भारत-बांग्लादेश भूमि सीमा समझौता 2015 : संवैधानिक प्रक्रिया, न्यायपालिका की भूमिका और मानवीय दृष्टिकोण

Himanshu Mishra

17 May 2025 6:01 PM IST

  • भारत-बांग्लादेश भूमि सीमा समझौता 2015 : संवैधानिक प्रक्रिया, न्यायपालिका की भूमिका और मानवीय दृष्टिकोण

    भूमि सीमा समझौता 2015 वह ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जिसने भारत और बांग्लादेश (Bangladesh) के बीच 1947 के विभाजन (Partition) के बाद से चले आ रहे जटिल सीमा विवाद (Boundary Dispute) को स्थायी रूप से सुलझाया। इस समझौते (Agreement) के तहत दोनों देशों ने न केवल अपने-अपने क्षेत्र में स्थित एन्क्लेव्स (Enclaves) का आदान प्रदान (Exchange) किया, बल्कि “विरुद्ध कब्ज़ा” (Adverse Possessions) की राशि पर भी सहमति व्यक्त की।

    इन छोटे-छोटे भू खंडों के कारण करीब 51,549 लोग लगभग सात दशक तक बिना किसी नागरिकता (Citizenship) और सरकारी सुविधाओं (Government Services) के जीवनयापन (Livelihood) करने को विवश थे । यह लेख सरल हिंदी में इन प्रमुख प्रावधानों (Key Provisions), कानूनी (Legal) आधार, ऐतिहासिक प्रक्रिया, वर्तमान चुनौतियाँ और सामाजिक प्रभाव को करीब से समझाएगा ताकि एक आम व्यक्ति (Layman) भी इसका उत्सर्जित महत्व (Significance) समझ सके।

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background)

    1947 में बने रेडक्लिफ़ रेखा (Radcliffe Line) ने सीमाएँ इतनी जल्दी और अधूरी जानकारी के आधार पर चिह्नित की थीं कि भारत के भीतर बांग्लादेशी एन्क्लेव्स (51 enclaves) और बांग्लादेश के भीतर भारतीय एन्क्लेव्स (111 enclaves) बन गए।

    इन भूखंडों में कभी भी कोई स्पष्ट प्रशासन (Administration) नहीं हुआ, जिससे वहाँ के लोग बिना स्कूल (Schools), अस्पताल (Hospitals), बिजली (Electricity) और पहचान पत्र (Identity Documents) के जीवनयापन करने को मजबूर रहे ।

    1974 में इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) और शेख मुजीब (Sheikh Mujib) ने पहला समझौता किया, परन्तु राजनीतिक और संवैधानिक अड़चनों (Constitutional Hurdles) के कारण वह लागू नहीं हो सका। इस लंबी प्रतीक्षा (Delay) ने इस समस्या को और जटिल (Complex) बना दिया।

    1974 का मूल समझौता और 2011 का अतिरिक्त प्रोटोकॉल (1974 Agreement and 2011 Protocol)

    1974 के समझौते ने एन्क्लेव्स का आदान प्रदान करने के लिए सहमति दी, पर दोनों देशों ने इसे अमली जामा नहीं पहनाया। सितंबर 2011 में विदेश मंत्रियों ने एक अतिरिक्त प्रोटोकॉल (Additional Protocol) पर हस्ताक्षर किए, जिसमें आदान प्रदान के नये ढाँचे और समयसीमा तय की गई। प्रोटोकॉल ने एन्क्लेव्स की गणना, सर्वेक्षण (Survey) और सीमा रेखा की पुनःचिह्नित (Demarcation) प्रक्रिया को गति दी

    एन्क्लेव्स और विरुद्ध कब्ज़ा (Enclaves and Adverse Possessions)

    समझौते के अंतर्गत भारत ने अपने 111 एन्क्लेव्स (लगभग 17,160.63 एकड़) बांग्लादेश को सौंपे, जबकि बांग्लादेश ने अपने 51 एन्क्लेव्स (लगभग 7,110.02 एकड़) भारत को दिए (Wikipedia)। साथ ही, दोनों देशों ने उन क्षेत्रों (Territories) को भी विनिमय करने पर सहमति दी जहाँ वास्तविक कब्ज़ा तो एक देश का था पर कानूनी अधिकार दूसरे देश के पास था। इस “विरुद्ध कब्ज़ा” (Adverse Possession) आदान प्रदान से लगभग 2,777 एकड़ भारत को मिले और 2,267 एकड़ बांग्लादेश को हस्तांतरित हुए (Wikipedia)।

    नागरिकता का विकल्प (Citizenship Choice)

