भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 13 : झूठी गवाही देने और सबूत मिटाने के अपराध

Shadab Salim

18 Dec 2020 5:30 AM GMT

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 13 :  झूठी गवाही देने और सबूत मिटाने के अपराध

    पिछले आलेख में भारतीय दंड संहिता के अध्याय 10 के अंतर्गत लोक सेवकों के विधिपूर्ण प्राधिकार के अवमान के संबंध में चर्चा की गई थी। इस आलेख में झूठी गवाही अर्थात मिथ्या साक्ष्य के संबंध में चर्चा की जा रही है।

    भारतीय दंड संहिता सभी प्रकार के अपराधों का एक संग्रह है। मनुष्य द्वारा जितने भी अपराध किए जा सकते हैं किसी देश व समाज के लोगों के द्वारा जो भी अपराधों को किया जा सकता है उन सभी अपराधों को इस दंड संहिता में संकलित करने का प्रयास किया गया है। झूठी गवाही देना किसी भी न्यायिक प्रक्रिया को दूषित कर देता है इसलिए झूठी गवाही देने को अपराध बनाया जाना नितांत आवश्यक था।

    मिथ्या साक्ष्य

    न्यायिक प्रक्रिया को शुद्ध रखना किसी भी राज्य का परम कर्तव्य है। मिथ्या साक्ष्य न्यायिक प्रक्रिया को दूषित कर देते हैं यदि इस प्रकार का साक्ष्य दिया जाता है या गढ़ा जाता है तो निसंदेह ही इस प्रकार का साक्ष्य किसी भी न्यायिक कार्यवाही को बर्बाद कर देगा। इससे दोषी व्यक्ति बच जाएंगे तथा निर्दोष व्यक्ति को न्यायालय द्वारा दंड दे दिया जाएगा।

    झूठी गवाही को इस उद्देश्य से भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध बनाया गया है कि न्याय व्यवस्था सम्यक रूप से चलती रहे तथा समाज में किसी प्रकार के अन्याय का निर्माण नहीं हो। न्याय की अवधारणा है कि निर्दोष व्यक्ति को दंडित किया जाना दोषी व्यक्ति के बच जाने से कहीं अधिक अन्यायपूर्ण है इसलिए समस्त प्रक्रिया विधि इस बात पर बल देती है कि किसी भी निर्दोष व्यक्ति को दंडित नहीं किया जाना चाहिए। विधि का उद्देश्य है कि साक्ष्य पवित्र बना रहे ताकि न्याय को दूषित होने से बचाया जा सके। यही कारण है कि इस अध्याय में झूठी गवाही के अपराधों को दंडनीय बनाया गया है।

    धारा 191

    धारा 191 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत मिथ्या साक्ष्य देना परिभाषा को प्रस्तुत करती है। इस धारा के अनुसार- जो कोई शपथ द्वारा या विधि के किसी अभिव्यक्त उपबंध द्वारा सत्य कथन करने के लिए वैध रूप से आबद्ध होते हुए या किसी विषय पर घोषणा करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध होते हुए ऐसा कोई कथन करेगा जो मिथ्या है और या तो जिसके मिथ्या होने का उसे ज्ञान और विश्वास है या जिसके सत्य होने का उसे विश्वास नहीं है वह मिथ्या साक्ष्य देता है यह कहा जाता है।

    इस धारा के स्पष्टीकरण-1 के अनुसार कोई कथन चाहे वह मौखिक हो या अन्यथा किया गया हो इस धारा के अर्थ के अंतर्गत आता है।

    इस धारा के स्पष्टीकरण-2 के अनुसार अनुप्रमाणित करने वाले व्यक्ति के अपने विश्वास के बारे में मिथ्या कथन इस धारा के अर्थ के अंतर्गत आता है और कोई व्यक्ति यह कहने से कि उसे उस बात का विश्वास है जिस बात का उसे विश्वास नहीं है तथा यह कहने से कि वह उस बात को जानता है जिस बात को वह नहीं जानता मिथ्या साक्ष्य देने का दोषी हो सकेगा।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 191 का अध्ययन करने के पश्चात यह ज्ञान होता है कि शपथ अथवा प्रतिज्ञान पर किया गया कथन तब ही शपथ भंग का अपराध माना जाता है जब वह किसी न्यायिक कार्यवाही में किया गया है। किसी सक्षम न्यायाधिकरण के समक्ष किया गया है प्रश्न से तात्विक संबंध रखता है झूठा है कथन करने वाले को यह ज्ञान है कि वह झूठ है।

