हिन्दू विधि भाग 13: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत परिभाषाएं और इस अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव
Shadab Salim
4 Oct 2023 10:00 AM IST
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ( Hindu Succession Act) 1956 किसी निर्वसीयती हिंदू की मृत्यु के बाद उसकी अर्जित संपत्ति उत्तराधिकार से संबंधित एक संहिताबद्ध अधिनियम है। इस अधिनियम के अंतर्गत कुछ विशेष शब्दों की परिभाषाएं दी गई हैं तथा यह अधिनियम कहां-कहां और किन-किन विधियों को अध्यारोही कर सकता है, उस संबंध में भी उल्लेख किया गया है।
इस लेख के माध्यम से लेखक हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 से संबंधित धारा 3 एवं धारा 4 के प्रावधानों पर चर्चा कर रहा है।
अधिनियम के अंतर्गत कुछ विशेष शब्दों की परिभाषाएं-
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 (धारा-3)
किसी भी अधिनियम में उस अधिनियम की प्रस्तावना और उस अधिनियम में उपयोग आने वाले विशेष शब्दों की परिभाषाओं का समावेश होना नितांत आवश्यक होता है। यह एक प्रकार की अधिनियम की प्रस्तावना होती है जो न्यायालय को कानूनों के निर्वचन के संबंध में कोई विशेष कठिनाई नहीं आने देती है।
यह परिभाषाएं कानून को उनके उसी रूप में प्रस्तुत करती हैं जिस रूप में विधायिका अधिनियम को प्रस्तुत करना चाहती है। परिभाषाएं विधायिका के आशय से संबंधित होती हैं। परिभाषाओं के माध्यम से विधायिका के आशय को समझा जा सकता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 3 कुछ परिभाषाएं प्रस्तुत करती हैं जिनमे विशेष शब्दों की परिभाषाएं निम्न हैं-
1)- गोत्रज
हिंदू शास्त्रीय विधि के अधीन गोत्र का अधिक महत्व है। हिंदू शास्त्रीय विधि में गोत्र के माध्यम से किसी व्यक्ति की वंश का उल्लेख होता है। गोत्र का संबंध पुरुष से होता है। जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का गोत्रज होता है, यदि वे दोनों केवल पुरुषों के माध्यम से संबंध रखते है या दत्तक के द्वारा संबंधित हो। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत गोत्रज उसे माना जाता है जो पुरुष पक्ष की तरफ से आपस में संबंधित होते हैं।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 3 के अंतर्गत स्पष्ट कर दिया गया है कि गोत्रज से अर्थ उन लोगों का है जो आपस में किसी पुरुष की तरफ से संबंधित होते हैं जैसे कि दो भाइयों के बच्चे आपस में गोत्रज होंगे।
2)- बंधु
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत बंधु का अर्थ है कि जब कोई दो व्यक्ति आपस में केवल पुरुषों की तरफ से संबंधित नहीं होते हैं तो वे बंधु होते हैं। कृष्ण चंद्र नायक बनाम निशामणि एआईआर 1987 उड़ीसा 105 में उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि निशा ने विधवा के रूप में संपत्ति प्राप्त की थी, इसलिए निशा मणि की मृत्यु होने पर धारा 15 ( 2) क लागू होगी, क्योंकि महिला ने आधी संपत्ति पति, ससुर से प्राप्त की है तो उसके पुत्र-पुत्रियां में पुत्र पुत्रियों के पुत्र-पुत्री न होने पर संपत्ति पति के वारिस को उत्तराधिकार में प्राप्त होगी। इस अधिनियम के अंतर्गत बंधु का महत्व इसलिए है, क्योंकि यदि किसी निर्वसीयत मरने वाले व्यक्ति के गोत्रज उपलब्ध नहीं होते हैं तो संपत्ति बंधु को प्राप्त होती है।
3)- वारिस
