कौन से क्राइम्स में होता है सेशन ट्रायल
Shadab Salim
17 Nov 2024 10:21 AM IST
सेशन ट्रायल क्रिमिनल अदालती प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण और विशद ट्रायल है। यह ट्रायल बड़े अपराधों में होता है और लंबी प्रक्रिया होती है। सेशन ट्रायल सेशन जज के द्वारा किया जाता है। सेशन जज किसी भी ऐसे अपराध का स्वयं सीधे संज्ञान नहीं करता है जो उसके जो द्वारा BNSS की प्रथम सूची के अनुसार विचारणीय है। इस हेतु पहले कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का संज्ञान करता है उसके पश्चात उसे विचारण हेतु सेशन जज को सुपुर्द कर देता है।
बहस की धारा 248 के अंतर्गत किसी भी सेशन कोर्ट के समक्ष विचारण पब्लिक प्रोसिक्यूटर द्वारा किया जाएगा। इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार पब्लिक प्रोसिक्यूटर से ऐसा व्यक्ति तात्पर्य है जिसे राज्य सरकार द्वारा अभियोजन चलाने हेतु पब्लिक प्रोसिक्यूटर अर्थात सरकारी वकील नियुक्त किया है।
निरंजन सिंह बनाम जेबी बिज़्जा के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने अभिकथन किया है कि लोक अभियोजन का मुख्य कार्य है कि वह अन्वेषण के अधीन अपराध से संबंधित उपलब्ध सामग्री दस्तावेजों आदि का मूल्यांकन करके यह सुनिश्चित करें कि अपराधी के विरुद्ध आरोप गठित करने के समय आरोपित अपराध के सभी तत्वों का विद्यमान होना स्पष्ट प्रकट हो। पब्लिक प्रोसिक्यूटर राज्य की ओर से अभियुक्त पर अभियोजन चलाता है।
BNSS की धारा 250 के अंतर्गत डिस्चार्ज का प्रावधान रखा गया है। विचारण प्रारंभ होने पर अभियोजन के मामले का कथन प्रारंभ होने पर 250 के अंतर्गत उन्मोचन को रखा गया है। यदि जज को अभियुक्त एवं अभियोजन की दलीलों की सुनवाई करने के बाद दस्तावेजों का साक्षियों का विश्लेषण कर लेने के बाद यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया कोई अपराध नहीं बनता है तो वह अभियुक्त को धारा 250 के अंतर्गत डिस्चार्ज प्रदान कर देता है और ऐसा डिस्चार्ज करने के अपने कारणों को उल्लेखित कर देता है।
BNSS की धारा 251 के अंतर्गत यदि अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य उपलब्ध है तथा उसे डिस्चार्ज नहीं दिया जाता है तो ऐसी परिस्थिति में अभियोजन पक्ष के कथन को सुनने पर अभियुक्त की दलीलों को सुनने के उपरांत जज द्वारा आरोप विचरित किए जाते है। यह आरोप दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 251 के अंतर्गत विचरित किए जाते है।
इस धारा के अंतर्गत यदि जज यह पाता है कि मामला सेशन कोर्ट द्वारा विचारणीय नहीं है तो वह मामले को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित कर देता है। यदि जज यह पाता है कि मामला सेशन कोर्ट द्वारा विचारणीय है तो वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप लिखित रूप से विचरित कर देता है।
आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाए जाते है तथा उसमें यह देखा जाता है आरोप विरचित होने के बाद दोषी होने का अभिवचन करता है यह विचारण चाहता है।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम एसबी जोहरी सुप्रीम कोर्ट के मामले में एस जी कैंसर हॉस्पिटल इंदौर के लिए दवाएं तैयार करने के दौरान झूठे सर्टिफिकेट एवं कूटरचित दस्तावेज तैयार करने हेतु आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित है। हाई कोर्ट ने आपराधिक पुनरीक्षण में आरोपों को भी खंडित कर दिया। उस आदेश को मध्यप्रदेश शासन ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया विधि के स्थापित सिद्धांतों के अनुसार आरोपित किए जाने के पूर्व कोर्ट को प्रथमदृष्टया या विचार करना चाहिए क्या अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही किए जाने के लिए पर्याप्त आधार है। कोर्ट से अपेक्षा नहीं की जाती कि वह साक्ष्य का मूल्यांकन कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अभियुक्त को दोष सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत की गयी सामग्री पर्याप्त है या नहीं।