    एन्क्लेव्स में रहने वाले वयस्क नागरिकों (Adult Residents) को दो विकल्प दिए गए: या तो वे अपनी मौजूदा जगह पर रहकर उस देश की नागरिकता स्वीकार करें, जिसने उनका एन्क्लेव्‍स हासिल किया, या वे अपनी पुरानी नागरिकता बनाए रखना चुनें और नए देश से चले जाएँ।

    नियुक्त हुए 75 संयुक्त टीमों (Joint Teams) ने जुलाई 2015 में लगभग दस दिनों के भीतर सभी परिवारों की गणना (Enumeration) की, जिसमें 14,000 से अधिक लोग भारतीय नागरिक बने और 36,000 से अधिक बांग्लादेशी नागरिक बने ।

    संविधान संशोधन और विधायी प्रक्रिया (Constitutional Amendment and Legislative Process)

    भारत में सीमा परिवर्तन (Territorial Adjustment) के लिए संविधान के अनुच्छेद 368 (Article 368) के तहत संशोधन आवश्यक था। इसलिए, संसद में 2013 में संविधान (119वाँ संशोधन) बिल प्रस्तुत किया गया, जिसे 6 जून 2015 को राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया ।

    30 मई 2015 को यह अधिनियम (Act) बन गया और भारतीय संविधान के प्रथम अनुसूची (First Schedule) में आवश्यक परिवर्तन किए गए। इस क्रियावली (Procedure) ने यह स्पष्ट कर दिया कि लोकतंत्र में सीमा परिवर्तन केवल विधायिका (Legislature) के माध्यम से ही संभव हैं।

    कार्यान्वयन का समय रेखा (Implementation Timeline)

    समझौते के अनुसार, एन्क्लेव्स का वास्तविक आदान प्रदान 31 जुलाई 2015 को मध्यरात्रि (Midnight) पर हुआ, और बॉर्डर सर्वे और फिजिकल डेमार्केशन (Demarcation) 30 जून 2016 तक पूर्ण करने का लक्ष्य रखा गया । निवासियों का स्थानांतरण (Transfer) 30 नवंबर 2015 तक समापन हुआ, जिससे 50,000 से अधिक लोग नई नागरिकता की सुविधाएँ ग्रहण कर सके।

    Tin Bigha गलियारा और Dahagram Angarpota (Tin Bigha Corridor and Dahagram Angarpota)

    बांग्लादेश का एकमात्र एन्क्लेव, Dahagram Angarpota, भारतीय सीमा के भीतर बसा हुआ है। इस तक बांग्लादेशी नागरिकों की आवाजाही सुगम बनाने के लिए 85 मीटर चौड़ा Tin Bigha गलियारा भारत ने बांग्लादेश को निरन्तर (Perpetual) पट्टा पर दिया । यह गलियारा 24 घंटे खुला रहता है, जिससे वहाँ के 20,000 नागरिकों को आवागमन (Movement) में सुविधा रहती है।

    जिला वार वितरण और जनसंख्या (District-wise Distribution and Population)

    2010 की एक संयुक्त जनगणना में कुल 51,549 लोगों का विवरण (Data) आया, जिसमें से 37,334 लोग भारतीय एन्क्लेव्स में और 14,215 लोग बांग्लादेशी एन्क्लेव्स में रहते थे । भारतीय एन्क्लेव्स मुख्यतः कोच बिहार (Cooch Behar) जिला में थे, जबकि बांग्लादेशी एन्क्लेव्स असम (Assam), मेघालय (Meghalaya), त्रिपुरा (Tripura) और पश्चिम बंगाल (West Bengal) के कुछ जिलों में स्थित थे।

    मुआवजा पैकेज (Compensation Package)

    सरकार ने एन्क्लेव्स से लौटने वाले लोगों के पुनर्वास (Rehabilitation) के लिए लगभग ₹1,005.99 करोड़ का मुआवजा (Compensation) पैकेज मंज़ूर किया । इस पैकेज में आवास सहायता (Housing Assistance), कृषि भूमि आवंटन (Land Allocation), स्वरोजगार योजनाएँ (Self employment Schemes) और सामाजिक कल्याण (Social Welfare) के प्रावधान शामिल थे, ताकि पुनर्वास के बाद जीवनयापन सुगम हो सके।

    सामाजिक और आर्थिक प्रभाव (Social and Economic Impact)

    समझौते के बाद एन्क्लेव्स के लोगों को पहचान पत्र (ID Cards), बैंक खाते (Bank Accounts), वोटर कार्ड (Voter Cards) और सरकारी सेवाएँ मिलनी शुरू हुई। इसके कारण उनकी शिक्षा (Education) और स्वास्थ्य (Healthcare) में सुधार हुआ। आर्थिक रूप से भी वे विकास के द्वार (Opportunities) खोल सके, क्योंकि अब वे सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं ।

    चुनौतियाँ और आलोचनाएँ (Challenges and Criticisms)

