हिन्दू विधि भाग 5 : जानिए हिंदू मैरिज एक्ट के अधीन न्यायिक पृथक्करण ( Judicial Separation) क्या होता है
Shadab Salim
26 Sept 2023 11:25 AM IST
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 के अधीन जिस प्रकार विवाह के पक्षकारों के आपसी मतभेद होने पर पुनर्मिलन के प्रयास किए गए हैं| इसी प्रकार धारा 10 के अधीन विवाह को बचाए रखते हुए विवाह के पक्षकारों को अलग अलग रहने के उपचार प्रदान किए गए हैं।
प्राचीन शास्त्री हिंदू विधि के अधीन हिंदू विवाह एक संस्कार है तथा यह जन्म जन्मांतरों का संबंध है। ऐसे प्रयास होने चाहिए कि कोई भी हिंदू विवाह के संपन्न होने के बाद पति और पत्नी जहां तक संभव हो सके विवाह को सफल बनाएं तथा साथ-साथ साहचर्य का पालन करें। इस विचार को ध्यान में रखते हुए वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण (ज्यूडिशल सेपरेशन) का प्रावधान रखा गया है।
न्यायिक पृथक्करण ( Judicial Separation)
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण को उल्लेखित किया गया है। विवाह के दोनों पक्षकारों में से कोई भी पक्षकार न्यायालय के समक्ष आवेदन करके न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करने हेतु निवेदन कर सकता है।
न्यायालय की डिक्री से विवाह को कुछ समय के लिए मृत कर दिया जाता है। इस उपचार का यह मूल आधार है कि यदि विवाह पुनर्जीवित हो सकता हो तो कर लिया जाए, क्योंकि विवाह के उपरांत संतान भी उत्पन्न होती है। पति और पत्नी के विवाह विच्छेद के परिणामस्वरूप बच्चों का पालन पोषण अत्यधिक कष्टदायक हो जाता है। विवाह के पक्षकारों का यह दायित्व होता है कि उनके द्वारा उत्पन्न की गई संतानों का पालन पोषण दोनों के द्वारा साहचर्य का पालन करते हुए साथ साथ रहते किया जाए।
इस प्रकार सामाजिक दृष्टिकोण से न्यायिक पृथक्करण का उपचार अत्यंत सम्यक एवं उचित माना गया है। न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित की जा सकती है जब धारा 13 (2) में दिए गए आधार उपस्थित हो। किसी पक्षकार के आवेदन पर न्यायालय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को विखंडित भी कर सकता है।
न्यायिक पृथक्करण का सामान्य आशय यह है कि न्यायालय विवाह के पक्षकारों को कुछ समय तक अलग अलग निवास करने की आज्ञप्ति जारी कर देता है। इस आज्ञप्ति का अर्थ यह नहीं होता है कि विवाह का विखंडन हो गया है तथा अब विवाह के पक्षकारों के मध्य कोई अधिकार और दायित्व नहीं रहे है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित हो जाने के बाद भी विवाह का स्वरूप बना रहता है परंतु विवाह को लेकर जो अधिकार तथा दायित्व होते हैं वह समाप्त हो जाते हैं।
न्यायिक पृथक्करण को एक प्रकार से विवाह विच्छेद का प्रथम चरण माना जाता है, जब विवाह के सूत्र में बंध पाना विवाह के पक्षकारों के लिए कठिन हो जाए तो अचानक ही विवाह का विखंडन नहीं करना चाहिए तथा दोनों ओर से तलाक की कार्यवाही नहीं की जाना चाहिए अपितु तलाक के पूर्व दोनों को अलग अलग कर दिया जाना उपयोगी साबित हो सकता है। इससे विवाह संस्कार को बचाया जा सकता है।
विवाह के किसी पक्षकार के न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए आवेदन प्रस्तुत करने के बाद न्यायालय अपना समाधान हो जाने पर विवाह के पक्षकारों को पृथक पृथक कर देती है तथा फिर विवाह के पक्षकार एक दूसरे के साथ निवास करने के लिए बंधित नहीं होते हैं।
न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त हो जाने के बाद विवाह का कोई पक्षकार अधिनियम की धारा 9 के अधीन साथ रहने के लिए दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन (Restitution of Conjugal Rights) के लिए न्यायालय के समक्ष आवेदन नहीं कर सकता है, क्योंकि जब न्यायालय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर देता है तो वह किसी पक्षकार को विवाह के सूत्र में बंध कर साथ रहने के लिए बाधित नहीं कर सकता है।
न्यायिक पृथक्करण के माध्यम से विवाह के पक्षकार विवाह को बचाए रखते हुए अलग अलग हो जाते हैं तथा साथ में निवास करने के लिए बाध्य नहीं होते है। विवाह का स्वरूप बचा रहता है दोनों एक दूसरे के पति और पत्नी रहते हैं उसके बाद भी अलग-अलग निवास करने के लिए अधिकार प्राप्त होता है। फिर पक्षकार किसी भी समय ऐसी डिक्री के विखंडन के लिए न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।