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 3 के अनुसार वारिस शब्द के अंतर्गत वह सभी शामिल हैं जो किसी निर्वसीयत मरने वाले व्यक्ति की संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति के संबंध में वसीयत किए बिना मर जाता है तो इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत मृतक की संपत्ति प्राप्त करने के हकदार होंगे वह व्यक्ति के वारिस कहे जाते हैं। सामान्य-सा अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी बगैर वसीयत के मर जाने वाले व्यक्ति की संपत्ति में हक रखता है वह वारिस कहलाता है। वारिस शब्द एक विशाल शब्द है। इस शब्द के अंतर्गत वे सभी व्यक्ति आ जाते हैं जो किसी संपत्ति में उत्तराधिकार रखते हैं।
4)- निर्वसीयती
कोई व्यक्ति जब अपनी संपत्ति के संबंध में बगैर वसीयत किए मर जाता है तो ऐसा व्यक्ति निर्वसीयती कहलाता है। उपेंद्र दास बनाम चिंतामणि देवी एआईआर 1963 कोलकाता के प्रकरण में कहा गया है कि एक निर्वसीयती हिंदू की मृत्यु हो गई तथा उसके मृत्यु के उपरांत उसकी एक विधवा 2 पुत्र जीवित थे जबकि वर्तमान अधिनियम के प्रारंभ हो जाने के पूर्व ही उत्तराधिकार संबंधी कार्यवाही प्रारंभ की जा चुकी थी। वहां उत्तराधिकार को हिंदू स्त्री संपत्ति का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों द्वारा निर्धारित किया जाना था।
इसके अतिरिक्त चूंकि निर्वसीयती की विधवा के पास कृषि योग्य भूमि के अतिरिक्त मृतक पति की संपत्तियों का विभाजन कराने का दावा करने का अधिकार था। कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो बगैर वसीयत के मर गया है इस अधिनियम के संदर्भ में निर्वसीयती व्यक्ति कहलाता है। धारा 3 के अंतर्गत परिभाषा खंड में इस प्रकार के निर्वसीयती की परिभाषा दी गई है।
अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव (Overriding Effect)
जब भी विधायिका किसी अधिनियम को प्रस्तुत करती है तो यह अधिनियम किन विधियों को अध्यारोही करेगा इस संबंध में भी स्पष्ट उल्लेख करती है। इसी प्रकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अंतर्गत विधियों को अध्यारोही करने हेतु अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत प्रावधान किए गए है, जिस से संबंधित विशेष बातें निम्न हैं।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के पहले हिंदू पर्सनल लॉ के अंतर्गत उत्तराधिकार से संबंधित अनेक विधियां उपलब्ध थीं। ये विधियां टीका, स्मृति, शास्त्र, रीति-रिवाजों और प्रथाओं के माध्यम से जन्म दी गई थीं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 उत्तराधिकार से संबंधित उन सभी विधियों को समाप्त कर देता है यदि वे विधियां इस अधिनियम के प्रावधानों के विरुद्ध जाती हैं तो उन विधियों का कोई महत्व नहीं रहेगा। यदि किसी बात के लिए इस अधिनियम के अंतर्गत प्रावधान कर दिए गए हैं तो उस हेतु किसी अन्य विधि की सहायता नहीं ली जाएगी।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम उन सभी विधियों का अतिक्रमण और अधिक्रान्त करता है। उन पर अविभावी होता है। यह अधिनियम का प्रभाव पूर्व हिंदू शास्त्रीय विधि के अधीन चलने वाली सभी विधियों को निरस्त करता है। वे सभी विधि, नियम तथा विनियम जो प्राचीन शास्त्रीय, स्मृतियों, टीका और निर्वचन के अधीन प्रचलित थी। उन सभी पर वर्तमान अधिनियम अध्यारोही प्रभाव रखता है।
