सुप्रीम कोर्ट व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आपराधिक कानून के दुरुपयोग को कैसे रोकता है?

Himanshu Mishra

13 Feb 2025 1:34 PM

  • सुप्रीम कोर्ट व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आपराधिक कानून के दुरुपयोग को कैसे रोकता है?

    भारत का सुप्रीम कोर्ट हमेशा नागरिकों के मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) की रक्षा करता है, खासकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की, जो संविधान (Constitution) के अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत संरक्षित है। यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें ग़लत गिरफ्तारी (Wrongful Arrest), आपराधिक कानून (Criminal Law) के दुरुपयोग और मुक्त भाषण (Freedom of Speech) से जुड़े मामलों को उठाया गया है।

    अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रिया (Legal Process) का गलत इस्तेमाल करके परेशान नहीं किया जाना चाहिए।

    इस फैसले में कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (Code of Criminal Procedure - CrPC) की धारा 41 (Section 41), जो पुलिस को गिरफ्तारी करने की शक्ति देती है, और संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) (Article 19(1)(a)), जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) की गारंटी देता है, जैसे महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधानों (Legal Provisions) की व्याख्या की गई है।

    इस फैसले में कई महत्वपूर्ण निर्णय (Landmark Judgments) का हवाला दिया गया है, जो दर्शाते हैं कि न्यायपालिका (Judiciary) को किस तरह नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए और कानून के दुरुपयोग (Misuse of Law) को रोकना चाहिए।

    गिरफ्तारी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Arrest and Personal Liberty)

    इस मामले में मुख्य मुद्दा पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की शक्ति (Power of Arrest) का दुरुपयोग था। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी को सज़ा के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इसे केवल तभी किया जाना चाहिए जब यह किसी वैध जांच (Legitimate Investigation) के लिए आवश्यक हो।

    कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (CrPC) की धारा 41 (Section 41) के अनुसार, किसी व्यक्ति को तभी गिरफ्तार किया जाना चाहिए जब यह जरूरी हो कि वह कोई और अपराध न करे, जांच को प्रभावित न करे, या सबूतों के साथ छेड़छाड़ न करे।

    अदालत ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (Arnesh Kumar v. State of Bihar (2014) 8 SCC 273) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि केवल आरोपों के आधार पर गिरफ्तारी नहीं की जा सकती। पुलिस को यह साबित करना होगा कि गिरफ्तारी आवश्यक है।

    इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा कि ग़लत गिरफ्तारी से व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित होती है, और कानूनी प्रक्रिया (Legal Process) का इस्तेमाल किसी व्यक्ति को चुप कराने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

    जमानत और न्यायिक संतुलन (Bail and Judicial Balance)

    कोर्ट ने जमानत (Bail) के अधिकार पर भी जोर दिया और कहा कि जमानत की शर्तें न्यायसंगत (Fair) और आनुपातिक (Proportional) होनी चाहिए। कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (CrPC) की धारा 439(2) (Section 439(2)) के अनुसार, जमानत की शर्तें ऐसे होनी चाहिए कि वे आरोपी की स्वतंत्रता को अनावश्यक रूप से बाधित न करें।

    इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने परवेज नूरदीन लोखंडवाला बनाम महाराष्ट्र राज्य (Parvez Noordin Lokhandwalla v. State of Maharashtra (2020) 10 SCC 77) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि जमानत की शर्तें जरूरत से ज्यादा कड़ी नहीं होनी चाहिए।

    अदालत ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को सोशल मीडिया (Social Media) पर पोस्ट करने से रोकने जैसी शर्तें अनुचित (Unjustified) हैं। इस तरह की पाबंदियां मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का उल्लंघन करती हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) पर गलत प्रभाव डालती हैं।

    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आपराधिक कानून का दुरुपयोग (Freedom of Speech and Misuse of Criminal Law)

    इस फैसले में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) (Article 19(1)(a)) पर विशेष जोर दिया गया, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) को संरक्षित करता है। अदालत ने कहा कि आपराधिक कानून (Criminal Law) का उपयोग लोगों को डराने या चुप कराने के लिए नहीं किया जा सकता।

    सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब रंजन गोस्वामी बनाम भारत संघ (Arnab Ranjan Goswami v. Union of India (2020) 14 SCC 12) का हवाला देते हुए कहा कि किसी व्यक्ति पर कई आपराधिक मामले दर्ज करना उसकी स्वतंत्रता को बाधित करने का एक तरीका हो सकता है।

    इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पत्रकारों और नागरिकों को सरकार या प्रशासन की आलोचना करने का अधिकार है, और ऐसे मामलों में आपराधिक कानून का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

    एक ही मुद्दे पर कई FIR और उत्पीड़न से बचाव (Protection Against Multiple FIRs and Harassment)

    इस मामले में कोर्ट ने एक ही व्यक्ति पर एक ही मामले में कई FIR दर्ज करने की प्रवृत्ति की भी आलोचना की। अदालत ने कहा कि ऐसा करना उत्पीड़न (Harassment) का एक तरीका है और यह न्याय की भावना (Spirit of Justice) के खिलाफ है।

    कोर्ट ने टी.टी. एंटोनी बनाम केरल राज्य (T.T. Antony v. State of Kerala (2001) 6 SCC 181) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि एक ही अपराध के लिए कई FIR दर्ज करना न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।

    इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी FIR को एक साथ जोड़ा जाए और एक ही जांच एजेंसी (Investigating Authority) के तहत रखा जाए ताकि आरोपी को बार-बार अलग-अलग जगहों पर पेश होने की जरूरत न पड़े।

    न्यायिक निगरानी का महत्व (Importance of Judicial Oversight)

    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अदालतों की जिम्मेदारी (Judicial Responsibility) है कि वे यह सुनिश्चित करें कि आपराधिक कानून का उपयोग किसी को परेशान करने के लिए न किया जाए।

    अदालत ने अर्णब रंजन गोस्वामी बनाम भारत संघ (Arnab Ranjan Goswami v. Union of India) के फैसले को दोहराते हुए कहा कि कोर्ट को सुनिश्चित करना चाहिए कि कानून का दुरुपयोग किसी व्यक्ति को राजनीतिक या व्यक्तिगत कारणों से फंसाने के लिए न हो।

    अदालत ने यह भी कहा कि "किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का एक दिन का हनन भी बहुत ज्यादा है"। इसका अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार या हिरासत में नहीं रखा जाना चाहिए।

    यह निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty), अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech) और निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया (Fair Legal Process) के सिद्धांतों को मजबूती से स्थापित करता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब यह जांच के लिए आवश्यक हो।

    अदालत ने अर्नेश कुमार, अर्णब गोस्वामी, और परवेज लोखंडवाला जैसे महत्वपूर्ण फैसलों को दोहराते हुए कहा कि कानून का दुरुपयोग करके किसी को परेशान करना अस्वीकार्य है।

    यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक प्रणाली (Judicial System) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए है, और कानूनी प्रक्रियाओं का दुरुपयोग रोकने के लिए अदालतें सतर्क रहेंगी।

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