क्या होता है सबूत का भार? जानिए साक्ष्य अधिनियम की खास बातें

Shadab Salim

19 Jan 2020 10:45 AM IST

  • क्या होता है सबूत का भार? जानिए साक्ष्य अधिनियम की खास बातें

    साक्ष्य विधि का कार्य उन नियमों का प्रतिपादन करना है, जिनके द्वारा न्यायालय के समक्ष तथ्य साबित और खारिज किए जाते हैं। किसी तथ्य को साबित करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा सकती है, उसके नियम साक्ष्य विधि द्वारा तय किये जाते हैं। साक्ष्य विधि अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है।

    समस्त भारत की न्याय प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की बुनियाद पर टिकी हुई है। साक्ष्य अधिनियम आपराधिक तथा सिविल दोनों प्रकार की विधियों में निर्णायक भूमिका निभाता है। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही यह तय किया जाता है कि सबूत को स्वीकार किया जाएगा या नहीं किया जाएगा।

    अधिनियम को बनाने का उद्देश्य साक्ष्यों के संबंध में सहिंताबद्ध विधि का निर्माण करना है, जिसके माध्यम से मूल विधि के सिद्धांतों तक पहुंचा जा सके। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही जो इतने सारे अधिनियम बनाए गए हैं, उनके लक्ष्य तक पहुंचा जाता है।

    कोई भी कार्यवाही या अभियोजन चलाया जाता है, अभियोजन पूर्ण रूप से इस अधिनियम पर ही आधारित होता है। बिना साक्ष्य अधिनियम के अभियोजन चलाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा किसी भी सिविल राइट को बरकरार नहीं रखा जा सकता है। साक्ष्य अधिनियम 1872 अपने निर्माण से आज तक सबसे कम संशोधित किया गया है।

    साक्ष्य अधिनियम 1872 की प्रस्तावना से यह स्पष्ट है कि यह अधिनियम विशाल है, क्योंकि यह साक्ष्य विधि की कल्पना की परिभाषा देता है, समेकित करता है तथा संशोधन करता है।

    साक्ष्य विधि में 'सबूत का भार' सिद्धांत

    साक्ष्य विधि में 'सबूत का भार' सिद्धांत का अत्यंत महत्व है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी सबूत के भार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यह कहा जा सकता है कि सबूत का भार सिद्धांत साक्ष्य अधिनियम के मूल सिद्धांतों में से एक है तथा यह सिद्धांत साक्ष्य विधियों का मूलभूत सिद्धांत है।

    सबूत का भार सिद्धांत की परिभाषा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 में दी गई है। इस परिभाषा के अंतर्गत यह बताया गया है कि सबूत का भार किस व्यक्ति पर होगा। इस परिभाषा के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को साबित करने के लिए आबद्ध है, तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है।

    जब किसी तथ्य को साबित करने के लिए सबूतों को लाने की आवश्यकता होती है। सबूतों को लाने का दायित्व भी किसी व्यक्ति पर बनता है। किसी वाद या कार्यवाही के भीतर सबूतों का भार किस व्यक्ति पर होगा। तथ्य को कौन व्यक्ति साबित करेगा तथा कौन सबूत पेश करेगा यह तय करना सबूत का भार सिद्धांत के अंतर्गत किया जाता है। प्रत्येक पक्षकार को ऐसे तथ्य स्थापित करने होते हैं जो उसके पक्ष में हो तो दूसरे पक्षकारों के विपक्ष में हो

    साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 के अंतर्गत

    "जो कोई न्यायालय से यह चाहता है कि वह ऐसे किसी विधिक अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय दे, जो तथ्यों के अस्तित्व पर निर्भर है, जिन्हें वह प्राख्यान करता है,उसे साबित करना होगा कि उन तथ्यों का अस्तित्व है। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य का अस्तित्व साबित करने के लिए आबद्ध है तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है।"

    धारा का यह सिद्धांत यह है कि जो पक्षकार किसी तथ्य के अस्तित्व के बारे में न्यायालय का समाधान करवाना चाहता है और उसके के आधार पर निर्णय चाहता है, ऐसे तथ्य को साबित करने का भार उसी पर होगा।

    अगर कोई व्यक्ति कोई संपत्ति इस आधार पर काबिज से प्राप्त करना चाहता है कि वह संपत्ति का मालिक है तो उसे ही अस्तित्व साबित करना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति न्यायालय में किसी व्यक्ति को किसी अपराध में सजा दिलवाना चाहे तो अभियोजन चलाने वालों को सिद्ध करना होगा कि वह व्यक्ति अपराध का दोषी है।

    एक प्रकार से सिद्धांत को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जो व्यक्ति आरोप लगाता है, उसी व्यक्ति के ऊपर सबूत का भार आता है, अर्थात सबूत की जिम्मेदारी आरोप लगाने वाले व्यक्ति पर ही आती है।