    यदि यह सभी तत्व पाए जाते हैं तो मिथ्या साक्ष्य का अपराध बन जाता है-

    दंड संहिता की धारा 191 के अधीन मिथ्या साक्ष्य देने का अपराध कारित होने के लिए किसी व्यक्ति का शपथ पर या विधि के किसी अभिव्यक्त उपबंध द्वारा सत्य कथन करने के लिए यह किसी विषय पर घोषणा करने के लिए अवगत होना आवश्यक है। मिथ्या साक्ष्य देने का अपराध घटित होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कैसा साक्ष्य देने वाला व्यक्ति द्वारा शपथ ली गई हो या प्रतिज्ञान किया गया हो।

    मिथ्या साक्ष्य देने के अपराध के बचाव में यह तर्क प्रस्तुत नहीं किया जा सकता कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में प्रविष्ट होने के लिए आबद्ध नहीं था तथा स्पष्ट है कि मिथ्या साक्ष्य देने का अपराध घटित होने के लिए किसी व्यक्ति का सत्य कथन करने के लिए उपलब्ध होना मात्र पर्याप्त है। यदि कोई व्यक्ति विधि के किसी अभिव्यक्त उपबंध द्वारा सत्य कथन करने के लिए आबद्ध नहीं हो तो उसे इस धारा के अंतर्गत दंडित नहीं किया जा सकता।

    मिथ्या कथन के साक्ष्य के अपराध के गठन के लिए एक आवश्यक तत्व यह भी है कि यह विश्वास होना चाहिए कि वह कथन झूठ है या इस बात में विश्वास नहीं होना कि वह सत्य है।

    इस प्रकार का कथन न्यायालय भारतीय न्यायालय होना चाहिए अन्यथा ऐसा कोई भी अपराध कारित हुआ नहीं माना जाएगा जिसके लिए अभियुक्त भारत में उत्तरदायी हो।

    भारतीय न्यायालय में आने वाले मुकदमों के अंतर्गत कुछ मामलों को मिथ्या साक्ष्य देना धारण किया गया है जैसे किसी साक्षी का दूसरे के नाम से गवाही या साक्ष्य देना। किसी व्यक्ति द्वारा अपने वाद का मिथ्या सत्यापन किया जाना और समन की तामील का मिथ्या कथन किया जाना। किसी न्यायिक कार्यवाही में उपयोग में लाए जाने के प्रयोजन से मिथ्या साक्ष्य देना।

    भारतीय दंड संहिता केवल मिथ्या साक्ष्य देने को ही अपराध करार नहीं देती है अपितु इस प्रकार के मिथ्या साक्ष्य को गढ़ने को भी अपराध बनाया गया है। साक्ष्य से संबंधित अपराधों की श्रंखला में दूसरा अपराध मिथ्या साक्ष्य गणना अर्थात ऐसा सबूत गढ़ना जो झूठा है।

    धारा 192

    भारतीय दंड संहिता की धारा 192 झूठा सबूत गढ़ने के संबंध में उल्लेख कर रही है। इस संबंध में उल्लेख कर रही इस धारा की परिभाषा और दृष्टांत में मिथ्या साक्ष्य के कुछ आवश्यक तत्व प्रतीत होते हैं जैसे कोई परिस्थिति उत्पन्न करना या किसी पुस्तक की अभिलेख में मिथ्या प्रविष्टि करना या मिथ्या कथन निहित दस्तावेज की रचना करना।

    इन कार्यों या मिथ्या प्रविष्ठियां मिथ्या कथन को इस आशय से करना कि वह मिथ्या सबूत हो सके किसी न्यायालयीन प्रक्रिया में इस प्रकार का कार्य किया जाना किसी ऐसी प्रक्रिया में जो किसी लोक सेवा के किसी मध्यस्थ के समक्ष विधि द्वारा हो।

