अभिव्यक्ति की आज़ादी और सार्वजनिक व्यवस्था: प्रासंगिक कानूनी प्रावधान

Himanshu Mishra

23 Nov 2024 6:43 PM IST

  • अभिव्यक्ति की आज़ादी और सार्वजनिक व्यवस्था: प्रासंगिक कानूनी प्रावधान

    इस फ़ैसले में अभिव्यक्ति की आज़ादी (Freedom of Speech) और सार्वजनिक व्यवस्था (Public Order) के बीच संतुलन की आवश्यकता को समझाया गया है। यह मामला भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 153A, 505(1)(c), और 500 के तहत दर्ज आरोपों और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अधिकारों का विश्लेषण करता है।

    कोर्ट ने न केवल विधायी प्रावधानों (Legislative Provisions) की व्याख्या की, बल्कि कुछ महत्वपूर्ण फैसलों (Landmark Judgments) के जरिए स्पष्ट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे और नफरत भरे भाषण (Hate Speech) के बीच क्या अंतर है।

    प्रासंगिक कानूनी प्रावधान (Relevant Legal Provisions)

    1. धारा 153A आईपीसी (Section 153A IPC):

    यह प्रावधान जाति, धर्म, भाषा, या समुदाय के आधार पर वैमनस्य (Enmity) फैलाने या सार्वजनिक शांति (Public Harmony) को बाधित करने वाले कार्यों को दंडित करता है। इस अपराध को साबित करने के लिए अभियोजन (Prosecution) को यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि अभियुक्त (Accused) की मंशा (Intent) वैमनस्य या द्वेष (Hatred) को बढ़ावा देने की थी।

    2. धारा 505(1)(c) आईपीसी (Section 505(1)(c) IPC):

    यह धारा ऐसे बयानों को दंडित करती है जो एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ अपराध करने के लिए उकसाने (Incite) की मंशा से दिए गए हों।

    3. धारा 500 आईपीसी (Section 500 IPC):

    यह प्रावधान मानहानि (Defamation) से संबंधित है, जिसमें किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के लिए बोले या लिखे गए शब्द, दृश्य (Visible Representations) या अन्य तरीकों का उपयोग शामिल है।

    4. अनुच्छेद 19(1)(a) (Article 19(1)(a)):

    भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार प्रदान करता है। हालांकि, अनुच्छेद 19(2) के तहत इस अधिकार पर उचित प्रतिबंध (Reasonable Restrictions) लगाए जा सकते हैं, ताकि संप्रभुता (Sovereignty), सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता (Decency) और नैतिकता (Morality) की रक्षा की जा सके।

    कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ (Court's Key Observations)

    1. अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम सार्वजनिक व्यवस्था (Freedom of Speech vs Public Order):

    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र की आधारशिला है। हालांकि, केवल ऐसा भाषण (Speech) जो सार्वजनिक अव्यवस्था (Disorder) या हिंसा (Violence) का कारण बन सकता है, उसे रोका जाना चाहिए। इस मामले में, अपीलकर्ता (Appellant) द्वारा की गई Facebook पोस्ट ने भेदभाव के मुद्दों को उजागर किया और न्याय की मांग की, लेकिन इसमें हिंसा या वैमनस्य फैलाने की मंशा नहीं थी।

    2. दोषसिद्धि के लिए आपराधिक मंशा (Mens Rea):

    Balwant Singh v. State of Punjab (1995) जैसे मामलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि धारा 153A और 505 के तहत अपराध साबित करने के लिए आपराधिक मंशा (Criminal Intent) होना आवश्यक है। केवल कड़े या आलोचनात्मक बयान बिना दुर्भावना (Malicious Intent) के अपराध नहीं माने जा सकते।

    3. नफरत भरे भाषण के लिए वस्तुनिष्ठ मानक (Objective Standards for Hate Speech):

