कैसे दिव्यांगों के लिए सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच के अधिकार को मजबूत किया जा सकता है?
Himanshu Mishra
14 Oct 2024 6:15 PM IST
सुप्रीम कोर्ट का फैसला राजीव रतूड़ी बनाम भारत संघ मामले में दिव्यांग व्यक्तियों के सार्वजनिक स्थानों, सड़कों, और परिवहन सुविधाओं तक पहुंच के मौलिक मुद्दों (Fundamental Issues) को संबोधित करता है।
यह निर्णय भारतीय संविधान और वैधानिक कानूनों (Statutory Laws) के तहत दिव्यांग व्यक्तियों के सम्मान और पहुंच के अधिकार की रक्षा के महत्व को रेखांकित करता है।
इसके साथ ही, यह विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार ढांचों (International Human Rights Frameworks) के अनुरूप है, जो दिव्यांग व्यक्तियों के लिए समान अवसर और गैर-भेदभावकारी पहुंच (Non-Discriminatory Access) को बढ़ावा देते हैं।
संवैधानिक अधिकार और प्रावधान (Constitutional Rights and Provisions)
इस मामले में यह स्पष्ट किया गया है कि पहुंच (Accessibility) केवल एक विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि भारतीय संविधान के तहत संरक्षित मौलिक अधिकार (Fundamental Right) है।
विशेष रूप से, अनुच्छेद 21, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का अधिकार प्रदान करता है, इसमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है। कोर्ट ने इस अधिकार की व्याख्या व्यापक रूप से की है ताकि यह केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित न हो, बल्कि जीवन की गुणवत्ता (Quality of Life) को भी समाहित करे।
अनुच्छेद 19(1)(d) भारतीय नागरिकों को पूरे भारत में स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार प्रदान करता है, जबकि अनुच्छेद 21 का तात्पर्य है कि यह स्वतंत्रता सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच (Access to Public Places) से जुड़ी है, जिसमें सड़कों और परिवहन सुविधाओं का समावेश है।
इस संदर्भ में, पहुंच को जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा माना जाता है। इसके अलावा, अनुच्छेद 41, जो राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (Directive Principles of State Policy) के अंतर्गत आता है, राज्य को दिव्यांग व्यक्तियों को सार्वजनिक सहायता (Public Assistance) प्रदान करने का दायित्व देता है।
महत्वपूर्ण फैसले जिनका उल्लेख किया गया (Important Judgments Cited)
1. फ्रांसिस कोराली मुलिन बनाम यूनियन टेरिटरी ऑफ दिल्ली (1981): इस मामले में यह जोर दिया गया था कि जीवन का अधिकार (Right to Life) व्यापक रूप से व्याख्यायित किया जाना चाहिए, जिसमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल हो। यह समर्थन करता है कि यदि दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सम्मानजनक जीवन प्रदान नहीं किया जाता है, तो यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
2. हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम उमेद राम शर्मा (1986): इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार सड़कों तक पहुंच (Access to Roads) को भी शामिल करता है, क्योंकि यह जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस मामले ने यह उजागर किया कि बिना सड़कों की पर्याप्त पहुंच के, विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोग अपने जीवन और गतिशीलता के अधिकार से वंचित हो जाएंगे।
3. जीजा घोष बनाम भारत संघ (2016): इस फैसले में दिव्यांग व्यक्तियों के सम्मान और समान उपचार (Equal Treatment) को मान्यता दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि मानव सम्मान (Human Dignity) अनुच्छेद 21 का अभिन्न हिस्सा है, और दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों की व्याख्या एक मानवाधिकार दृष्टिकोण (Human Rights Perspective) से की जानी चाहिए। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों को केवल सहानुभूति का पात्र नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि उन्हें सभी मानवाधिकारों के हकदार के रूप में माना जाना चाहिए।
वैधानिक अधिकार और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं (Statutory Rights and International Commitments)
