Consumer Protection Act में डिस्ट्रिक्ट फोरम में कंप्लेंट कैसे की जाती है?
Shadab Salim
26 May 2025 4:13 AM

डिस्ट्रिक्ट फोरम में कंप्लेंट कैसे की जाए इसके बारे में इस एक्ट की धारा 35 में बताया गया-
(1) विक्रय की गई किसी वस्तु या परिदत्त की गई या बिक्री की गई या परिदत्त की गई या उपलब्ध कराई गई किसी सेवा या उपलब्ध कराए जाने के लिए सहमति दी गई किसी सेवा के संबंध में परिवाद को जिला आयोग के पास फाइल किया जा सकेगा, जिसके अंतर्गत इलेक्ट्रानिक ढंग भी है-
(क) उपभोक्ता, जिन्हें ऐसे मालों का विक्रय किया गया है या परिदान किया गया है या विक्रय करने या परिदान करने की सहमति दी गई है या ऐसी सेवा उपलब्ध कराई गई है या उपलब्ध कराए जाने के लिए सहमति दी है, या
(ii) जो ऐसे मालो या सेवाओं के संबंध में अनुचित व्यापार व्यवहार का अभिकथन करता है;
(ख) कोई मान्यताप्राप्त उपभोक्ता संगम, चाहे वह उपभोक्ता, जिसे ऐसे मालों का विक्रय किया गया है या परिदान किया गया है या जिसे ऐसे मामलों का विक्रय करने या परिदान करने की सहमति दी गई है या ऐसी सेवा प्रदान की गई है या प्रदान करने की सहमति दी गई है या जो ऐसे मालो या सेवाओं के संबंध में अनुचित व्यापार व्यवहार का अभिकथन करता है, ऐसे संगम का सदस्य या नहीं,
(ग) एक या एक से अधिक उपभोक्ता, जहां अनेक ऐसे उपभोक्ता है, जिनका हित समान है, जिला आयोग की अनुज्ञा से सभी उपभोक्ताओं की ओर से या उनके फायदे के लिए इस प्रकार हितबद्ध सभी उपभोक्ता या
(ग) यथास्थिति, केन्द्रीय सरकार, केन्द्रीय प्राधिकरण या राज्य सरकार: परंतु इस उपधारा के अधीन परिवाद इलेक्ट्रानिक रूप में या ऐसी रीति में, जो विहित की जाए, फाइल किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण- इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए मान्यता प्राप्त उपभोक्ता संगम से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन कोई रजिस्ट्रीकृत स्वैच्छिक उपभोक्ता संगम अभिप्रेत है।
(2) उपधारा (1) के अधीन फाइल किए गए प्रत्येक परिवाद के साथ ऐसी फीस संलग्न होगी और ऐसी रीति में संदेय होगी, जिसके अंतर्गत इलेक्ट्रानिक प्ररूप भी हैं, जो विहित किया जाए।
इस धारा के अंतर्गत परिवादी के हक में ऋण का संवितरण न किये जाने के पश्चात् उसके द्वारा विरोधी पक्षकार के विरुद्ध प्रतिकर का दावा किया गया। ऐसी दशा में, जहां यह साबित करने के लिए विरोधी पक्षकार द्वारा कोई साक्ष्य नहीं पेश किये गये कि परिवादी को प्रश्नगत भूमि पर उसके हक को स्पष्ट करने के लिए या कतिपय औपचारिकताओं का अनुपालन करने के लिए कभी कोई सूचना नहीं दी गयी थी, वहां इतने पर भी विरोधी पक्षकार ने 300 रुपये की प्रशासनिक फीस का संदाय कर दिया।
