बच्चन सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मृत्युदंड पर लगाई गई महत्वपूर्ण सीमाएं

Himanshu Mishra

20 April 2024 1:41 PM GMT

  • बच्चन सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मृत्युदंड पर लगाई गई महत्वपूर्ण सीमाएं

    मृत्युदंड पर ऐतिहासिक मामला

    भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 1980 में बचन सिंह से जुड़े मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय लिया। यह फैसला पांच जजों की बेंच ने किया, जिसमें जस्टिस वाईसी चंद्रचूड़, ए गुप्ता, एन उंटवालिया, पीएन भगवती और आर सरकारिया शामिल थे।

    मामले की पृष्ठभूमि

    बच्चन सिंह को अपनी पत्नी की हत्या का दोषी पाया गया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। अपनी सज़ा पूरी करने और रिहा होने के बाद, वह अपने चचेरे भाई के परिवार के साथ रहता था। बचन सिंह पर तब तीन लोगों, देसा, दुर्गा और वीरन की हत्या का आरोप लगाया गया और एक सत्र न्यायाधीश ने उसे मौत की सजा सुनाई। पंजाब हाईकोर्ट ने मौत की सज़ा को बरकरार रखा और बचन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

    प्रमुख मुद्दे

    1. क्या हत्या के लिए मौत की सज़ा (भारतीय दंड संहिता की धारा 302) असंवैधानिक है?

    2. क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 354(3) में सजा देने की प्रक्रिया असंवैधानिक है क्योंकि यह अदालतों को यह तय करने में बहुत अधिक शक्ति देती है कि मौत की सजा दी जाए या नहीं?

    3. क्या मामले के तथ्य सीआरपीसी की धारा 354(3) के तहत मृत्युदंड देने के लिए "विशेष कारण" के रूप में योग्य हैं?

    फैसले की समीक्षा

    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने यह सीमा निर्धारित की है कि मृत्युदंड कब दिया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि मौत की सज़ा केवल "Rarest of Rare Case" मामलों में ही लागू की जानी चाहिए।

    सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत की राय से बचन सिंह की अपील खारिज कर दी। कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 354(3) की संवैधानिकता को बरकरार रखा, जो सजा के रूप में मौत की सजा की अनुमति देती है।

    कोर्ट ने बताया कि मौत की सज़ा आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के लिए उपलब्ध सज़ाओं में से एक है। संसद ने संहिता को संशोधित करते समय पहले ही इस पर विचार कर लिया था, 1898 की पुरानी सीआरपीसी को 1973 की वर्तमान सीआरपीसी के साथ बदल दिया था। चूंकि कानून वैकल्पिक दंड प्रदान करता है, इसलिए मृत्युदंड को अनुचित या सार्वजनिक हित के खिलाफ नहीं माना जाता है।

    हालाँकि, कोर्ट ने "Rarest of Rare Case" सिद्धांत की स्थापना की, जिसमें कहा गया है कि मृत्युदंड का उपयोग केवल सबसे असाधारण मामलों में ही किया जाना चाहिए। अदालतों को इतनी कड़ी सज़ा देने के लिए विशेष कारण बताने चाहिए।

    कोर्ट ने उन कारकों को भी रेखांकित किया जिन पर न्यायाधीशों को मृत्युदंड पर निर्णय लेते समय विचार करना चाहिए। न्यायाधीशों को गंभीर परिस्थितियों (जो अपराध को बदतर बना देती हैं) और शमन करने वाली परिस्थितियों (जो गंभीरता को कम करती हैं) दोनों को निष्पक्ष रूप से तौलना चाहिए।

    सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि आईपीसी की धारा 302 और सीआरपीसी की धारा 354(3) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन नहीं करती हैं, जिसका अर्थ है कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांतों के खिलाफ नहीं हैं।

    सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुख्य बिंदु

    1. अंतिम उपाय के रूप में मृत्युदंड: न्यायालय ने फैसला सुनाया कि आजीवन कारावास नियम है, जबकि मृत्युदंड अपवाद है। इसे सबसे गंभीर मामलों के लिए आरक्षित रखा जाना चाहिए।

    2. परिस्थितियों पर विचार: मृत्युदंड देने का निर्णय लेने से पहले न्यायाधीश को अपराध और अपराधी के विवरण पर विचार करना चाहिए।

    3. उत्तेजित करने वाले और कम करने वाले कारकों को संतुलित करना: न्यायाधीश को उन कारकों पर विचार करना चाहिए जो अपराध को अधिक गंभीर बनाते हैं और उन कारकों पर विचार करना चाहिए जो दंड की गंभीरता को कम कर सकते हैं।

    4. विशेष कारण आवश्यक: मृत्युदंड देने के लिए निचली अदालतों द्वारा पाए गए विशेष कारण होने चाहिए।

    जस्टिस भगवती ने अपनी असहमतिपूर्ण राय (Dissenting Opinion) में तर्क दिया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 302 में आजीवन कारावास के विकल्प के रूप में मृत्युदंड असंवैधानिक है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करता है। उनका मानना था कि मौत की सजा कब दी जा सकती है, इस पर कानून में स्पष्ट मार्गदर्शन का अभाव है।

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