    हालांकि समझौता सफल रहा, परन्तु उसे लागू करते समय कई चुनौतियों (Challenges) का सामना करना पड़ा। कई लौटने वाले लोग परिवहन (Transportation) और नई नौकरी (Employment) प्राप्त करने में असमर्थ रहे। कुछ क्षेत्रों में मूलभूत ढांचे (Infrastructure) का अभाव अभी भी बना है। स्थानीय समुदायों ने यह चिंता जताई कि इस समझौते से नए प्रवास (Migration) की होड़ बढ़ेगी और उनकी सांस्कृतिक पहचान (Cultural Identity) प्रभावित होगी।

    कानूनी विश्लेषण (Legal Analysis)

    भूमि सीमा समझौता अंतरराष्ट्रीय क़ानून (International Law) के सिद्धांतों पारस्परिक सहमति (Mutual Consent) और मानवीय गरिमा (Human Dignity) का पालन करता है। भारतीय संदर्भ में, संविधानिक संशोधन ने संसद की सर्वोच्चता (Parliamentary Sovereignty) को स्थापित किया और यह बताया कि सीमा परिवर्तन केवल विधि (Law) के माध्यम से ही संभव हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 1960 के बेरूबारी (Berubari) मामले में भी कहा था कि सीमा परिवर्तन के लिए संविधान संशोधन जरूरी है, जो इस समझौते को न्यायसंगत (Legitimate) बनाता है।

    भूमि सीमा समझौते ने भारतीय संविधान में निहित कई महत्वपूर्ण सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से लागू किया है। सबसे पहले, अनुच्छेद 368 के माध्यम से संशोधन का प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी सीमा परिवर्तन के लिए संसद की सहमति अनिवार्य है। इस प्रक्रिया से स्पष्ट होता है कि सीमाओं में बदलाव केवल कार्यपालिका के निर्णय से नहीं, बल्कि जनप्रतिनिधियों के अनुमोदन द्वारा ही संभव हैं।

    अनुच्छेद 1 में 'संघ (Union of India)' की परिभाषा में किए गए संशोधन से यह पता चलता है कि संविधान अपनी मूल संरचना में आवश्यकतानुसार लचीला (Flexible) है और ऐतिहासिक परिस्थितियों के आधार पर परिवर्तन को स्वीकार करता है।

    अनुच्छेद 300-A (संपत्ति का अधिकार) के तहत uzun समय अनौपचारिक कब्ज़े (Informal Possession) में रहने वाले निवासियों को कानूनी दस्तावेज़ (Legal Title) मिलने से उनका अधिकार सुदृढ़ हुआ।

    अंत में, न्यायपालिका (Judiciary) ने कई बार रेखांकित किया है कि सीमा विवादों का समाधान राष्ट्रीय सार्वभौमिकता (National Sovereignty) के साथ-साथ नागरिक अधिकारों (Civil Rights) की रक्षा के माध्यम से ही किया जाना चाहिए। इस प्रकार, संविधान ने न केवल सीमाओं को पुनर्परिभाषित (Redefinition of Borders) किया, बल्कि वहां रहने वाले लोगों के मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) की भी रक्षा सुनिश्चित की।

    आज फिर यह क्यों चर्चा में (Why It Is in News Again)

    हाल के वर्षों में बांग्लादेशी enclaves से भारत आने वाले लोगों के पुनर्वास में देरी, रोजगार और आवास संबंधी वादे पूरे न होने की शिकायतें सामने आई हैं। इसके अलावा, असम और मेघालय जैसे राज्यों में स्थानीय संगठनों ने चिंता जताई है कि इससे अवैध प्रवासन (Illegal Migration) को बढ़ावा मिलेगा।

    कुछ राजनेताओं ने म्यांमार (Myanmar) और चीन (China) के साथ भी ऐसा समझौता करने का सुझाव दिया है, पर सुरक्षा (Security) और रणनीतिक (Strategic) पहलुओं के मद्देनजर यह विवादास्पद है।

    भूमि सीमा समझौता 2015 केवल दो देशों के बीच सीमा रेखा का पुनर्निर्धारण नहीं, बल्कि मानवाधिकार (Human Rights) और न्याय (Justice) का भी प्रतीक है। यह दिखाता है कि जटिल सीमा विवाद (Complex Border Disputes) का समाधान बंदूकों (Arms) से नहीं, बल्कि कानून (Law), संवाद (Dialogue) और सहानुभूति (Empathy) से किया जा सकता है।

    जहाँ तक कार्यान्वयन की चुनौतियाँ बची हैं, उन्हें दूर करने के लिए सरकारों और समाज को मिलकर प्रयास (Efforts) जारी रखने होंगे, ताकि इस ऐतिहासिक समझौते का पूरा लाभ सभी को मिल सके।

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