भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 11: जानिए बलवा और दंगा क्या होता है

Shadab Salim

16 Dec 2020 2:00 PM GMT

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 11: जानिए बलवा और दंगा क्या होता है

    पिछले आलेख पर भारतीय दंड संहिता के अध्याय 8 लोक शांति के विरुद्ध अपराधों के संबंध में विधि विरुद्ध जमाव पर चर्चा की गई थी। इस आलेख में अध्याय 8 के दो महत्वपूर्ण विषय बलवा और दंगा के संबंध में चर्चा की जा रही है।

    बलवा और दंगा सामाजिक लोक शांति के लिए अत्यंत गंभीर अपराध है। बलवे और दंगे के पीछे कोई सामान्य उद्देश्य, सामान्य आचरण होता है। किसी विचार से बंध कर लोग राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते तथा सामाजिक द्वेष के चलते बलवा और दंगा कारित करते हैं। इस प्रकार के कार्य किए जातें कि बलवा दंगे के अंतर्गत आम जनसाधारण को क्षति होती है और समाज की उन्नति का रास्ता रुकता है तथा अनेकों व्यक्तियों की जिनका कोई दोष नहीं होता मृत्यु तक हो जाती है। बलवा और दंगा विधि शासन के लिए कलंक के समान होता है। विधि शासन का अर्थ होता है विधि का शासन अर्थात व्यक्तियों पर विधि शासन करेगी और विधि को बनाए रखना राज्य का परम कर्तव्य होता है। राज्य बलवा और दंगे के अपराध को किसी भी स्थिति में दमन करता है। तत्काल निर्णय लेकर राज्य बलवा और दंगा समाप्त करता है तथा आम जनसाधारण के बीच लोक शांति को स्थापित करता है। भारतीय दंड संहिता के अध्याय 8 में बलवा और दंगे को विशेष रूप से उल्लेख किया गया है जिस पर चर्चा इस आलेख के अंतर्गत की जा रही हैं।

    बलवा

    बलवा विधि विरुद्ध जमाव का ही एक गंभीर रूप होता है। जब कोई विधि विरुद्ध जमाव एकत्रित होता है तो वहां पर बलवा होने की पूर्ण संभावना होती है। विधि विरुद्ध जमाव का सामान्य उद्देश्य होता है तथा जमाव के सभी सदस्य सामान्य उद्देश्य से बंध कर एक विचार में होकर बलवा कारित कर देते हैं। बलवा का शाब्दिक अर्थ है जब विधि विरुद्ध जमाव हिंसा का रूप ले लेता है और उसमें बल का प्रयोग किया जाता है तब ऐसा विधि विरुद्ध जमाव बलवा हो जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 146 के अंतर्गत इसकी परिभाषा दी गई है जिसके अनुसार-

    'जब कभी विधि विरुद्ध जमाव द्वारा आया उसके किसी सदस्य द्वारा ऐसे जमाव के सामान्य उद्देश को अग्रसर करने में बल या हिंसा का प्रयोग किया जाता है तब ऐसे जमाव का हर सदस्य बलवा करने के अपराध का दोषी होगा।

    भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 146 बलवे की परिभाषा प्रस्तुत करती है तथा धारा 147 के अंतर्गत बलवे के लिए दंड की व्यवस्था की गई है। धारा 147 के अंतर्गत बलवे के लिए 2 वर्ष तक का कारावास और जुर्माना दंड के रूप में निर्धारित किया गया है।

    अब तक के अध्ययन से इस बात का ज्ञान हो चुका है कि विधि विरुद्ध जमाव का ही एक गंभीर रूप बलवा बन जाता है तथा धारा 146 का अध्ययन करने के बाद बलवे के कुछ आवश्यक तत्व है जो निकल कर सामने आते हैं, जिनका यहां पर उल्लेख किया जाना आवश्यक है-

    5 या 5 से अधिक व्यक्तियों द्वारा विधि विरुद्ध जमाव का गठन किया जाना।

    उनका सामान्य उद्देश्य से प्रेरित होना।

    विधि विरुद्ध जमाव या उसके किसी सदस्य द्वारा हिंसा का या बल का प्रयोग किया जाना।

    ऐसे बल या हिंसा का प्रयोग सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में किया जाना।