उत्तराधिकार के नियम, जो हिंदुओं के संबंध में पहले लागू होते थे वे विभिन्न अधिनियम में समाविष्ट थे और इस प्रकार के विधान भी उपरोक्त परिस्थिति में निरस्त समझे जाएंगे। केवल अयुक्तियुक्त रूढ़ि और प्रथाओं को ही इस अधिनियम के माध्यम से निरस्त नहीं किया गया है, अपितु उन सब अधिनियमों को इस अधिनियम के माध्यम से निरस्त कर दिया गया है जो उत्तराधिकार के संबंध में लागू होते थे। जैसे हिंदू विधवा का पुनर्विवाह अधिनियम 1856, हिन्दू की संपत्ति का अंतरण अधिनियम 1916 इन सभी अधिनियम को समाप्त कर दिया गया है।
इस अधिनियम के माध्यम से जिन विषयों के संबंध में उपबंध कर लिया गया है उन विषयों के संबंध में पूर्व हिंदू विधि के शास्त्र का कथन, नियम, न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय एवं निर्वाचन, रूढ़ि या प्रथा जो पूर्व हिंदू विधि का अंश था उनको समाप्त कर दिया गया है। इसलिए इस अधिनियम में जहां तक उपबंध कर दिए गए हो, पूर्व हिंदू विधि के सभी विषय जिनके संबंध में इस अधिनियम में उपस्थित कर दिया गया है, वे सभी पूर्व विषय प्रभावहीन कर दिए गए हैं।
हिंदू विधवा नारी के पुनर्विवाह करने पर उसे उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता-
हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 के अंतर्गत हिंदू विधवा के पुनर्विवाह करने पर उसके उत्तराधिकार के हक को नियंत्रित किया गया था। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 उत्तराधिकार से संबंधित सभी विधियों को प्रभावहीन करती है। यह अधिनियम की धारा 4 उत्तराधिकार के संबंध में चलने वाली सभी विधियां प्रभावहीन कर देती हैं।
यदि हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 के अंतर्गत किसी हिंदू नारी को पुनर्विवाह करने पर उत्तराधिकार प्राप्त नहीं होने का प्रावधान था तो ऐसे प्रावधान को इस उत्तराधिकार अधिनियम के माध्यम से प्रभावहीन कर दिया गया। इस अधिनियम की धारा 4 हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम की प्रभावशीलता निराकृत कर देती है।
प्राचीन विधि के अधीन एक निर्वसीयती मरने वाले पुरुष के अधीन समकालीन उत्तराधिकारी गण का केवल 1 पुत्र था और पुत्र एवं पूर्व मृत का पुत्र का एक पूर्व मृत पुत्र को हिंदू स्त्री का संपत्ति का अधिकार अधिनियम 1937 द्वारा बढ़ा दिया गया। वर्तमान समय में उत्तराधिकार अधिनियम के अधीन एक विधवा समकालीन तौर पर अनुसूची में वर्ग एक में विनिर्दिष्ट किए गए एक पुत्र पुत्री और दूसरे उत्तराधिकारियों और धारा 9 के अनुसार सभी दूसरे उत्तराधिकारियों का अपवर्जन के साथ विरासत में प्राप्त करती है।
धारा 14 यह प्रावधान करती है कि एक हिंदू स्त्री द्वारा धारण की गई संपत्ति चाहे अधिनियम के प्रारंभ होने के पहले या बाद अर्जित की गई हो तो भी उसके एक पूर्ण स्वामी की हैसियत से उसके द्वारा अभिधारित किया जाएगा और न कि एक परीसीमित किए गए स्वामी द्वारा अतः विधवा अत्यंतिक रूप से उसके हिस्से को ग्रहण करती है। एक विधवा द्वारा पुनर्विवाह अपने पति से उसके द्वारा विरासत में प्राप्त की गई संपदा को अर्जित करने के लिए एक आधार हो जाता है।
यद्यपि पुनर्विवाह विरासत संपदा के संदर्भ में उनकी अयोग्यता में से एक है किंतु इस अयोग्यता को कतिपय उत्तराधिकारियों द्वारा पद सीमित कर दिया गया है। विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 4 द्वारा स्पष्ट तौर पर निश्चित नहीं किया गया है, बल्कि अधिनियम की धारा 4 (1) ऐसी विधवा के मामले में पूर्वोत्तर अधिनियम की प्रवर्तनियता को निराकृत कर देती है।