इसके अतिरिक्त ऋण की मंजूरी के लिए कोई विस्तार नहीं होता, इसलिए यह अभिनिर्धारित किया गया कि विरोधी पक्षकार कार्यवाही फीस के रूप में वसूली गयी 240 रुपये को परिवादी के हक में वापस करने के लिए उत्तरदायी है और इसके साथ ही साथ उसे ऐसी रकम पर 13% वार्षिक दर ब्याज को प्राप्त करने का भी हकदार माना गया। अतएव, परिवाद का अंशतः स्वीकृत कर दिया गया।
कान्ती कुमार बनाम खण्ड प्रबंधक फेयर प्राइस जम्मू एवम् कश्मीर राज्य वन निगम, 1997 के मामले में विरोधी पक्षकार एवं परिवादी के बीच यह करार हुआ कि विरोधी पक्षकार उसको ईमारती लकड़ी के दावेदार स्लीपरों की आपूर्ति करेगा। परिवादी ने इसके लिए कीमत का भी संदाय कर दिया था। लेकिन ईमारती लकड़ी का परिदान नहीं किया जा सका। जहां विरोधी पक्षकार ने यह बचाव सम्बन्धी अभिवचन किया कि परिवादी ने स्वयमेव इस अभिवाक् के आधार पर ईमारती लकड़ी को नहीं उठाया कि उसका वह मानक स्तर नहीं था, जिस पर उनके बीच सौदेबाजी हुई थी, वहाँ विरोधी पक्षकार का यह मामला नहीं रहा कि परिवादी ने उसी ईमारती लकड़ी के लिए सौदेबाजी की थी, जिसका प्रस्ताव किया गया था।
अभिनिर्धारण में इसे, सेवा में कमी करने का एक मामला माना गया क्योंकि परिवादी को, ऐसी स्थिति के उत्पन्न हो जाने के कारण उच्चतर दर पर खुली बाजार में ईमारती लकड़ी खरीदनी पड़ी और जिसके परिणाम स्वरूप परिवादी को विरोधी पक्षकार से 18% व्याज सहित 21,025 रुपये की रकम को वापस प्राप्त करने एवं प्रतिकर एवं जुर्माना के रूप में अधिनिर्णीत 5,000 रुपये की रकम को प्राप्त करने का हकदार माना गया।
उत्तम बनर्जी बनाम जनरल मैनेजर एस0 वी0 आई0, (1993) के प्रकरण में जहाँ पर परिवादी ने मोटर साइकिल खरीदने के लिए बैंक से उधार लेने का ऋण प्रार्थना पत्र भरा परन्तु विपक्षी पार्टी ने उधार देने के लिए इंकार कर दी। विपक्षी पार्टी का साफ इंकार करना कि चूंकि ॠण प्रार्थना पत्र नहीं है तथा परिवादी मोटर साइकिल खरीदने का प्रस्ताव बयान दे रहा है। राष्ट्रीय आयोग बहुतेरे अवसरों पर यह अवलोकन किया है कि यह वित्तीय संस्थाओं का कार्य है कि वे तय करे कि कर्ज देना उचित है इसके लिए उसके मौजूद अवयवों ऋण वापसी की सम्भावनाओं तथा विश्वसनीयता एवं सच्चाई आदि पर विचारण करने के बाद तय करेगी तथा बैंक या वित्तीय संस्थाओं द्वारा कर्ज का मंजूर न करना सेवा की कमी नहीं है।
अतः उपर्युक्त विचारों से यह स्पष्ट है कि विपक्षी बैंक को ऋण कर्ता को ऋण प्रदान करना विवेक शक्ति है। परन्तु विपक्षी पार्टी बैंक यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे परिवादी की परेशानी तथा आवश्यकता को समझे और यदि कोई रास्ता या तरीका बैंक द्वारा निर्धारित बैंक या वित्तीय संस्थाओं के अन्दर मदद करने का तो अवश्य करना चाहिए जिससे कि बेरोजगार युवकों को प्रोत्साहन मिल सके उन्हें परिवादी को इस तरफ अवश्व मदद करने का प्रयास करना चाहिये। उन मामलों में यदि विरोधी पार्टी परिवादी को मोटर साइकिल खरीदने में वित्तीय सहायता देने में अक्षम है तो उसे उसकी वजह अवश्य बताना चाहिये ताकि परिवादी इस उपचार्थ मंच में जा सके। अतः इस प्रकार का निर्देश विपक्षी को अवश्य पालन करना चाहिये।
