Transfer Of Property में प्रॉपर्टी Mortgage रखने वाले व्यक्ति का प्रॉपर्टी को वापस लेने का राइट
Shadab Salim
31 Jan 2025 2:40 AM

Transfer Of Property की धारा 60 बंधककर्ता के मोचन के अधिकार का उल्लेख करती है। मोचनाधिकार से तात्पर्य बन्धककर्ता के उस अधिकार से है जिसके माध्यम से वह बन्धकधन के भुगतान हेतु प्रतिभूत रखी गयी सम्पत्ति, बन्धक धन की अदायगी होते ही बन्धकदार से वापस प्राप्त करता है। 'रिडीम' शब्द से तात्पर्य है सम्पत्ति को वापस प्राप्त करना या दायित्व से मुक्त कराना।
इंग्लिश विधि के अन्तर्गत इस अधिकार को मोचन की साम्या के नाम से जाना जाता है। इसका कारण यह है कि यह अधिकार साम्या कोर्ट्स की देन है। बन्धकदार के जप्तीकरण के अधिकार के विरुद्ध बन्धककर्ता को उपचार प्रदान करते हुए कोर्ट्स ने यहाँ तक मत व्यक्त किया है। निश्चित तिथि पर बन्धक धन का भुगतान न होने की दशा में भी यह अधिकार जीवित रहता है, नष्ट नहीं होता है। इसके विपरीत भारत में मोचनाधिकार एक विधिक अधिकार है क्योंकि वह संविधि में उल्लिखित है।
बन्धक के सम्व्यवहार में बन्धककर्ता, जो कि बन्धक सम्पत्ति का स्वामी होता है तथा अपने स्वामित्व के कतिपय हितों को बन्धकदार को हस्तान्तरित करता है एवं कतिपय हितों को स्वयं धारित किए रहता है, मोचन का अधिकार स्वयं धारित किए हुए हितों में से एक है जिसका प्रयोग वह (बन्धककर्ता) अपने अवशिष्ट स्वामित्व (हितों) के फलस्वरूप उन हितों को प्राप्त करने के लिए करता है जिन्हें उसने बन्धकदार को हस्तान्तरित कर दिया था।
मोचन का अधिकार एक संविधि अधिकार है। इसका अन्त केवल उन रीतियों से हो सकता है जिन्हें विधि में मान्यता दी गयी है, यह रीतियां निम्न है-
(क) पक्षकारों के बीच करार द्वारा।
(ख) विलयन द्वारा।
(ग) विधिक उपबन्ध द्वारा जो बन्धककर्ता को बन्धक का मोचन करने से रोकता हो।
यदि ऐसा नहीं है तो मोचन का अधिकार अस्तित्ववान रहेगा भले बन्धककर्ता निर्धारित तिथि पर बन्धक धन का भुगतान करने में विफल रहा हो। बन्धक विलेख में अन्तर्विष्ट कोई प्रावधान जो मोचन को रोकने या गतिरोध उत्पन्न करने या उसका अपवंचन करने के उद्देश्य से है, शून्य होगा।
यदि बन्धककर्ता बन्धक धन का भुगतान करने में विफल रहता है और बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति को बेचने का निर्णय लेता है तथा कोई व्यक्ति उक्त बन्धक सम्पत्ति को विक्रय द्वारा प्राप्त करने हेतु प्रस्थापना करता है एवं बन्धकदार उक्त प्रस्थापना को स्वीकार कर लेता है किन्तु प्रस्थापक एवं बन्धकदार के बीच विक्रय विलेख का निष्पादन नहीं हुआ है, तो इस अवस्था में भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि बन्धककर्ता का मोचन का अधिकार समाप्त हो गया है। इस अवस्था में भी बन्धककर्ता अपने मोचन के अधिकार का प्रयोग करने में समर्थ होगा।
मोचनाधिकार विद्यमान बन्धक का एक अनुसंग है और तब तक अस्तित्व में रहता है जब तक कि बन्धक स्वयं अस्तित्व में रहता है। यह स्वयं इस धारा में वर्णित रीति से ही समाप्त हो सकता है। और यदि यह अभिकथित किया जाता है कि कोर्ट की डिक्री द्वारा अधिकार समाप्त हो गया है, तो वह आवश्यक है कि डिक्री मोचनाधिकार के समापन हेतु वर्णित रीति के अनुसार ही मोचनाधिकार एक विधिक अधिकार है। इसे ऐसी किसी भी शर्त द्वारा प्रतिबन्धित नहीं किया जा सकता है जो इस पर रोक लगाती हो या बाधा उत्पन्न करती हो यह कथन इस तथ्य से सुस्पष्ट है कि इस धारा में किसी प्रतिकूल संविदा के अभाव में पदावलि का प्रयोग नहीं किया गया है। यदि ऐसी कोई शर्त लगायी गयी है तो वह शून्य होगी।