    दंड संहिता की धारा 191 धारा 192 का अध्ययन करने के बाद यह प्रश्न जन्म लेता है कि इन धाराओं के अंतर्गत न्यायिक कार्यवाही किसे कहा जाएगा? न्यायिक कार्यवाही से अभिप्राय किसी मामले के संबंध में न्याय प्रशासन के अनुक्रम में न्यायालय द्वारा कोई कदम उठाना है। जनरल क्लॉज़स एक्ट 1887 एससी की धारा 3 के अनुसार शपथ पर साक्ष्य लेने की शक्ति जिसमें प्रतिज्ञान भी सम्मिलित है न्यायिक कार्यवाही के परीक्षण का घोतक है।

    छेदीलाल 1907 के प्रकरण में इस संबंध में प्रश्नों का जन्म हुआ था। इस प्रकरण में अभियुक्त के भाई ने न्यायालय से यह प्रार्थना की के मामले के साक्षी को पहले अभियुक्त को पहचानने के लिए कहा जाए और साक्ष्य बाद में ली जाए। न्यायालय ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। अभियुक्त के भाई ने 10, 12 व्यक्तियों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया किंतु साक्ष्यों में से किसी ने उन व्यक्तियों में से अभियुक्त के रूप में किसी व्यक्ति को नहीं पहचाना। न्यायालय ने यह जानना चाहा कि अभियुक्त कहां है तब अभियुक्त के भाई ने एक ऐसे व्यक्ति की ओर संकेत किया जो अभियुक्त नहीं था। इस प्रकरण में धारण किया गया कि अभियुक्त का भाई साक्ष्य गढ़ने का दोष था।

    एक अन्य मामले में एक दस्तावेज की तिथि में परिवर्तन किया जो बिना ऐसे परिवर्तन के रजिस्ट्रीकरण के लिए विहित समय अवधि के रजिस्ट्रीकरण के लिए प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। यह धारण किया गया कि अभियुक्त ने इस धारा के अंतर्गत अपराध किया है।

    भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें मिथ्या साक्ष्य गढ़ने का अपराध नहीं माना जाता है। जैसे कि जहां मिथ्या साक्ष्य न्यायालय की कार्यवाही में प्रयुक्त करने हेतु नहीं गढ़ा गया हो और जहां गढ़ा गया मिथ्या साक्ष्य न्यायिक कार्यवाही में अग्रहम हो अर्थात उसे ग्राहम नहीं किया गया हो।

    जहां गढ़ा गया झूठा सबूत ऐसे लोक सेवक के समक्ष प्रस्तुत किया गया हो जिसे अन्वेषण करने का अधिकार नहीं हो। पुलिस अन्वेषण करती है तथा पुलिस के सामने इस प्रकार का झूठा साक्ष्य करना इस धारा के अंतर्गत अपराध है।

    मिथ्या साक्ष्य के लिए दंड

    भारतीय दंड संहिता की धारा 193 झूठा सबूत देने के लिए दंड की व्यवस्था करती है। धारा 191 धारा 192 के अंतर्गत जिन अपराधों की परिभाषा प्रस्तुत की गई है उन अपराधों के लिए धारा 193 और धारा 194 में दंड निर्धारित किया गया है। इस धारा के अधीन अपराध के गठन के लिए आशय का महत्वपूर्ण स्थान है यदि कथन मिथ्या था और अभियुक्त को यह ज्ञात अथवा विश्वास था कि वह मिथ्या है तो यह माना जाएगा कि कथन करते समय अभियुक्त ने आशय था।

    साशय मिथ्या कथन दिया था यह आवश्यक नहीं है कि झूठा सबूत मामले के लिए तात्विक हो अपराध का मूल तत्व आशय मिथ्या साक्ष्य साथ देना और गढ़ना है।

    सदाशिव एआईआर 1956 के मामले में कहा गया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन पुलिस अनुसंधान के अनुक्रम में दंडाधिकारी द्वारा कथन अभिअलिखित किया जाना अथवा किसी गांव के पटेल के आचरण की जांच के संबंध में साक्ष्य इस धारा के अर्थों में न्यायिक प्रक्रिया के प्रक्रम में नहीं मानी जाती।

    धारा 193 के अनुसार इस प्रकार का झूठा सबूत देने पर 7 वर्ष तक का कारावास निर्धारित किया गया है तथा इसके साथ जुर्माना भी अधिरोपित किया जाएगा।