    प्रत्येक बलवा विधि विरुद्ध जमाव तो होता ही है अर्थात यदि कहीं पर बलवा होगा तो पहले विधि विरुद्ध जमाव होगा। उसके लिए पुलिस द्वारा धारा 141 की सहायता ली जाएगी धारा 141 के अंतर्गत पहले विधि विरुद्ध जमाव का प्रकरण बनाया जाएगा फिर विधि विरुद्ध जमाव के बाद धारा 147 के अंतर्गत बलवे का प्रकरण बनाया जाएगा क्योंकि किसी भी विधि विरुद्ध जमाव में बलवा भी हो सकता है तथा बलवा यदि होगा तो विधि विरुद्ध जमाव का विद्यमान होना आवश्यक है।

    विधि विरुद्ध जमाव का बलपूर्वक हिंसात्मक रूप ही बलवे का रूप लेता है। लक्ष्मी अम्मा बनाम समीपप्पा एआईआर 1968 मद्रास 310 के प्रकरण में यह कहा गया है कि विधि विरुद्ध जमाव के सारे तत्व बलवे में विद्यमान रहते हैं। केवल हिंसा या बल ही एक ऐसा तत्व है जो विधि विरुद्ध जमाव में नहीं होकर बलवे में रहता है तो यही इन दोनों में अंतर कर पाए। विधि विरुद्ध जमाव में हिंसा और बल तो नहीं होता है परंतु वह जमाव विधि के विरुद्ध ही होता है। जब इस प्रकार के जमाव में हिंसा और बल हो जाता है तो वह बलवा बन जाता है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा में प्रयुक्त शब्द हिंसा में संपत्ति के प्रति हिंसा भी सम्मिलित है क्योंकि हिंसा केवल शरीर के प्रति ही नहीं होगी। हिंसा लोक संपत्ति को क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से भी होगी जैसे की भीड़ द्वारा इकट्ठा होकर किसी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से पत्थर चला देना। रामदीन दुबे के प्रकरण में कहा गया था कि बल का प्रयोग चाहे वह कितनी ही अल्प मात्रा में क्यों न किया गया हो बलवा का अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त माना जाता है।

    बनवारी एआईआर 1965 पटना 45 के प्रकरण में कहा गया है कि बलवा के लिए विधि विरुद्ध जमाव के सभी सदस्यों का किसी सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में कोई कार्य किया जाना आवश्यक है।

    रघुनाथ राय के पुराने प्रकरण में कतिपय हिंदुओं ने सामूहिक रूप से एक मुसलमान से एक बेल दो गाय बलपूर्वक हटा ली इसलिए नहीं कि अपने को दोषपूर्ण लाभ हो या उनके स्वामी को दोषपूर्ण हानि हो बल्कि इस प्रयोजन से कि उन गायों को वध से रोका जा सके। यह धारण किया गया कि वह बलवे के दोषी थे यह 19वीं शताब्दी का प्रकरण है।

    बलवा 5 से अधिक व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है। बलवे के अंतर्गत यह आवश्यक नहीं है कि बलवा कोई संप्रदाय के जातिगत हिंसा के अंतर्गत ही हो बलवा किसी भी कारण से हो सकता है।

    जैसे कि पति-पत्नी के बीच कोई विवाद हो गया हो और पत्नी के घरवाले पति के घर भीड़ के रूप में एकत्रित होकर आएं तथा पति के घर वालों पर हमला कर दे यहां पर पत्नी के घरवाले धारा 147 के अंतर्गत बलवे के दोषी है।

    प्रीतम सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब 1977 क्रिमिनल लॉ जनरल 51 के प्रकरण में कहा गया है कि बलवे के अपराध के लिए कम से कम 5 व्यक्तियों का विधि विरुद्ध जमाव होना आवश्यक है। अतः जहां छह अभियुक्तों में से किसी दो को दोष मुक्त कर दिया गया हो वहां शेष चार को 148 के अंतर्गत दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।

    अमर सिंह और अन्य बनाम स्टेट ऑफ पंजाब एआईआर 1987 उच्चतम न्यायालय 826 के प्रकरण में कहा गया है कि विधि विरुद्ध जमाव के लिए कम से कम 5 या 5 से अधिक व्यक्तियों का होना आवश्यक है। जहां किसी मामले में सात अभियुक्तों में से दो को विचारण न्यायालय ने तथा एक को उच्च न्यायालय ने दोषमुक्त कर दिया हो तथा बाकी चार घटना में शरीक नहीं हो वहां उन्हें धारा 147 सहपाठी धारा 149 के अंतर्गत दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।

