The Indian Contract Act का सिविल लॉ में महत्व
Shadab Salim
7 Aug 2025 9:21 AM IST

The Indian Contract Act सिविल मामलों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक्ट है। यह एक्ट सिविल मामलों में ऐसा ही महत्व रखती है जैसा महत्व प्रशासनिक विधि के मामले में संविधान का है। इस एक्ट के बाद ही अन्य विधियों का जन्म हुआ है। भारत में संविदा विधि से संबंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक्ट भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट, 1872) अधिनियमित है। भारत में अंग्रेज शासन काल के समय इस एक्ट को भारत में सिविल विधि को समृद्ध बनाने हेतु बनाया गया था।
अंग्रेज शासन काल को अपने कंपनी संबंधित अनुबंध करने होते थे उस आवश्यकता की पूर्ति हेतु इस प्रकार के एक्ट का निर्माण हुआ। समय के साथ यह एक्ट गतिशील होता रहा और समय समय पर आने वाले वादों से यह एक्ट और समृद्ध हो गया तथा इसमें नित नूतन परिवर्तन होते गए, आज यह एक्ट अपने सर्वाधिक परिष्कृत रूप में भारत में प्रचलित है।
भारतीय संविदा विधि का संबंध मानवी जिज्ञासा से है जो विधि द्वारा शासित होता है तथा जिसका संबंध संविदा के संव्यवहार से है। मानव जाति के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह उसी प्रकार अपेक्षित एवं महत्वपूर्ण है जिस प्रकार संविधान की महत्ता राष्ट्रीय प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में है।
संविदा विधि कई दृष्टि से महत्वपूर्ण है। मानव जाति की आवश्यकता इस प्रकार है कि उसे संव्यवहार करना पड़ता है यह उसकी आवश्यकता है अथवा यह कहा जा सकता है कि संविदा मानव जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण भाग है।
जब कोई मनुष्य लेनदेन अथवा कोई व्यवहार करता है तो उसमें उन बातों का उल्लेख करता है जो संविदा के संदर्भ में होती हैं तथा जिन से संविदा की प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है।
यदि संविदा विधि अस्तित्व में न होती तो मानव जीवन से संबंधित बहुत सी परेशानियां भी पैदा होती। संविदा विधि के द्वारा उक्त संव्यवहारों में एकरूपता स्थापित होती है तथा किसी भी प्रकार की अनिश्चितता अस्पष्टता दूर होती है।
संविदा एक्ट 1872 का महत्व इसलिए भी है क्योंकि मनुष्य जब कोई कार्य अथवा संव्यवहार संपादित करता है तो अस्मिता का भाग माना जाता है। यदि कोई मनुष्य कोई विशिष्ट कार्य संपादित करने के लिए सहमत होता है किंतु यदि वह अपना कार्य संपादित करने में असफल रहता है तो ऐसी स्थिति में दूसरे व्यक्ति को क्या उपचार प्राप्त होंगे? ऐसी स्थिति में संविदा विधि की अपेक्षा होती है जिसके द्वारा उक्त प्रथम व्यक्ति को अपने कर्तव्य के निष्पादन हेतु बाध्य किया जाता जिससे दूसरे व्यक्ति को कोई हानि नहीं हो। ऐसी स्थिति में बहुत सी समस्याएं हल होती हैं।
जॉन ऑस्टिन और इंग्लैंड के जजों द्वारा एक शताब्दी पूर्व उपरोक्त संदर्भ में विचार किया गया। इससे संबंधित समस्या पर विचार करने के पर कुछ बातें निकल कर आई जिससे यह समृद्घ संविदा विधि का निर्माण हुआ।
भारत राज्य की सीमा के भीतर रहने वाले लोग आपस में कोई भी संव्यवहार करते हैं तो ऐसे संव्यवहार से संबंधित स्पष्ट विधि की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही संविदा अधिनियम, 1872 का महत्व सर्वाधिक हो जाता है।
जैसे कि एक व्यक्ति अपना घोड़ा बेचना चाहता है दूसरे व्यक्ति को घोड़े को खरीदने के लिए प्रस्ताव दिया दूसरे व्यक्ति ने घोड़ा खरीदने के लिए स्वीकृति दे दी, यह संव्यवहार हो गया।
अब दोनों एक दूसरे से मुकर नहीं सकते यदि दोनों एक दूसरे के वचन से मुकरते है तो ऐसी परिस्थिति में संविदा अधिनियम, 1872 के प्रावधान लागू होंगे और यहां पर इस बात पर बल दिया जाएगा किस प्रकार के संव्यवहार से किसी पक्षकार को कोई क्षति तो नहीं हुई है।
इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि इस एक्ट का भारत राज्य के भीतर कितना महत्व है। संपूर्ण सिविल विधि के लिए यह एक्ट मील के पत्थर की तरह हैं।
एक्ट का उद्देश्य ज्ञात करने के लिए प्रस्तावना एक्ट की पृष्ठभूमि और सामाजिक आर्थिक स्थितियों, परंपराओं तथा उस समय की आवश्यकताओं को देखा जाता है जबकि एक्ट पारित किया गया था।