    Ramesh v. Union of India (1988) और Pravasi Bhalai Sangathan v. Union of India (2014) मामलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि किसी कथित नफरत भरे भाषण को "एक मजबूत और साहसी व्यक्ति" (Strong and Courageous Individual) के नजरिए से देखा जाना चाहिए। भाषण के प्रभाव (Effect) पर ध्यान देना आवश्यक है, न कि केवल इससे हुई नाराजगी (Offense) पर।

    4. संदर्भ और परिस्थितियों की भूमिका (Role of Context and Circumstances):

    कोर्ट ने कहा कि भाषण के इरादे (Intention) और उसकी पृष्ठभूमि (Background) को समझना बहुत जरूरी है। इस मामले में, Facebook पोस्ट को संपूर्णता (Entirety) में पढ़ने पर यह न्याय की मांग प्रतीत होती है, न कि दो समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने का प्रयास।

    फैसले में दिए गए ऐतिहासिक निर्णय (Landmark Judgments Referenced)

    1. Balwant Singh v. State of Punjab (1995):

    इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे व्यक्तियों को बरी किया जिन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नारे लगाए थे। कोर्ट ने कहा कि सामान्य नारेबाजी (Casual Slogans), जो हिंसा के इरादे से न की गई हो, धारा 153A के तहत अपराध नहीं है।

    2. Bilal Ahmed Kaloo v. State of Andhra Pradesh (1997):

    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 153A और 505(2) के तहत अपराध में कम से कम दो समुदायों (Two Communities) के बीच वैमनस्य बढ़ाने का संदर्भ (Reference) होना चाहिए। केवल एक समुदाय को उकसाना इन धाराओं के अंतर्गत नहीं आता।

    3. Ramesh v. Union of India (1988):

    इस मामले में तय किया गया कि कथित आपराधिक भाषण (Criminal Speech) को वस्तुनिष्ठ मानकों (Objective Standards) पर परखा जाना चाहिए और केवल उत्तेजक सामग्री (Provocative Content) को हिंसा भड़काने के बराबर नहीं माना जा सकता।

    4. Pravasi Bhalai Sangathan v. Union of India (2014):

    इस मामले में नफरत भरे भाषण के लिए तीन-स्तरीय परीक्षण (Three-Fold Test) का सुझाव दिया गया। इसमें भाषण के प्रभाव (Effect), उसकी तीव्रता (Extremity), और दूसरों को नफरत फैलाने की संभावना (Likelihood) पर ध्यान दिया गया।

    फैसले के परिणाम और महत्व (Implications and Significance of the Judgment)

    1. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा (Safeguarding Free Speech):

    एफआईआर को रद्द करते हुए, कोर्ट ने कहा कि सरकारी निष्क्रियता (Government Inaction) की वैध आलोचना (Legitimate Criticism) या न्याय की मांग को सांप्रदायिक असहमति (Communal Disharmony) के नाम पर दबाया नहीं जा सकता।

    2. आतंक के प्रभाव को रोकना (Preventing Chilling Effects):

    कोर्ट ने रेखांकित किया कि यदि किसी को गलत तरीके से अभियोगित किया जाए, तो यह अन्य व्यक्तियों को उनके संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करने से हतोत्साहित कर सकता है।

    3. संदर्भ आधारित मूल्यांकन (Contextual Evaluation):

    कोर्ट ने भाषण का विश्लेषण संपूर्णता (Holistic Approach) के साथ करने की आवश्यकता पर जोर दिया और केवल कुछ पंक्तियों या वाक्यों पर आधारित निष्कर्ष निकालने को अनुचित ठहराया।

    यह निर्णय अभिव्यक्ति की आज़ादी और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच संतुलन को समझने के लिए एक दिशानिर्देश है। यह स्पष्ट करता है कि न्याय की मांग या सरकारी कार्यों की आलोचना करने वाले भाषण को वैमनस्य फैलाने वाला नहीं माना जा सकता।

    सुप्रीम कोर्ट ने न केवल एफआईआर को रद्द किया बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) की व्याख्या को मजबूत किया। यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव बनी रहे।

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