    बलवा करने के अपराध के लिए धारा 147 के अंतर्गत कम से कम 5 व्यक्तियों को दंडित किया जाएगा। इस धारा के अंतर्गत दंडित करते हुए ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ व्यक्तियों को दंडित कर दिया जाए तथा अन्य व्यक्तियों को छोड़ दिया जाए। यदि दंडित किया जाएगा तो कम से कम 5 व्यक्तियों के ऊपर दंड होना चाहिए।

    केवल तीन व्यक्तियों को बलवे के लिए दंडित नहीं किया जा सकता। मनवीर और अन्य बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु एआईआर 1980 उच्चतम न्यायालय 573 में कहा गया है कि जहां किसी सामान्य उद्देश्य के साथ विधि विरुद्ध जमाव के बारे में कुछ नहीं हो कोई साक्ष्य नहीं हो और घटनास्थल पर अचानक झगड़ा हो गया हो वह अभियुक्तगण को धारा 147 148 149 के अंतर्गत दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।

    स्टेट आफ उत्तर प्रदेश बनाम जोधा सिंह के प्रकरण में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि अचानक झगड़ा हो जाने पर यदि हमला किया जाता है तो यह विधि विरुद्ध जमाव के गठन की परिधि में नहीं आता है ऐसे झगड़े को धारा 147, 148 के अंतर्गत दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।

    राजाराम बनाम मध्यप्रदेश राज्य 1992 एसएससी 634 के मामले में नामधारी और गैरनामधारी व्यक्तियों ने अपराध कार्य में भाग लिया था। साथियों द्वारा कई व्यक्तियों के विरुद्ध धारा 141, 147, 149 के अर्थबोध में अपराध अध्यारोपण किया गया। इस तरह के मामले में यह मापदंड लागू किया गया कि क्या उनके नामों का उल्लेख प्रथम इतना रिपोर्ट में किया गया था। यह मापदंड निर्णायक नहीं था परंतु इससे यह तो सुनिश्चित होता था कि कौन से व्यक्ति अपराध कार्य में लगे थे। साक्षियों ने तो जहां 10 व्यक्तियों के भागीदार बनने का दोषरोपण किया था वही प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में अभियुक्त 1, 2, 3 और 10 का ही नाम उल्लिखित था।

    उच्च न्यायालय ने इन चार अभियुक्तों को तो तथा अभियुक्त 8 को इस आधार पर दोषसिद्ध किया था कि गवाहों के साक्ष्य के अनुसार अभियुक्त ने लाठी से प्रहार किया था। शेष अभियुक्तों को दोष मुक्त कर दिया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त 8 भी उसी आधार पर संदेह के लाभ का हकदार होने के कारण दोषमुक्त कर दिया जाना चाहिए जिस आधार पर शेष अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया था। शेष चार अभियुक्त कतिपय अन्य व्यक्तियों के साथ जो कुल मिलाकर 5 से अधिक होते थे आपराधिक घटना में भाग लेने के कारण दोष मुक्ति के हकदार नहीं थे।

    भीमा बनाम महाराष्ट्र राज्य 2002 एसएससी 33 के प्रकरण में आशयित भीड़ द्वारा गांव में डंडों और पत्थरों से आक्रमण किया गया। यह स्थापित नहीं हो सका कि विनिर्दिष्ट रूप से किस ने किस पर आक्रमण किया था। आक्रमण का शिकार व्यक्ति क्षति के कारण मारा गया। तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया गया की भीड़ का आशय मृत्यु कारित करने का नहीं था अपितु अच्छी पिटाई करने का था। अतः धारा 147, 323 और 325 के अधीन न की धारा 302/ 149 के अधीन दोष सिद्धि को न्याय कराया गया।

