ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट क्रिमिनल केस की शुरुआत कैसे करता है?

Shadab Salim

19 Nov 2024 12:55 PM IST

  • ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट क्रिमिनल केस की शुरुआत कैसे करता है?

    पुलिस इन्वेस्टिगेशन खत्म होने के बाद ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट क्रिमिनल केस की शुरुआत करता है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता BNSS की धारा 187 के अंतर्गत पुलिस को अपना इन्वेस्टिगेशन समाप्त करने के लिए एक समय सीमा दी गयी है। इस समय अवधि के भीतर पुलिस द्वारा अपना इन्वेस्टिगेशन प्रस्तुत कर दिया जाता है। जब पुलिस अपना इन्वेस्टिगेशन प्रस्तुत कर देती है तो मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही का प्रारंभ होता है।

    आरोप विरचित करने के पूर्व अभियुक्त को उन्मोचन करने के पूर्व मजिस्ट्रेट को अपनी कार्यवाही का प्रारंभ करना होता है। एक बड़ा मर्म का तात्विक प्रश्न है कि मजिस्ट्रेट अपने समक्ष की जाने वाली कार्यवाही को किस प्रकार प्रारंभ करता है?

    किसी भी आपराधिक प्रकरण में दो तरीके से मामले दर्ज होते हैं। पुलिस द्वारा संस्थित मामले, दूसरा निजी परिवाद पर संस्थित मामले

    मामले में दो प्रकार के होते हैं इनमें वारंट मामला और समन मामला होता है। समन मामला वह होता है जो अधिक गंभीर प्रकृति का अपराध नहीं होता है, जो 2 वर्ष से कम के दंड का अपराध होता है। 2 वर्ष से अधिक के दंड के अपराध को वारंट मामला माना जाता है। किसी अन्य लेख में समन मामला और वारंट मामला इन दोनों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की जाएगी। इस समय इस लेख में मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही का प्रारंभ किया जाना इस पर चर्चा की जा रही है।

    जब मजिस्ट्रेट द्वारा किसी मामले का संज्ञान कर लिया जाता है तो सबसे पहले मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को कोर्ट में हाजिर करवाना होता है। हाजिर करवाने हेतु मजिस्ट्रेट को आदेशिका जारी करना होती है। BNSS की धारा 227 आदेशिका जारी करने के संबंध में प्रावधान करती है। इस धारा का संबंध समन और वारंट जारी करने से है।

    धारा 227 के प्रावधान की प्रमुख शर्तें मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान किया जाना है। जब तक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान ना कर ले तब तक वह इस धारा के अधीन समन व गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी नहीं कर सकेगा।

    यदि मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के आधार पर धारा 210 के अधीन अपराध का संज्ञान करें तो उसे इस बात की संतुष्टि कर लेनी होगी कि मामले में कार्यवाही करने के लिए उचित आधार है किंतु पुलिस रिपोर्ट के आधार पर मामला चलाए जाने की दशा में कारणों का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं होगी।

    यदि अभियुक्त पहले से ही अभिरक्षा में है या कोर्ट द्वारा स्वीकृत की गयी जमानत पर है संज्ञान संबंधी आदेश उसकी उपस्थिति में पारित किया जाता है तो जांच या विचारण हेतु मामले को अन्य मजिस्ट्रेट के पास अंतरित करने के पूर्व आदेशिका जारी की जाना आवश्यक नहीं है। मजिस्ट्रेट से यह अपेक्षित नहीं है कि वह धारा 227 के अधीन आदेशिका जारी करने के लिए कारणों को अभिलिखित करें।

    कोई भी नैसर्गिक न्याय यह कहता है कि सुनवाई हेतु दोनों पक्षकारों को अवसर दिए जाने चाहिए। बगैर आदेशिका जारी किए किसी अपराध का विचारण किया जाना नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध होगा।

    कुछ परिस्थितियां ऐसी भी हैं जिनमें आदेशिका को रद्द किया जा सकता है। जब आदेशिका अभिखंडित किया जा सकता है जब मजिस्ट्रेट धारा 227 के अंतर्गत आदेशिका जारी करता है तब उसे खंडित किया जा सकता है और उसके खंडित किए जाने के लिए कुछ आधार दिए गए हैं जो निम्न है-

    परिवाद का विश्लेषण कर लेने के पश्चात कथन और साक्षियों के कथन से किसी अपराध के गठित होने का कोई सबूत नहीं मिलता है।

    जहां परिवाद की गयी शिकायत बेतुकी व्यर्थ हो जिससे कोई वास्तविकता प्रतीत नहीं होती हो।

    जहां ऐसा प्रतीत हो कि मजिस्ट्रेट ने बिना उचित विचार किए मनमाने ढंग से एक औपचारिकता निभाते हुए आदेशिका जारी की है।