चूनी भाई एन. मुंशा बनाम सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया 1997 के मामले में मात्र यह तथ्य कि जो रकम ऋण संव्यवहार के अधीन कथित मिल्स एवम् इसके निर्देशकों से विरोधी पक्षकार दो देय है, वह भविष्य निधि खाते में कर्मचारियों के ऋण के प्रति पड़ी हुई रकम को वापस करने या संदाय को रोकने के लिए बैंक का अधिकार नहीं प्रदान करेगा। यह स्थापित विधि है कि भविष्य निधि खाते में पड़ी हुई रकम कुर्क करने योग्य नहीं होती है बल्कि इससे पृथक उस रकम का अभिप्राय, भविष्य निधि न्यास रकम के माख पर पड़ा रहना होता है और न कि परिवादी क्रमांक 1 से 3 के प्रति एवम् मृतक बी एन मुशा। अतएव, विरोधी पक्षकार के पास भविष्य निधि के न्यासधारियों द्वारा देय रकम के सदाय को रोकने का कोई अधिकार नहीं होता है।
अतः जैसे ऊपर कहा गया है, विरोधी पक्षकार की ओर से सेवा में कमी हुई रकम का संदाय करने से अस्वीकार करने या उसका संदाय करने को रोकने की वजह से हुई। ऐसी दशा में, यह कार्यवाही और सुसंगत होती यदि सभी न्यासधारियों को इसमें संयुक्त किया गया होता। इतने पर भी, इस परिवाद को खारिज नहीं किया जा सकता है। परिवादी क्रमांक 1 से 3 तथा मृतक बी. एन. मुंशा निःसंदेह उस सेवा के हिताधिकारीगण थे जिसे विरोध पक्षकारों ने भविष्यः विधिन्यास को समर्पित किया।
अतएव भविष्य निधि न्यास के अतिरिक्त, सभी परिवादीगण उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (1) (घ) में दी गयी उपभोक्ता की परिभाषा की दृष्टिकोण से उपभोक्ता है और विरोधी पक्षकार की से प्रस्तुत किये गये इस अभिवचन को अस्वीकृत कर दिया कि वे उपभोक्ता की हैसियत नहीं रखते जिसके परिणाम स्वरूप वे प्रतिकर के हकदार नहीं निर्णीत किये जा सकते थे। अंततोगत्वा परिवाद को स्वीकृत कर दिया गया।
प्रबंधक, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम (मै0) केमिस्ट प्रोडक्ट्स व अन्य, 1997 के मामले में जहाँ बैंक को बिलों पर माल को गिरवी रखना था और सम्बन्धित पक्षकार में धन की वसूली करनी थी, वहाँ यह माल के छोड़े जाने के लिए उसका समाशोधन कर देगा। इसके अलावा, चूँकि बैंक ने बिल की रकम की वसूली किये बिना ही विरोधी पक्षकार -2 के पक्ष में माल को छोड़े जाने का समाशोधन प्रमाणपत्र जारी कर दिया; इसलिए राज्य आयोग को सेवा में कमी करने वाले बैंक को दोषी ठहराने के निष्कर्ष पर पहुँचने को न्यायोचित पूर्ण ठहराया गया और इसलिए प्रश्नगत आदेश में कोई अवैधानिकता नहीं पायी जाती है। इतने पर भी यदि परिवादी ने विरोधी पक्षकार -2 के विरुद्ध अधिनिर्णीत रकम को प्राप्त कर लिया, तो बैंक ने अब कोई भी धनराशि बरामद नहीं की जायेगी।