यदि कोर्ट की संतुष्टि हो जाती है कि अभियुक्त के विरुद्ध आगे कार्रवाई किए जाने के लिए प्रथमदृष्टया प्रकरण बनता है तो आरोपित किया जाता है।
अभियुक्त तब ही डिस्चार्ज किया जा सकता है जब अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य ऐसा हो कि उस पर दोष सिद्धि आधारित नहीं की जा सकती है।
महाराष्ट्र राज्य बनाम सोमनाथ थापा सुप्रीम कोर्ट के मुकदमे में आरोप विरचित करने के संदर्भ में सुप्रीम ने निर्धारित किया कि किसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रथमदृष्टया अपराध बन रहा है ऐसा तभी उपचारित किया जाएगा यदि उसके द्वारा अपराध किए जाने के ठोस आधार हो।
यह वाद में अभियुक्तों के विरुद्ध आतंकवाद एवं चिन्हित गतिविधियां निवारण अधिनियम 1987 के अंतर्गत मुंबई बम ब्लास्ट के प्रकरण में शामिल होने का आरोप था। इनमें से एक अभियुक्त के विरुद्ध आरोप भी था उसने स्वयं के धन से कुछ व्यक्तियों के लिए टिकट से खरीद कर हथियार परीक्षण हेतु पाकिस्तान भिजवाया था, लेकिन टिकट खरीदते हेतु धन दिए जाने के पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में उसे डिस्चार्ज कर दिया गया।
दोषी होने के अभिवचन का अर्थ यह है कि जब जज द्वारा अभियुक्त पर आरोप विरचित कर दिए जाते है, अभियुक्त का निर्णय होता है कि आरोपों को स्वीकार कर ले लेकिन ऐसा निर्णय किसी दबाव में नहीं होना चाहिए। यदि अभियुक्त चाहता है कि उसका विचारण हो तो उसके लिए कोर्ट को कह सकता है।
सामान्यता जज द्वारा अभियुक्त की दोषसिद्धि के अभिवचन को रेकॉर्ड किया जाता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि प्रत्येक मामले में अभियुक्त की दोषी होने के अभिवचन को अंकित किया जाए। अभियुक्त द्वारा अपने दोषी होने का अभिवचन स्वयं के मुख से किया जाएगा ना उसके किसी वकील के जरिए।
BNSS की धारा 253 के अंतर्गत अभियोजन साक्ष्य के लिए तारीख का निर्धारण किया जाता है। अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करने से इंकार कर देता है। वह अभिवचन नहीं करता है जब विचारण किए जाने का दावा करता है तब धारा 252 के अधीन दोषी नहीं किया जाता है तब जज मामले में अभियोजन साक्ष्य के लिए तारीख तय करता है। ट्रायल का प्रोग्राम बनाता है।
जज द्वारा ट्रायल प्रोग्राम बना देने पर अभियोजन के साक्ष्य की तारीख का निर्धारण कर दिया जाता है। ऐसी नियत तारीख पर जज सभी ऐसे साक्ष्य लेता है जो अभियोजन के समर्थन में पेश किए जाएं। न्यायधीश विवेक के अनुसार किसी साक्षी की प्रतीक्षा तब तक के लिए जब तक किसी अन्य साक्षी की परीक्षा ना कर ली जाए स्थगित करने की अनुज्ञा दे सकता है। किसी साक्षी को अतिरिक्त परीक्षा के लिए बुला सकता है।
अभियोजन साक्ष्य से धारा 254 के अंतर्गत साक्ष्य लेने के बाद अभियुक्त को मामले में दोषमुक्त हो जाने का एक अवसर प्राप्त होता है। जज अभियोजन साक्ष्य लेने और अभियुक्त की परीक्षा करने और अभियोजन प्रतिरक्षा को सुनने के पश्चात इस बात पर विचार करता है कि साक्ष्य नहीं है जिससे यह साबित हो कि अभियुक्त ने अपराध किया है। जज धारा 255 के अधीन दोष मुक्ति का आदेश अभिलिखित करता है।
