के लिए मुकदमा नहीं ला सकता क्योंकि मस्जिद हिन्दुओ की आस्था का केंद्र नहीं है।

    धारा 295 (ए)

    भारतीय दंड संहिता की धारा 295 (ए) विमर्शित और विद्वेषपूर्ण कार्य जो किसी वर्ग के धार्मिक विश्वासों का अपमान करता है या आहत करता है उसे दंडनीय अपराध करार देती है।

    यह धारा भारतीय नागरिकों के किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करने या उन्हें आहत करने के आशय से किए जाने वाले विचार पूर्ण और विद्वेषपूर्ण कार्यों को दंडनीय ठहरती है।

    यह धारा संविधान के अनुच्छेद 19(2) (क) अनुसरण करती है जो भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए निर्मित किया गया है। इसे संविधान के अनुच्छेद 25(1) के अंतर्गत प्रदत अधिकार से असंगत भी नहीं कहा जा सकता।

    किसी विचार के माध्यम से यदि किसी धर्म की धार्मिक भावनाओं को आहत किया जाता है या ठेस पहुंचाई जाती है तो भारतीय दंड संहिता की धारा 295 इस प्रकार के कार्य को दंडनीय अपराध घोषित कर रही है। इस धारा को दंड विधि संशोधन अधिनियम 1927 की धारा 2 द्वारा इस संहिता में जोड़ा गया है। वर्तमान परिवेश में धारा का अत्यंत महत्व है अनेकों प्रकरण में इस धारा को प्रयोग किया जाता है क्योंकि समय समय पर लोग एक दूसरे के धार्मिक विश्वास तथा मान्यताओं को आहत करते रहते हैं। संचार के इस युग में जहां पर विचारों का आदान-प्रदान अत्यंत सरलतापूर्वक किया जा रहा है ऐसी स्थिति में इस प्रकार का अपराध घटित होना अत्यंत सरल हो चुका है। इस धारा की प्रत्यय स्थापना का कारण रंगीला रसूल के मुकदमे में लाहौर उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय था जिसका संबंध तक धार्मिक नेता से था।

    रंगीला रसूल नाम से मुसलमानों की धार्मिक आस्थाओं को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से पुस्तक लिखी गई। इस प्रकरण के बाद ही भारतीय दंड संहिता में इस धारा का समावेश किया गया इसके पश्चात रिसाला एवर्तमन एआईआर 1947 लाहौर 594 के प्रकरण में निर्धारित किया गया कि किसी धर्म या उसके संस्थापक पर गंदी टीका टिप्पणी या आरोप धारा 153 (ए) के अंतर्गत अपराध है।

    कालीचरण शर्मा बनाम किंग एंपायर एआईआर 1927 के प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विचित्र जीवन नामक पुस्तक को हिंदू तथा मुसलमानों के बीच शत्रुता बढ़ाने वाली पुस्तक घोषित किया जिसमें पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवन का वर्णन किया गया था। ऐसी पुस्तकों अखबारों तथा दस्तावेजों आदि को ज़ब्त कर लेने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 95 के अंतर्गत सरकार को अधिकार प्राप्त है। इस धारा के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए दंड संहिता के प्रारूप कारों ने कहा था कि इस अध्याय में नई धारा जोड़ने का प्रस्ताव इस उद्देश्य से किया जा रहा है कि ताकि धारा में वर्णित कार्य को विशिष्ट अपराध बनाया और दंडित किया जाए। धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने का यह तर्क स्वीकार नहीं होगा की दिखाई देने वाले स्थान पर अपमानजनक वस्तु इसलिए रखी गई थी ताकि उसमें सुधार करने की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सके।