    झूठा सबूत गढ़ने पर 7 वर्ष का कारावास और झूठी गवाही देने पर 3 वर्ष के कारावास का दंड निर्धारित किया गया है। यदि मृत्यु दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध कराने के आशय से झूठा सबूत दिया गया है या गढ़ा गया है तो धारा 194 के अनुसार आजीवन कारावास जो कि कठिन कारावास होगा दंड का निर्धारण किया गया है और यदि इस प्रकार का झूठा सबूत देने के कारण किसी व्यक्ति की दोषसिद्धि हो जाती है और उसे फांसी दे दी जाती है तो इस स्थिति में इस प्रकार का झूठा साक्ष्य देने वाले व्यक्ति को भी मृत्यु दंड दिया जाएगा।

    धारा 194 के अंतर्गत अपराध का जन्म तब होता है जब अभियुक्त ने किसी व्यक्ति की मृत्यु से दंडित अपराध के लिए दोषसिद्ध कराने के आशय से मिथ्या सबूत दिया हो अथवा गढ़ा हो।

    धारा 199 के अंतर्गत ऐसी घोषणा जो साक्ष्य के रूप में विधि द्वारा ली जा सके किया गया मिथ्या कथन दंडनीय अपराध है। एसएस जग्गी बनाम स्टेट के मामले में प्रतिपक्ष ने अपना प्रकरण किसी अन्य न्यायालय में अंतरित कराने के आशय से एक मिथ्या प्रमाण पत्र पेश किया और कहा कि प्रकरण की सुनवाई करने वाला न्यायधीश तथा याचक दाता का अधिवक्ता दोनों पुराने सहपाठी रहे हैं अतः उन से न्याय की आशा नहीं है। अभियुक्त को धारा 199 के अंतर्गत अपराध का दोषी माना गया। इसी प्रकार चंद्रपाल सिंह महाराज सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया कि न्यायालय द्वारा शपथ पत्र में अभियुक्त प्रतिस्पर्धी संगठनों को स्वीकार करना अथवा स्वीकार करना मात्र धारा 199 के अधीन आरोप का आधार नहीं बन सकता।

    सबूत मिटाना

    शंकरनारायण भाड़ोलकर बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र एआईआर 2004 उच्चतम न्यायालय 1966 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि बंदूक द्वारा किसी की हत्या कारित करना हत्या के पश्चात लाश को बोरे में डालकर ले जाना तथा अभियुक्त की सूचना पर लाश को बरामद करना धारा 201 के अंतर्गत अपराध का गठन करने के लिए पर्याप्त है। धारा 201 के अंतर्गत अपराध के सबूत का विलोपन या अपराधी को प्रतिष्ठित करने के लिए झूठी खबर देना भी दंडनीय अपराध है। सबूत को मिटाया जाना भी धारा 201 के अंतर्गत दंडनीय अपराध बनाया गया है। यदि इस प्रकार के अपराध के सबूत को मिटाया गया है जिस अपराध का दंड मृत्युदंड है तो इस स्थिति में सबूत मिटाने पर 7 वर्ष तक के दंड का निर्धारण है और आजीवन कारावास से दंडित अपराध के सबूतों को मिटाना धारा 201 के अंतर्गत 3 वर्ष तक की अवधि के कारावास का प्रावधान है। इस धारा के अंतर्गत 10 वर्ष से कम के दंडनीय अपराध के सबूतों को मिटाया जाना भी दंडनीय अपराध है। इस स्थिति में उतना कारावास होगा जितना कारावास उस अपराध के दंड का एक चौथाई है।

    झूठा आरोप लगाना

    भारतीय दंड संहिता की धारा 211 के अंतर्गत नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से झूठा आरोप लगाकर किसी व्यक्ति को न्यायिक कार्यवाही में उलझाना भी अपराध घोषित किया गया है। इस धारा के अंतर्गत 7 वर्ष तक के दंड का निर्धारण किया गया है। कोई आपराधिक कार्यवाही झूठे आरोपों के अंतर्गत संस्थित करना या किसी व्यक्ति के ऊपर झूठे आरोप लगाना धारा 211 के अंतर्गत दंडनीय अपराध है।

    संतोष सिंह बनाम इजहार हुसैन एआईआर 1973 उच्चतम न्यायालय 2190 के प्रकरण में कहा गया है कि मिथ्या आरोप की अभिव्यक्ति दांडिक कार्यवाही संस्थित करने के साथ पढ़ी जानी चाहिए। किसी व्यक्ति को इस प्रकार की दांडिक कार्यवाही में झूठा उलझाना दंडनीय अपराध हैं।

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