फैसले में दिव्यांगता अधिनियम, 1995 (Disabilities Act, 1995) और दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (Rights of Persons with Disabilities Act, 2016) के तहत वैधानिक प्रावधानों (Statutory Provisions) का भी उल्लेख किया गया। दिव्यांगता अधिनियम, 1995 ने निर्मित पर्यावरण और परिवहन को दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सुलभ बनाने के लिए परिवर्तनों की आवश्यकता को स्वीकार किया।
2016 के अधिनियम ने इन अधिकारों को और अधिक विस्तृत किया, जिसमें सार्वजनिक स्थानों, परिवहन, और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (Information and Communication Technology) में पहुंच मानकों को अनिवार्य कर दिया।
यह मामला यह भी रेखांकित करता है कि भारत संयुक्त राष्ट्र के दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर समझौते (UN Convention on the Rights of Persons with Disabilities - UNCRPD) का हस्ताक्षरी है, जो देश को समान पहुंच और गैर-भेदभाव सुनिश्चित करने के लिए बाध्य करता है।
इस निर्णय में सकारात्मक अधिकारों (Positive Rights), सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action), और यथोचित आवास (Reasonable Accommodation) की आवश्यकता पर जोर दिया गया ताकि दिव्यांग व्यक्तियों को समाज में पूरी तरह से एकीकृत किया जा सके।
न्यायालय द्वारा उठाए गए मौलिक मुद्दे (Fundamental Issues Addressed by the Court)
1. सम्मान और पहुंच का अधिकार (Right to Dignity and Accessibility): कोर्ट ने कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों की गरिमा उनके जीवन के अधिकार का एक मौलिक पहलू है। पहुंच सुनिश्चित करना समानता (Equality) प्राप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है और यह दिव्यांग व्यक्तियों को सम्मानजनक जीवन जीने में सक्षम बनाता है।
2. बाधाओं को दूर करने के लिए राज्य का दायित्व (State's Obligation to Remove Barriers): फैसले में राज्य की जिम्मेदारी पर जोर दिया गया कि वह सार्वजनिक स्थानों तक बाधा-मुक्त पहुंच (Barrier-Free Access) प्रदान करे। 2016 का दिव्यांगता अधिनियम (Disabilities Act, 2016) पहले के कानून की आर्थिक क्षमता (Economic Capacity) की शर्त को समाप्त करता है और अब सरकारों को बिना शर्त सुलभ वातावरण (Accessible Environment) बनाने के लिए बाध्य करता है।
3. अंतरराष्ट्रीय मानक और मानवाधिकार कानून (International Standards and Human Rights Law): कोर्ट ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून में समानता का सिद्धांत गैर-भेदभाव और यथोचित विभेद (Reasonable Differentiation) पर आधारित है। जब दिव्यांग व्यक्तियों को समान भागीदारी के अवसरों से मनमाने ढंग से वंचित किया जाता है, तो यह भेदभाव का रूप लेता है। इसलिए, कोर्ट ने दिव्यांगता की चिकित्सा मॉडल (Medical Model) से अधिकार-आधारित दृष्टिकोण (Rights-Based Approach) की ओर बढ़ने की वकालत की।
प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करना (Ensuring Effective Implementation)
फैसले में यह भी कहा गया कि कानूनी ढांचे के बावजूद, क्रियान्वयन (Implementation) काफी धीमा रहा है। सार्वजनिक भवनों और परिवहन सुविधाओं का व्यापक ऑडिट, पहुंच सुविधाओं (Accessibility Features) का कार्यान्वयन, और कर्मचारियों का प्रशिक्षण (Training) आवश्यक है। राज्य को निर्धारित समय सीमा के भीतर सुलभता के लिए ठोस प्रयास करने चाहिए।
राजीव रतूड़ी मामले का फैसला रेखांकित करता है कि दिव्यांग व्यक्तियों के लिए पहुंच अधिकार (Accessibility Rights) उनकी गरिमा और समानता का अभिन्न हिस्सा हैं। निर्णय वैधानिक प्रावधानों के कड़े अनुपालन (Stricter Compliance) और अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ सामंजस्य की आवश्यकता पर जोर देता है।
ध्यान सहानुभूति के बजाय दिव्यांग व्यक्तियों को समान नागरिक के रूप में मान्यता देने की ओर होना चाहिए, जो समाज में पूरी भागीदारी के हकदार हैं। यह मामला राज्य के दायित्व की याद दिलाता है कि वह बाधाओं को दूर करे और एक समावेशी वातावरण (Inclusive Environment) प्रदान करे, जहां हर व्यक्ति सम्मान और संतोषपूर्ण जीवन जी सके।