    सलमान रशदी की पुस्तक शैतानी आयात तथा तस्लीमा नसरीन की कुछ पुस्तकों को धारा 295 ए के भाव बोध में ही प्रतिबंधित किया गया था क्योंकि यह पुस्तक मुसलमानों की धार्मिक आस्थाओं को ठेस पहुंचाने का कार्य कर रही थी तथा समाज में अशांति का निर्माण कर रही थी। इस धारा के अंतर्गत विमर्श तथा विद्वेषपूर्ण ऐसे कार्य को दंडनीय बनाया गया है जिससे किसी वर्ग के धार्मिक विश्वासों को भावनाओं को आघात पहुंचता हो। ऐसे अपमानजनक कार्य अनेकों प्रकार से किए जा सकते हैं जो से उच्चारित या लिखित शब्दों अथवा संकेतों द्वारा या फिर अन्य प्रकार से होते है।

    रामजीलाल मोदी बनाम उत्तर प्रदेश एआईआर 1957 ऐसी 860 के मुकदमे में याचिकाकर्ता गौ रक्षक नामक एक मासिक पत्रिका का संपादन मुद्रण तथा प्रकाशन करता था। इस पत्रिका ने एक लेख छपा था जिसे इस आधार पर उसके विरुद्ध धारा 153 (ए) धारा 295 के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया। सत्र न्यायाधीश ने उसे धारा 153 ए के अपराध से मुक्त कर दिया लेकिन धारा 295 ए के अंतर्गत दोषी ठहराया और उसे 18 महीने के कठोर कारावास तथा ₹2000 का जुर्माना किया गया।

    उच्च न्यायालय में उस निर्णय के विरुद्ध अपील करने पर अपील को अस्वीकार कर दिया गया तब उसने संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करके धारा 295 ए को चुनौती दी और इसके समर्थन में यह तर्क दिया कि धारा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) मूल अधिकार का अतिक्रमण करती है और असंवैधानिक है।

    न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यह धारा धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले उन्हीं कार्यों को अपराध मानती है जो दुर्भावना से प्रेरित होकर किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान कर उसकी धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचाने के आशय से किए गए हो। यह धारा संविधान के विरुद्ध नहीं अपितु संविधान सम्मत है। इस धारा में धार्मिक भावनाओं को आघात करना दंडनीय बतलाया गया है यह दायित्व केवल भारतीय नागरिकों के किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचाना ही अभिप्रेत है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि किसी व्यक्ति के उच्चारित या लिखित शब्दों द्वारा या अन्यथा किसी विदेशी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचती है तो व्यक्ति धारा के अंतर्गत दंडनीय नहीं होगा।

    भारतीय दंड संहिता की इस धारा 295 ए के अंतर्गत 3 वर्ष तक के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है उसके साथ जुर्माना भी अधिरोपित किया जा सकता है।

    धार्मिक जमाव में विघ्न करना

    भारतीय दंड संहिता की धारा 296 वैध रूप से धार्मिक जमाव में विघ्न डालने को दंडनीय अपराध घोषित करती है। इस धारा के अंतर्गत अपराध की संरचना के लिए स्वेच्छापूर्वक विघ्न उत्पन्न करना, विघ्न ऐसे जमाव में किया जाना जो धार्मिक उपासना और संस्कार में कार्यरत है। ऐसी उपासना संस्कार का विधि पूर्ण विधि से किया जाना आवश्यक होता है।

    किसी धार्मिक जमाव में है विघ्न कारित करने का आशय है कोई भी धार्मिक कार्य के लिए व्यक्तियों के एकत्रित होने पर ऐसे एकत्रित हुए लोगों को किसी न किसी रूप से परेशान करना जैसे की नमाज पढ़ने के लिए भी एकत्रित हुए लोगों को उनके नमाज पढ़ने में व्यथित करना या परेशान करना, किसी पूजा स्थल पर एकत्रित हुए लोगों को पूजा करने से व्यथित करना परेशान करना। उनके जमाव में किसी भी प्रकार से विघ्न डालना।

    किसी भी धर्म के वर्ग के लोगों को धार्मिक अनुष्ठान संस्कार या उपासना के लिए एकत्रित होने का पूरा अधिकार है उसमें विघ्न उत्पन्न करना इस धारा में अपराध बताया गया है। ऐसे अवांछित विघ्नों को निषिद्ध करना ही इस धारा का उद्देश्य जिससे सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे और लोक शांति भंग न हो।