मोचन का सिद्धान्त प्रारम्भ में प्रत्येक बन्धक संविदा में यह शर्त हुआ करती थी कि यदि निश्चित तिथि पर बन्धककर्ता, बन्धकधन का भुगतान करने में विफल रहता है तो बन्धक सम्पत्ति आत्यन्तिक रूप से बन्धकदार को हो जाएगी। पर इंग्लैण्ड में साम्या कोर्ट्स ने यह महसूस किया कि बन्धक के अधिकांश मामलों में बन्धकदार अनेक प्रकार से यह प्रयत्न करता है कि बन्धक सम्पत्ति उसी के पास बनी रहे।
इस प्रकार पहले से ही शोषित बन्धककर्ता को, बन्धकदार सम्पत्ति से भी वंचित करने का प्रयास करते हैं यह प्रक्रिया प्रतिभूति को सम्पूर्ण अवधारणा को हो समाप्त कर देती है। इस समस्या से बन्धककर्ता को मुक्ति दिलाने हेतु साम्या कोर्ट्स ने यह घोषित किया कि बन्धक लिखत में जब्ती का प्रावधान होने के बावजूद भी बन्धककर्ता को यह अधिकार होगा कि बन्धक धन तथा खचों का भुगतान कर बन्धक सम्पत्ति बन्धकदार से वापस प्राप्त कर सके। कोर्ट ने अपनी मान्यता को निम्नलिखित पदावलि में व्यक्त किया : 'एक बार बन्धक सदैव बन्धक और बन्धक के अतिरिक्त कुछ नहीं।'
सिद्धान्त "एक बार बन्धक, सदैव बन्धक" सर्वप्रथम हॅरिस बनाम हैरिस के बाद में लाई नाट्टियम द्वारा दृढ़ता पूर्वक स्थापित किया गया था। यह सिद्धान्त बन्धककर्ता के मोचनाधिकार को संरक्षण देने हेतु है। यह सिद्धान्त बन्धक विलेख में उल्लिखित समस्त करारों को जो मोचन के अधिकार को जब्त करते हैं तथा विल्लंगमों को या बन्धकदार द्वारा सम्पत्ति के संव्यवहारों, जो कि बन्धककर्ता के मोचनाधिकार के प्रयोग में व्यवधान उत्पन्न करते हों, को शून्य घोषित करता है। सन् 1902 में एक इंग्लिश एक वाद में कहा गया है कि
"और बन्धक के सिवाय कुछ नहीं। अतः वर्तमान में यह सूत्र अपने पूर्ण रूप में इस प्रकार है, "एक बार बन्धक, सदैव बन्धक और बन्धक के सिवाय कुछ नहीं।"
इस सूत्र वाक्य को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है-'एक बन्धक को अमोचनीय नहीं बनाया जा सकता है और ऐसे उपबन्ध जो मोचन को अमोचनीय बनाते हों, शून्य होंगे। भारत के सन्दर्भ में इस सूत्र की अभिव्यक्ति सेठ गंगाधर बनाम शंकर लाल के बाद में न्यायमूर्ति सरकार ने की है कि "बन्धक सदैव मोचनीय है"।
इस सिद्धान्त का उद्देश्य यह है कि संव्यवहार को जो वस्तुतः ऋण का संव्यवहार था और जिसके भुगतान के लिए प्रतिभूति दी गयी थी, अन्तरिती के चातुर्यपूर्ण प्रयत्नों के बावजूद, स्वामित्व विषयक संव्यवहार में परिवर्तित न किया जा सके या ऐसे संव्यवहार में परिवर्तित न किया जा सके जिसका प्रभाव स्वामित्व के अन्तरण के तुल्य हो।"
धारा 60 में वर्णित सिद्धान्त सभी प्रकार के बन्धकों पर लागू होता है चाहे वह प्रतिभूत बन्धक या अप्रतिभूत बन्धक हो।
मोचनाधिकार तथा जब्तीकरण का अधिकार- मोचनाधिकार बन्धककर्ता को प्राप्त है, जब कि जब्तीकरण अथवा विक्रय का अधिकार बन्धकदार को प्राप्त है किन्तु दोनों ही अधिकारों का विस्तार समान है। जब बन्धककर्ता का मोचन का अधिकार शोध्य होता है, उसी समय बन्धकदार का अपनी प्रतिभूति को प्रवर्तित कराने का अधिकार भी शोध्य होता है। किन्तु इस सिद्धान्त को बन्धक की शर्तों द्वारा सीमित किया जा सकता है और यदि परिसीमन (Limitation) अनुचित या दमनकारी नहीं है तो उसे प्रभावी बनाया सकेगा।