    घातक हथियारों से लैस होकर बलवा करना

    विधि विरुद्ध जमाव का आक्रमक और हिंसात्मक रूप बलवा है और बलवे का भी आक्रामक तथा हिंसात्मक रूप गंभीर बलवा है अर्थात खतरनाक हथियारों से जैसे तलवार, पिस्तौल, बंदूकों, लट, पत्थरों से लेस होकर बलवा करना। भारतीय दंड संहिता की धारा 148 इस प्रकार के बलवे का उल्लेख कर रही है क्योंकि सामान्य रूप से बलवा बगैर हथियारों के ही नहीं किया जाता जब भी बल और हिंसा का प्रयोग किया जाता है तो उसमें हथियारों का भी प्रयोग किया जाता है। हथियारों का प्रयोग करते हुए जब बलवा कारित किया जाता है तो दंड संहिता की धारा 148 के अंतर्गत 3 वर्ष तक की अवधि के कारावास और जुर्माने का निर्धारण किया गया है। यह बलवे का अत्यधिक उत्तेजक रूप है, इस स्वरूप से इसके अंतर्गत अधिक दंड रोपण किया गया है।

    धारा 149

    धारा 149 कुछ सीमा तक सामान्य आशय से संबंध रखती है। जैसा कि पूर्व के आलेख में हमने भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के अंतर्गत सामान्य आशय का अध्ययन किया है इसी प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 149 विधि विरुद्ध जमाव के हर सदस्य द्वारा सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने के लिए दोषी करार देती है।

    जब कभी कोई बलवा किया जाता है तथा उस बलवे में जितने भी सदस्य सम्मिलित होते हैं वह सभी सदस्य बलवे में किसी एक सदस्य द्वारा किए गए किसी कार्य के लिए दोषी हो सकते हैं क्योंकि सभी सदस्यों का सामान्य उद्देश होता है। इसके अनुसार यदि विधि विरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा उस जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में अपराध किया जाता है या कोई ऐसा अपराध किया जाता है जिसका किया जाना उस जमाव के सदस्य के उद्देश्य को अग्रसर करने में सामान्य जानते थे तो हर व्यक्ति जो उस अपराध के किए जाने के समय उस जमाव का सदस्य है उस अपराध का दोषी होगा।

    यदि सरलता से समझे तो विधि विरुद्ध जमाव का प्रत्येक व्यक्ति उन सब कार्यों के लिए उत्तरदायीं होगा जो किसी सामान्य उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए किए जाएं। यद्यपि कार्य उसने स्वयं नहीं किया हो ऐसे कार्यों के लिए वह उस सीमा तक उत्तरदायीं होता है मानो वह कार्य उस अकेले व्यक्ति ने ही किया हो।

    विधि विरुद्ध जमाव के सदस्यों द्वारा ऐसा कोई अपराध किसी सामान्य उद्देश्य को पूरा करने के लिए किया गया या विधि विरुद्ध जमाव के सदस्य यह जानते थे कि वह अपराध किसी सामान्य देश को पूरा करने में किया जाना संभव था तो प्रत्येक व्यक्ति जो अपराध के किए जाने के समय उस जमाव का सदस्य रहा हो उस अपराध का दोषी माना जाएगा।

    जैसे कि किसी गांव में कोई भीड़ एकत्रित होती है तथा वह भीड़ एकत्रित होकर किसी व्यक्ति के घर पर हमला करती है। पत्थरों के द्वारा उस भीड़ में से कोई व्यक्ति बंदूक निकाल कर घर पर गोली चला देता है तथा घर में उपस्थित किसी व्यक्ति की उस गोली से हत्या हो जाती है अब इस हत्या के लिए जितने भी लोग घर पर हमला कर रहे थे पत्थरों को चला रहे थे उन सभी के उद्देश्य को सामान्य उद्देश्य माना जाएगा तथा हत्या के लिए बलवे में शामिल सभी लोग उत्तरदायीं होंगे।

    यूनिस बनाम स्टेट ऑफ़ मध्य प्रदेश एआईआर 2003 उच्चतम न्यायालय 539 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित गया है कि धारा 149 के अंतर्गत दोषसिद्धि के लिए यह साबित किया जाना पर्याप्त है कि अभियुक्त विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य रहा है तथा घटनास्थल पर उसकी उपस्थिति निर्विवाद है उसका प्रकट कार्य साबित किया जाना आवश्यक नहीं है।