    सबूत के भार और साबित करने का भार

    सबूत के भार तथा साबित करने के भार की तुलना करते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा है कि इनमें एक आवश्यक भेद है। सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जिसे कोई तथ्य साबित करना होता है और यह कभी बदलता नहीं है, परंतु साबित करने का भार का स्थान बदलता रहता है।साक्ष्य के मूल्यांकन में इस का भार लगातार बदलता रहता है।

    किसी भी वाद तथा कार्यवाही में साबित करने का भार निरंतर बदलता रहता है। यह भार कभी किस पक्षकार पर कभी किस पक्षकार निरंतर अपना स्थान बदलता है।

    सबूत का भार किस पक्षकार पर होता है

    यह धारा यह ध्यान आकर्षित करती है कि-अगर किसी भी ओर से साक्ष्य ना दिया जाए तो जिस पक्षकार की बात विफल हो जाएगी उसी पर साबित करने का भार होता है। अगर क ने ख पर उधार धन वसूली और मध्यवर्ती लाभ के लिए कोई वाद दायर किया है तो अगर कोई भी पक्षकार साक्ष्य ना दे पाए तो क का दवा विफल हो जाए, इसलिए क पर साबित करने का भार है।

    साक्ष्य अधिनियम की धारा 102 के अंतर्गत सबूत का भार किस पर होगा यह प्रावधान किया गया है। यह धारा कहती है कि

    "किसी वाद या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होगा जो असफल हो जाएगा यदि दोनों में से किसी भी ओर से कोई भी साक्ष्य न दिया जाएं।"

    इस सिद्धान्त से संबंधित महत्वपूर्ण वाद हुआ है, जिसे के एम नानावती बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र का मामला कहा जाता है। इस मामले में बीवी के प्रेमी की गोली मारकर उसके पति द्वारा हत्या की गई थी। महिला का पति नेवल ऑफिसर था। उसकी बीवी ने जारकर्म की संस्वीकृति की थी उसने बताया था कि उसका प्रेमी उसके घर आया तथा वह दोनों पति द्वारा रंगे हाथों पकड़े गए थे।

    पति ने अपनी रिवाल्वर निकाली तथा गोली अचानक चल गई। गोली चलने से प्रेमी आहूजा की मौके पर मृत्यु हो गई। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर था कि उनका संघर्ष हुआ, कि गोली या तो अचानक चल गई या आत्मरक्षा में चलाई गई। उसे दोषी पाया गया क्योंकि ऐसी कोई बात साबित नहीं कर पाया था।

    मेवा देवी बनाम रामप्रकाश के मामले में एक मोटर द्वारा दो व्यक्तियों को कुचल दिया गया था। मोटर के मालिक का यह कहना था कि स्ट्रिंग तथा ब्रेक के फेल हो जाने के कारण दुर्घटना हुई थी। न्यायालय ने कहा कि उसे ही यह साबित करना होगा और यह भी कि उसने गाड़ी सड़क के योग्य बचाए रखने के लिए उचित सावधानी बरती थी।

    यहां पर इस प्रकरण के द्वारा न्यायलय ने स्पष्ट बताया है की यदि व्यक्ति अपवाद के सहारे बचना चाहता है तो उसको अपवाद को सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा जो अपवाद के माध्यम से लाभ लेना चाहता है। यदि मोटर ब्रेक फेल होने का कारण लोगों पर चढ़ी थी और इसी के कारण लोगों की जान गई तो साबित करने का भार मोटर मालिक पर होगा उस व्यक्ति पर होगा जिस पर अभियोजन चलाया जा रहा है या जिस पर प्रतिकर के लिए मुकदमा लाया गया है।

    प्रबोध कुमार दास बनाम प्रफुल्ल कुमार दास के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है वसीयत के मामले में शुरू में साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर होता है जो इसका लाभ लेना चाहता है।

    यह और भी भारी हो जाता है जब संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियां भी रही हो।एक वसीयत का सही होने के बारे में कोलकाता उच्च न्यायालय इस कारण यकीन हो गया कि वसीयतकर्ता नि संतान था अपने अंतिम दिनों में भाई के लड़के के साथ रह रहा था।उसने उसे उसकी संपत्ति भी दी थी।

    एक अनपढ़ घूंघट में रहने वाली स्त्री ने अपने लड़के के पक्ष में अपनी कुल संपत्ति का दान पत्र हस्ताक्षरित किया। यह भार लड़के पर था। यह तथ्य साबित करे कि वह वैध दस्तावेज था, पूर्ण स्वतंत्रता से हस्ताक्षरित हुआ था। न्यायालय ने उस सबूत को मंजूर नहीं किया क्योंकि वसीयत नामे में तात्विक कमियां थी। यह निर्णय रनका निधि साहू बनाम नंद किशोरी साहू के मामले में दिया गया है।

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