    यदि अभियुक्त के कार्य से सचमुच विघ्न उपस्थित हो जाता है तो उसका आशय सिद्ध करना आवश्यक नहीं है। मोहम्मद हुसैन के वाद में कहा गया है कि केवल अफवाह फैलाना या मस्जिद के सामने गीत गाना इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं है। विजय राघव के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुब्रमण्यम अय्यर ने के निर्णय दिया कि सार्वजनिक स्थान सड़क गली कूचे में धार्मिक उपासना का विस्थापन करना विधिपूर्ण विधि से किया गया नहीं माना जाएगा ऐसे कार्य शांत एकांत स्थल में किए जाने चाहिए ताकि सर्वजनिक हित प्रतिकूल ढंग से प्रभावित न हो और लोगों के आवागमन आदि के सामान्य अधिकार पर अतिक्रमण न हो।

    इस प्रकरण में कुछ मुसलमान लड़के मोहर्रम में शरीक होने के लिए ढोल बजाकर लोगों को बुला रहे थे। घोड़े पर सवार एक व्यक्ति ने उन्हें ढोल बजाने से मना किया न मानने पर उसने ढोल छीन लिया लेकिन दूसरे दिन दे दिया। निर्णय हुआ इस धारा के अंतर्गत उसने अपराध नहीं किया।

    इस प्रकार का धार्मिक जमाव अवैध रूप से होना चाहिए। कोई भी अवैध रूप से होने वाले धार्मिक जमाव में विघ्न डालने पर इस धारा के अंतर्गत अपराध कारित नहीं होगा क्योंकि धारा 296 स्पष्ट रूप से वैध शब्द का प्रयोग कर रही है। धार्मिक जमाव वैध रूप से होना चाहिए जैसे की सड़कों पर नमाज पढ़ना वैध रूप से धार्मिक जमाव नहीं है सड़क किसी भी स्थिति में नमाज पढ़ने के लिए नहीं है तथा सड़क पर किसी प्रकार की नमाज पढ़ी जाती है तो धारा 296 के अंतर्गत प्रकरण नहीं बनेगा।

    कब्रिस्तान में अतिचार करना

    किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसका अंतिम क्रिया कर्म उसके धर्म की मान्यताओं के अनुरूप किया जाता है। जैसे कि हिंदुओं द्वारा व्यक्ति के मर जाने के बाद उसको जलाया जाता है तथा मुसलमानों के द्वारा व्यक्ति के मर जाने के बाद उसे दफनाया जाता है। राज्य का यह कर्तव्य है इस प्रकार के व्यक्तियों को जलाए यह दफनाए जाने के स्थान पर शांति स्थापित करें। यदि किसी व्यक्ति द्वारा किसी श्मशान या कब्रिस्तान में कोई अतिचार किया जाता है मृतकों के अवशेषों के रूप में पृथक रखे गए स्थान में अतिचार किया जाता है, किसी मानव शरीर की अवहेलना या अंत्येष्टि के लिए एकत्रित हुए किन्हीं व्यक्तियों को विघ्न कारित किया जाता है जिससे ऐसे विघ्न से उन व्यक्तियों की धार्मिक आस्थाओं को ठेस पहुंचे दंडनीय अपराध है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 297 कब्रिस्तान और श्मशान में अतिचार करने को दंडनीय अपराध करार देती है। इस धारा के अंतर्गत इस प्रकार का अतिचार करने पर 1 वर्ष तक के दंड का निर्धारण किया गया है। इसके अंतर्गत अंत्येष्टि के लिए एकत्रित लोगों को विघ्न कारित करना ही नहीं बल्कि मानव शव की अवहेलना एकत्र जन समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाना या धर्म का अपमान करना भी दंडनीय बताया गया है। इस धारा के अंतर्गत अपराध का मूल तत्व आशय में निहित है जिस से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति ऐसे स्थानों पर अतिचार या ऐसा अन्य कोई कार्य करता है जिसे यह धारा दंडनीय बनाती है।