    महमूद बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश एआईआर 2008 उच्चतम न्यायालय 515 के मामले में कहा गया है कि जहां विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य होना स्थापित हो गया हो वहां अभियोजन पक्ष के लिए प्रत्येक सदस्य के प्रकट कार्य को साबित किया जाना आवश्यक नहीं है।

    इसी प्रकार यह धारा एक विशिष्ट और भिन्न अपराध का सृजन करती है। धारा की प्रयोज्यता के लिए दो बातें अपेक्षित हैं। पहली विधि विरुद्ध जमाव के किसी भी सदस्य द्वारा कोई अपराध कारित किया जाना तथा दूसरी ऐसे अपराध का जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर होने में किया जाना।

    सामान्य उद्देश्य को अग्रसर होने में शब्द से अभिप्राय सामान्य उद्देश्य को प्राप्त करने के अनुक्रम में है।

    एक मामले में बहुत से व्यक्तियों का एक दल मार्ग में दूसरे दल से भिड़ गया और उनमें झगड़ा शुरू हो गया। पहले दल का एक सदस्य झगड़े में घायल हो गया और वह एक तरफ पड़ा रहा तथा फिर उसने उस झगड़े में भाग नहीं लिया। इसके पश्चात दूसरे दल का एक व्यक्ति मारा गया यह धारण किया गया कि वह व्यक्ति जो घायल हो गई एक तरफ पड़ा रहा जिसने फिर झगड़े में भाग नहीं लिया उस दल का सदस्य नहीं रहा इसलिए झगड़े के परिणामस्वरुप हुई हत्या के लिए उत्तरदायीं नहीं ठहराया जा सकता।

    रुकनुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के एक मामले में इस बिंदु पर उच्चतम न्यायालय का यह महत्वपूर्ण निर्णय है। इस प्रकरण में कुछ अभियुक्तों द्वारा मृतक की हत्या की गई थी। मृतक अपने घर में था तथा उसे खींचकर बाहर चौक में लाया गया था। बाहर लाने के बाद उसकी हत्या की गई थी। अभियुक्तों में से एक केवल मृतक को घर में से खींचकर बाहर लाने तक ही विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य था। हत्या के समय वह घटना स्थल पर उपस्थित नहीं था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उसे धारा 149 की सहायता से हत्या के लिए दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता था।

    मोहिंदर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 1639 के मामले में सभी अभियुक्त एक साथ घटनास्थल पर आए थे। सब के पास घातक हथियार थे। दो के पास बंदूके थी सभी ने घटनास्थल पर आते ही हमला कर दिया उन्हें इस बात का आभास था कि उनके हमले से किसी की मृत्यु कारित हो सकती है या गंभीर चोट आ सकती है।

    उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि उनका व्यवहार सामान्य उद्देश्य तथा सामान्य उद्देश्य के निर्माण का प्रतीक है।

    सामान्य उद्देश्य सामान्य आशय में कुछ अंतर है विधि विरुद्ध जमाव के साथ सामान्य आशय सामान्य उद्देश्य के बीच अंतर माना जाता है।

    अमजद अली स्टेट ऑफ असम एआईआर 2003 उच्चतम न्यायालय 3587 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि सामान्य आशय और सामान्य उद्देश्य में अंतर है। सामान्य उद्देश्य में आक्रमण से पूर्व अभियुक्तगणों का मिलन अथवा मंत्रणा किया जाना आवश्यक नहीं है। सामान्य उद्देश्य घटनास्थल पर ही निर्मित हो सकता है क्योंकि विधि विरुद्ध जमाव किसी समय तो विधि के विरुद्ध नहीं होता है परंतु वह बाद में विधि विरुद्ध हो सकता है तथा उससे बलवा कारित हो सकता है।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के अंतर्गत सामान्य आशय का कोई कार्य आपराधिक कार्य अनेक व्यक्तियों द्वारा उन सब के सामान्य आशय को प्रेरित करने में किया जाना चाहिए जबकि धारा 149 के अंतर्गत सामान्य उद्देश्य में किसी विधि विरुद्ध जमाव का केवल सदस्य होना ही दंडनीय है।

    धारा 34 के अंतर्गत सामान्य आशय के लिए विधि विरुद्ध जमाव का होना आवश्यक नहीं है जबकि धारा 149 के अंतर्गत सामान्य उद्देश्य के लिए अभियुक्तों की संख्या पांच या 5 से अधिक होनी चाहिए।