न्यायालय डिक्री को विखंडन कर विवाह के पक्षकारों को साथ कर देता है, विवाह पुनः उस ही स्वरूप में आ जाता है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करते समय जिस स्वरूप में था। न्यायिक पृथक्करण का अभिप्राय वैवाहिक परिस्थिति का त्याग करके पृथक पृथक निवास करना है। जब न्यायालय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर देता है तो पक्षकार पारस्परिक साहचर्य प्रदान करने के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं। दोनों पक्ष अपने-अपने ढंग से जीवन व्यतीत करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं परंतु विवाह पूर्ण रूप से विखंडित नहीं होता है। इस
न्यायिक पृथक्करण के आधार
जब भी किसी पक्षकार द्वारा न्यायिक पृथक्करण के लिए डिक्री पारित करने हेतु न्यायालय के समक्ष आवेदन किया जाता है तो ऐसा आवेदन कुछ आधारों पर किया जाता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण के आधार भी उल्लेखित किए गए हैं। 1976 के संशोधनों के बाद न्यायिक पृथक्करण के लिए वही आधार होते हैं जो विवाह विच्छेद के लिए होते हैं।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 की उपधारा 1 उल्लेखित आधारों में से किसी आधार पर विवाह का कोई भी पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए जिला न्यायालय के समक्ष याचिका प्रस्तुत करके आवेदन करने का अधिकारी है और पत्नी के मामले में धारा 13 की उपधारा 2 में उल्लेखित आधारों में से किसी आधार पर अथवा उन ही आधारों पर जिस पर विवाह विच्छेद याचिका प्रस्तुत की गई है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए आवेदन प्रस्तुत किया जा सकता है।
धारा 13 (1) में वर्णित आधार इस प्रकार हैं
प्रत्यर्थी के द्वारा विवाह के बाद जारता (Adultery) जिसे सामान्य शब्दों में व्यभिचार कहा जाता है। जब विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार विवाह होने के बाद भी कहीं अन्य जगह अवैध शारीरिक संबंध रखता है तो यह जारता कहलाता है। इस आधार पर विवाह का व्यथित पक्षकार याचिका लाकर प्रत्यर्थी के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करवा सकता है।
प्रत्यर्थी की क्रूरता
क्रूरता न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करने हेतु एक मजबूत कारण होता है। क्रूरता को अधिनियम में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है क्योंकि समय परिस्थितियों के अनुसार क्रूरता के अर्थ बदलते रहते हैं।
न्यायालय में आए समय-समय पर प्रकरणों में भिन्न भिन्न क्रूरता देखी गई है। जियालाल बनाम सरला देवी एआईआर 1978 जम्मू कश्मीर 67 में पति ने पत्नी पर आरोप लगाया कि पत्नी की नाक से ऐसी खराब दुर्गंध निकलती है कि वह उसके साथ बैठ नहीं सकता और सहवास नहीं कर सकता और इस कारण विवाह का प्रयोजन ही समाप्त हो गया है तथा पागलपन का आरोप लगाते हुए भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत की और उसे क्रूरता के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की याचना की गई। पत्नी ने आरोपों को अस्वीकार किया।
अपील में उच्च न्यायालय ने माना कि क्रूरता के लिए मंतव्य और आशय जो क्रूरता के लिए आवश्यक तत्व है सिद्ध नहीं हुआ। क्रूरता एक ऐसी प्रकृति का स्वेच्छा पूर्ण आचरण होता है जिससे एक दूसरे के जीवन शरीर अंग के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसमें मानसिक वेदना भी सम्मिलित है। इस प्रकृति का अकेला एक कार्य भी गंभीर प्रकृति का है तो न्यायिक पृथक्करण के लिए एक पर्याप्त आधार हो सकता है।
सामाजिक दशाएं पक्षकारों का स्तर उनके सांस्कृतिक विकास शिक्षा से भिन्नता पैदा होती है क्योंकि कहीं एक कार्य के मामले में क्रूरता माना जाता है वहीं दूसरे मामले में उसी कार्य हेतु वैसा कुछ नहीं माना जाता। कभी-कभी बच्चों या परिवार के रिश्तेदारों के कार्य भी क्रूरता का गठन करते हैं और इससे व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है। जहां पत्नी अपने पति के विरुद्ध अपमानजनक भाषा गाली देने वाले शब्दों का प्रयोग कर रही हो और ऐसा ही आचरण पति के माता-पिता के साथ करके परिवार की शांति भंग कर रही हो वहां उसका आचरण क्रूरता कहलाएगा।