    जहां परिवाद दायर करने हेतु निर्धारित कोई पूर्व शर्त की पूर्ति नहीं कि गयी हो जैसे कुछ मामलों के अंदर परिवाद दायर करने हेतु शासकीय स्वीकृति लेना होती है।

    जहां या प्रतीत हो कि प्रकरण आपराधिक न होकर सिविल प्रकृति का है।

    अनिल सरन बनाम बिहार राज्य तथा अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 के अधीन आदेशिका जारी किए जाने के लिए आवश्यक बात यह है कि अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट को यह देखना चाहिए परिवाद में उल्लिखित आरोपों के आधार पर प्रथमदृष्टया मामला बन रहा हो तो यहां इस चरण में इस बात पर विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है कि अभियुक्त दोषी है या नहीं।

    मजिस्ट्रेट द्वारा आदेशिका जारी करके अभियुक्तों को कोर्ट में बुलाने के पश्चात वह अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है।

    यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि अभियुक्त को व्यक्तिगत हाजिरी से अभिमुक्ति दी जा सकती है और उसके एडवोकेट द्वारा उसे हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है लेकिन मजिस्ट्रेट को यह शक्ति विवेकाधिकार के अंतर्गत प्राप्त है। यह अभियुक्त का अधिकार नहीं है अभियुक्त अधिकार पूर्वक नहीं मांग सकता। वह मजिस्ट्रेट से निवेदन ज़रूर कर सकता है। यह भी कार्यवाही प्रारंभ किए जाने के प्रथम चरणों का हिस्सा है।

    BNSS की धारा 229 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट छोटे अपराधों के संबंध में विशेष समन किए जाने की शक्ति प्राप्त की गयी है। शक्ति प्रदान की गई है।

    इस धारा के उपबंधों के अनुसार छोटे अपराधों के मामले में अभियुक्त यदि चाहे तो स्वयं कोर्ट में उपस्थित हुए बिना अपने अपराध की स्वीकृति डाक द्वारा कोर्ट को भेज सकता है। धारा 229 अभियुक्तों को डाक द्वारा ही अपने अपराध का स्वीकार कर लेने का अधिकार देती है। यदि वे चाहें तो अपने अपराध को डाक द्वारा ही स्वीकार कर सकता है तथा कोर्ट में आने की आवश्यकता नहीं है इसके लिए कुछ शर्ते हैं।

    BNSS की धारा 230 अभियुक्त के नैसर्गिक न्याय और मानव अधिकार से संबंधित है। नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार किसी भी प्रकार के अपराध में अभियुक्त के विरुद्ध चलाए जा रहे हैं अभियोजन की सूचना दिए बगैर दंडित किया जाना अवैध है तथा सुनवायी का अवसर दिया जाना ही चाहिए।

    जब कोई मामला पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित होने की दशा में अनिवार्य है कि अभियुक्त को उन सब कथनों जो पुलिस को दिए गए हैं या अन्य ऐसे सभी दस्तावेज जिन पर अभियोजन आधारित है प्रतिलिपियाँ निशुल्क प्रदान की जाए। मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य होता है कि पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संस्थित की गयी किसी भी कार्यवाही में सभी दस्तावेजों को निशुल्क अभियुक्त को उपलब्ध कराना चाहिए जिससे अभियुक्त इन दस्तावेजों को अपनी प्रतिरक्षा में उपयोग कर सकें

    धारा 230 के अंतर्गत अभियुक्त को यह अधिकार दिया गया है वह अधिकार पूर्वक मजिस्ट्रेट से ऐसे दस्तावेजों को प्राप्त कर सकता है।

    राजेंद्र सिंह बनाम पश्चिम बंगाल 2004 (4023) कोलकाता के मामले में निश्चित किया गया कि अभियुक्तों को साक्ष्यों के बयान तथा अन्य दस्तावेज निशुल्क उपलब्ध कराने का मुख्य उद्देश्य है कि वह जान सके कि जांच एवं विचारण में उसे किन मुद्दों का सामना करना पड़ेगा उनके विरुद्ध अपना बचाव कैसे करें।

    इस प्रकरण में दोनों अभियुक्तों को उक्त बयान और दस्तावेजों की प्रतियां इंग्लिश या हिंदी में उपलब्ध नहीं कराए जाने के कारण उनका तर्क था कि प्रावधानों का उल्लंघन हुआ था। कोर्ट ने उनकी इस दलील को खारिज करते हुए अभिकथन किया कि दोनों अभियुक्त बंगाली भाषा से भलीभांति परिचित है तथा अधीनस्थ कोर्ट की कार्यवाही बंगाली भाषा में संचालित होती है।

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