    विधि विरुद्ध जमाव एवं बलवा के मामलों में प्रत्येक अभियुक्त के प्रकट कर्म को साबित करना आवश्यक नहीं है। मात्र यह साबित कर देना पर्याप्त है की विधि विरुद्ध जमाव के सभी सदस्यों ने एक सामान्य उद्देश्य के अगले चरण में हिस्सा लिया था। ठीक यही मत उच्चतम न्यायालय द्वारा बीको पांडे बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के मामले में अभिमत किया है इसमें यह अभिनिर्धारित किया गया की विधि विरुद्ध जमाव के मामलों में ऐसे जमाव के प्रत्येक सदस्य का प्रकट कार्य साबित किया जाना आवश्यक नहीं है।

    एक अन्य मामले में यह कहा गया है कि सामान्य उद्देश्य के आधार पर विधि विरुद्ध जमाव के सदस्यों को दोषसिद्ध करने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि अवैध कार्य अथवा अपराध सभी अभियुक्तगण के सामान्य उद्देश्य के आकर्षण में किया गया था अर्थात सभी अभियुक्तों को सामान्य उद्देश्य का ज्ञान था।

    दंगा

    दंगा प्रचलित शब्द है। लोक शांति से जुड़े हुए अपराधों में दंगे शब्द का प्रयोग साधारण रूप से किया जाता है। सांप्रदायिक तथा जातिगत हिंसा के दौरान होने वाले बलवा में दंगा देखने को मिलता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 159 दंगा की परिभाषा प्रस्तुत करती है तथा धारा 160 के अंतर्गत दंगे के लिए दंड निर्धारित किया गया है।

    दंगे का अर्थ सर्वजनिक स्थान पर लड़ाई द्वारा कार्य किए जाने वाला अपराध है जिसका उद्देश्य लोक शांति में विघ्न पैदा करना होता है। दंगे के अंतर्गत दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा लड़ाई किया जाना है। भारतीय दंड संहिता की धारा 159 का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि दो या दो से अधिक व्यक्ति यदि हैं और वह सार्वजनिक स्थान पर लड़ाई कर रहे हैं तो वे दंगे के दोषी हैं।

    दंगे के लिए दो बातें प्रमुख हैं सबसे पहली बात दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी सार्वजनिक स्थान पर लड़ाई कर रहे हो ऐसा सर्वजनिक स्थान जहां पर अनेकों लोग आते जाते हैं तथा वह लोगों का मार्ग है।

    सार्वजनिक स्थान समय-समय पर बदलता है बस,रेलवे स्टेशन, प्लेटफार्म, सार्वजनिक पेशाब घर, रेलवे स्टेशन का माल गोदाम है, किसी शॉपिंग मॉल को भी सार्वजनिक स्थान माना जाएगा जहां एक सार्वजनिक मार्ग पर दो भाई आपस में झगड़ते हुए एक दूसरे को गालियां देते हुए पाए जाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप वहां कई लोग इकट्ठा हो गए यहां तक यातायात भी रुक गया। यह अभिनीत किया गया कि दंगे अपराधी नहीं थे क्योंकि उन दोनों के बीच वस्तुतः लड़ाई हुई नहीं थी केवल गालियां दी गई।

    लड़ाई के परिणामस्वरूप शांति में विघ्न पैदा होना चाहिए लड़ाई होनी चाहिए जिससे लोक शांति में विघ्न पैदा हो जाए। भय फैलने की आशंका पैदा हो जाए।

    भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंगा बलवा दोनों एक ही प्रकार के अपराध है परंतु दंगा केवल सर्वजनिक स्थान में ही कारित किया जा सकता है जबकि बलवा सार्वजनिक अथवा निजी किसी भी स्थान पर हो सकता है। दंगा दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा कारित किया जा सकता है जबकि बलवा होने के लिए कम से कम 5 व्यक्ति होना चाहिए।

    दंगे के लिए दंड

    भारतीय दंड संहिता की धारा 160 दंगा करने के लिए दंड की व्यवस्था करती है। इस धारा के अनुसार जो कोई दंगा करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास जिसकी अवधि 1 माह तक की हो सकेगी या जुर्माने में से जो ₹100 तक का हो सकेगा या दोनों से दंडित किया जा सकेगा।

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