जहां सास प्रत्येक दिन पुत्रवधू के साथ दुर्व्यवहार करती है उसका पति इसमें कोई आपत्ति नहीं करता है वहां पत्नी इस अधिनियम के अधीन इस संदर्भ में निवेदित डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी बन जाती है। पत्नी के मानसिक परपीड़न को अनदेखा इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई थी। सुलेखा बैरागी बनाम कमलाकांत बैरागी एआईआर 1980 कोलकाता 370 के मामले में यह कहा गया है कि शारीरिक चोट ही क्रूरता नहीं दर्शाती है अपितु मानसिक चोट भी क्रूरता हो सकती है। अतः न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने हेतु क्रूरता का आधार एक महत्वपूर्ण आधार है।
प्रत्यर्थी द्वारा धर्म परिवर्तन कर लेना
यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार हिंदू धर्म को छोड़कर अन्य धर्म में संपरिवर्तित हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने हेतु न्यायालय के समक्ष आवेदन कर सकता है।
पागलपन
यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार पागल हो जाता है या असाध्य मानसिक विकृतचित्तता निरंतरता के मनोविकार से पीड़ित हो जाता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण के लिए आवेदन न्यायालय के समक्ष कर सकता है।
कुष्ठ रोग से पीड़ित होना
यदि विवाह का कोई पक्षकार कोई असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित हो जाता है इस आधार पर विवाह का दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिग्री के लिए न्यायालय के समक्ष आवेदन कर सकता है।
संचारी रोग से पीड़ित होना
यदि विवाह का पक्षकार किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित है तथा बीमारी ऐसी है जो संभोग के कारण विवाह के दूसरे पक्षकार को भी हो सकती है तो ऐसी परिस्थिति में विधि किसी व्यक्ति के प्राणों के लिए खतरा नहीं हो सकती तथा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है तथा विवाह को बचाए रखते हुए विवाह का दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण प्राप्त कर सकता है।
संन्यासी हो जाना
यदि विवाह का कोई पक्ष कार सन्यासी हो जाता है तथा संसार को त्याग देता है व धार्मिक प्रबज्या धारण कर लेता है तो ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायालय के समक्ष आवेदन करके न्यायिक पृथक्करण हेतु डिक्री पारित करवा सकता है।
7 वर्ष तक लापता रहना
यदि विवाह का कोई पक्षकार 7 वर्ष तक लापता रहता है तथा पति या पत्नी का परित्याग करके भाग जाता है या किसी कारण से उसका कोई ठिकाना या पता मालूम नहीं होता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्ष न्यायालय के समक्ष न्यायिक पृथक्करण हेतु डिक्री की मांग कर सकता है।
पत्नी को प्राप्त विशेष अधिकार
न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने के लिए पत्नी को कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं। यह विशेष अधिकारों की संख्या 4 है। ऊपर वर्णित अधिकार पति और पत्नी दोनों को प्राप्त है। जिन आधारों को उल्लेख ऊपर किया गया है वह समान रूप से प्राप्त होते हैं परंतु यह चार अधिकार हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 की उपधारा 2 के अधीन पत्नी को विशेष रूप से प्राप्त है जो निम्न हैं-
विवाह से पूर्व पति की कोई पत्नी जीवित होना
पति द्वारा बलात्संग, गुदामैथुन और पशुगमन का अपराध कारित करना
हिंदू दत्तक ग्रहण भरण पोषण अधिनियम की धारा 18 में पत्नी ने भरण पोषण की डिक्री या दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 के अंतर्गत पत्नी के पक्ष में भरण पोषण का आदेश पारित होने के बाद दोनों में 1 वर्ष तक सहवास न होना।
यदि पत्नी का विवाह 15 वर्ष की आयु से पूर्व हुआ है तो उसके द्वारा अट्ठारह वर्ष की आयु पूरी करने से पूर्व विवाह का निराकरण कर दिया जाना।
यह जितने भी आधार दिए गए हैं यह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अधीन तलाक के आधार हैं। लेखक इन आधारों का विस्तार से उल्लेख तलाक संबंधित आलेख में करेगा जिसमें विभिन्न न्याय निर्णयों का भी समावेश होगा।