यदि जज द्वारा धारा 255 के अंतर्गत अभियुक्त को दोष मुक्त नहीं किया जाता है तो धारा 256 के अंदर अभियुक्त को प्रतिरक्षा का अधिकार दिया जाता है। धारा 256 के अंतर्गत अभियुक्त की प्रतिरक्षा प्रारंभ की जाती है तथा उसे लिखित कथन देने के लिए या फिर कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है। यदि अभियुक्त किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज चीज पेश करने को विवश करने के लिए कोई आदेशिका जारी करने के लिए आवेदन करता है तो न्यायधीश ऐसी आदेशिका जारी करेगा परंतु यदि जज को लगता है कि ऐसी आदेशिका न्यायलय का समय नष्ट करने और न्याय में विलंब के लिए जारी करवाई जा रही है तो वह आदेशिका जारी नहीं करेगा।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम बद्री यादव के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिश्चित किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत अभियोजन के साक्षी के रूप में परीक्षण किए गए गवाहों को बचाव पक्ष की साक्षी के रूप में सन्निहित करके उनका बचाव पक्ष के साक्षी के रूप में परीक्षण किया जा सके।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 257 जब प्रतिरक्षा के साक्ष्य की परीक्षा हो जाती है तो मामले में पब्लिक प्रोसिक्यूटर अपनी बहस प्रस्तुत करता है और अभियुक्त या उसका एडवोकेट उत्तर देने का हकदार होगा परंतु जहां अभियुक्त या उसका एडवोकेट कोई विधि का प्रश्न उठाता है तो अभियोजन पक्ष जज की आज्ञा से ऐसे विधि प्रश्नों पर अपना निवेदन कर सकता है। एक अभियुक्त को अपनी पसंद के एडवोकेट द्वारा प्रतिरक्षित (डिफेंड) किए जाने का अधिकार है।
विधि के प्रश्न अभियुक्त एवं अभियोजन दोनों पक्ष की बहस सुनने के बाद जज मामले में अपना निर्णय लेगा। अभियुक्त की दोष सिद्धि हुई है तो वह भर्त्सना अथवा सदाचार की परीक्षा पर छोड़े जाने के दंडादेश के सिवाय अन्य दंडादेश के बिंदु पर निवेदन कर सकता है।
जब जज किसी अभियुक्त को सिद्ध दोष पाता है तो दंडादेश के प्रश्न पर विचार करते समय वह अभियुक्त के संबंध में व्यक्तिगत कार्य को जैसे उसका पूर्व अपराधिक रिकॉर्ड, आयु, नियोजन, शैक्षिक योग्यता, पारिवारिक दशा, सामाजिक स्थिति आदि को ध्यान में रख सकता है।
यदि जज ने अभियुक्त के संबंध इन बातों अनुपालन नहीं किया है तो मामला केवल दंडादेश के प्रश्न को तय करने हेतु सेशन कोर्ट को पुनः प्रेषित किया जाएगा। ऐसी दशा में सेशन कोर्ट द्वारा मामले में नए सिरे से विचार किया जाना आवश्यक नहीं होगा।
जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में आरोपी द्वारा प्रश्न दंडादेश के बारे में ना सुने जाने के पूरक आधार के रूप में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उठाया गया था लेकिन चूंकि कोर्ट ने इस प्रश्न पर विचार कर लिया था इसलिए इस बिंदु पर प्रश्न किए जाने का औचित्य नहीं था।
कमलाकार नंदराम भावसार बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में अभियुक्त को धारा 258 के अधीन दंड के प्रश्न में सुने जाने का समुचित अवसर प्रदान किए जाने के पश्चात ही दंडित किया गया था लेकिन उसे दिए गए दंड के विरुद्ध सुने जाने का अवसर नहीं दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने निश्चित किया कि अभियुक्त का प्रतिप्रेषण सदैव आज्ञापक नहीं होता है क्योंकि एक अपवाद है ना कि सामान्य नियम।
शिवाजी दयाशंकर बनाम महाराष्ट्र राज्य 2009 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए यह बात स्पष्ट की है कि दंड प्रणाली का मूल उद्देश्य समाज को अपराधियों से संरक्षित करना तथा उन लोगों के भीतर भय का संचरण करना जो किसी अपराध को करना चाहते है। यदि दंड की प्रणाली को ऐसा बनाया जाए जिससे अपराधियों के भीतर से दंड के प्रति कोई भय ही ना रहे तो सारी न्याय प्रणाली भ्रष्ट हो जाएगी तथा किसी भी दंड प्रणाली का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा तथा समाज के लिए एक गंभीर घटना होगी उसके अत्यंत बुरे दुष्परिणाम होंगे।