    एक पुराने प्रकरण में शव गाड़ने के स्थान पर कुछ लोगों का जाना और कब्र का जोतना इस धारा के अंतर्गत अपराध माना गया यदि उस भूमि पर उनका प्रवेश उसके स्वामी की सहमति से किया गया था तब भी अपराध है।

    रत्ना मुदली के प्रकरण में एक फकीर के मजार पर कुछ व्यक्तियों द्वारा रात्रि के समय लैंगिक संभोग किया जा रहा था। इस कृत्य को करते हुए मुजावर द्वारा उन्हें पकड़ा गया। न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 297 के अंतर्गत आरोपियों को दोषी करार दिया तथा इसे कब्रिस्तान में अतिचार माना गया।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 297 का अध्ययन करने पर यह ज्ञान होता है कि भारतीय दंड संहिता केवल जीवित मनुष्य के लिए ही अपराधों का निर्धारण नहीं करती है अपितु भारतीय दंड संहिता मृतक अवशेषों को भी दंड संहिता के अंतर्गत संरक्षित करती है। यदि किसी मानव शरीर को जो मृतक अवशेष है को किसी प्रकार का अवमान दिया जा रहा है इस प्रकार के अवमान को धारा 297 के अंतर्गत दंडनीय अपराध करार दिया गया है। जैसे कि किसी मानव मृत शरीर को लात से मारना उसे कलंकित करना।

    धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आशय से शब्द उच्चारित करना या कोई कार्य करना

    जिस प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए विचारों के माध्यम से किसी धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने को दंडनीय करार देती है उससे समांतर धारा 298 धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आशय से उच्चारित किए जाने वाले शब्दों पर दंड का निर्धारण करती है।

    इस धारा का प्रवर्तन क्षेत्र धारा 295 की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। इसका कारण स्पष्ट है यहां हर ऐसे कार्य दंडनीय बनाए गए हैं जो दूसरों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के ज्ञान से युक्त है। हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा गाय को गौ माता के रूप में माना जाता है और गौवध उनके के लिए असहनीय है अतः उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से गौवध पर रोक लगाना संविधान के अनुच्छेद 25 (क) उल्लंघन नहीं है।

    एक प्रकरण में खुलेआम किसी गांव में गौ मांस ले जाना या गाय बैल अथवा सांड काटना इस धारा के अंतर्गत दंडनीय माना गया है क्योंकि इससे यह निष्कर्ष सिद्ध होता था कि हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आशय से ऐसा कार्य किया गया था। विधि आयुक्तों ने इस पर कहा है कि ठेस पहुंचाने का आशय विमर्श होना चाहिए विमर्श से ऐसा कार्य किया गया था।

    अभियुक्त के शब्दों, कृत्यों, सुसंगत परिस्थितियों से यह प्रतीत होता हो कि उसका आशय ठेस पहुंचाने का था। किसी महिला द्वारा अवैध शिशु को जन्म के पूर्व उपयोग में लाए गए कपड़ों को शिशु के तथाकथित पिता के ऊपर फेंकने का कार्य इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं माना गया क्योंकि इस धारा का संबंध धर्म से है न की जाति से है। झटका के द्वारा बकरा काटना और उसके मांस को दुकान के बाहर रखकर बेचना या चमड़ा उतरने के बाद बाहर लटकाना मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला नहीं कहा जाएगा।

    गुलाब 1955 के एक प्रकरण में मुस्लिम समुदाय द्वारा बलि के पहले गाय को माला फूल से सजा कर परेड कराना फिर सहजदृश्य स्थान पर काटकर उसे सरेआम चारपाई पर ले जाना और चारपाई से उसके सींग और पैरों का लटकते रहना ऐसे तथ्य थे जिनसे न्यायालय इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि अभियुक्त का आशय हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना था क्योंकि गाय हिंदुओं के लिए पूजनीय है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 298 (1) वर्ष के कारावास के दंड का निर्धारण करती है तथा इसके साथ जुर्माना भी अधिरोपित किया जा सकता है।

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