घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) के तहत दिए गए फैसलों का Execution

Shadab Salim

17 Oct 2025 9:46 AM IST

  • घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) के तहत दिए गए फैसलों का Execution

    इस एक्ट की धारा 31 में इस एक्ट में दिए गए ऑर्डर के एग्जीक्यूशन की व्यवस्था की गई है अगर कोई व्यक्ति मजिस्ट्रेट के आर्डर को नहीं मानता है तब उसे जेल भिजवा कर ऑर्डर का पालन करवाया जाता है। किसी भी कोर्ट के आदेश को नहीं मानने पर पहले भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडित किया जाता था लेकिन अभी के अधिनियम ऐसे हैं जिनमें यह व्यवस्था उक्त अधिनियम में ही कर दी गई है। इस ही तरह घरेलू हिंसा अधिनियम में भी दंड की व्यवस्था की गई है।

    इस एक्ट की धारा 31 के अनुसार-

    प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश के भंग के लिए शास्ति

    (1) प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश या किसी अन्तरिम संरक्षण आदेश का भंग, इस अधिनियम के अधीन एक अपराध होगा और वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो बीस हजार रुपये तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डनीय होगा।

    (2) उपधारा (1) के अधीन अपराध का विचारण यथासाध्य उस मजिस्ट्रेट द्वारा किया जायेगा जिसने वह आदेश पारित किया था, जिसका भंग अभियुक्त द्वारा कारित किया जाना अभिकथित किया गया है।

    (3) उपधारा (1) के अधीन आरोपों को विरचित करते समय, मजिस्ट्रेट, यथास्थिति, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क (1860 का 45), या उस संहिता के किसी अन्य उपबन्ध, या दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 (1961 का 28) के अधीन आरोपों को भी विरचित कर सकेगा, यदि तथ्यों से यह प्रकट होता है कि उन उपबन्धों के अधीन कोई अपराध हुआ है।

    धारा 31 यह प्रावधान करती है कि संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश का भंग अपराध है और मजिस्ट्रेट के द्वारा विचारणीय होता है।

    अधिनियम की धारा 31 दण्ड के लिए केवल तब प्रावधान करती है, यदि कोई व्यक्ति अधिनियम की धारा 18 के अधीन पारित किये गये संरक्षण आदेश अथवा धारा 23 के अधीन पारित किये गये अन्तरिम संरक्षण आदेश का भंग कारित करता है। इस प्रकार घरेलू हिंसा का कृत्य कारित करना स्वयं द्वारा अधिनियम के अधीन दण्डनीय कोई अपराध गठित नहीं करता है और यह केवल या तो अधिनियम की धारा 18 के अधीन या धारा 23 के अधीन पारित किये गये आदेश का भंग है, जिसे अधिनियम की धारा 31 के अधीन दण्डनीय बनाया गया है।

    इस प्रकार किसी व्यक्ति के द्वारा इस अधिनियम के अधीन मात्र घरेलू हिंसा के कृत्य में अथवा साझी गृहस्थी के प्रयोग से किसी महिला को वंचित करने में अपने लिप्त होने के कारण आपराधिक दायित्व उपगत नहीं किया जाता है। यह केवल अधिनियम को धारा 18 तथा 23 के अधीन पारित किये गये आदेश का भंग है, जिसे दण्डनीय बनाया गया है।

    अधिनियम, 2005 की धारा 31 प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश के भंग हेतु दण्ड के लिए प्रावधान करती है। प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश का भंग इस अधिनियम के अधीन अपराध होगा और ऐसी अवधि से, जो एक वर्ष तक की हो सकेगी, ऐसी भांति के कारावास से अथवा ऐसे जुर्माने से, जो बीस हजार रुपये तक का हो सकेगा, अथवा दोनों से दण्डनीय होगा।

    "घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 31 के अधीन प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश का भंग अधिनियम के अधीन अपराध होगा। इसलिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 17, 18, 19, 20 और 22 के अधीन पारित किये गये सभी आदेशों का कोई दाण्डिक प्रभाव अधिनियम की धारा 31 के अधीन यथोपवन्धित के सिवाय नहीं है, हालांकि प्रत्यर्थी आदेश का भंग कारित किया था। इसलिए, जैसा कि अधिनियम के प्रावधान से देखा गया है, महिलाओं को विद्यमान अधिकारों के संदर्भ में कुछ नये उपचार प्रदान किये गये हैं।

    ऐसे उपचार संविदा अथवा अधिक परिवर्तित नहीं करते हैं, इसने किसी निहित अधिकार को नहीं छीना था, क्योंकि राज्य की विधि में व्यतिक्रमी को ऐसा कोई निहित अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता है, जो केवल दोषपूर्ण उपचार के बिना अथवा उसके साथ पीड़िता को छोड़ा हो। अधिनियम लिंग पर आधारित हिंसा को निवारित करने के उद्देश्य से किसी महिला के द्वारा उपगत सार्वभौमिक हिंसा को रोकने के लिए पारित किया गया है।

    दो पृथक अनुतोषों, एक संरक्षण के लिए अधिनियम की धारा 18 के अधीन और दूसरा अधिनियम की धारा 20 के अधीन मौद्रिक अनुतोष के लिए उपबन्ध करने पर इस धारा के क्षेत्र का विश्लेषण करते समय विचार किया जायेगा। यदि संरक्षण आदेश भरण-पोषण प्रदान करने के लिए मौद्रिक अनुतोष को शामिल करने वाला था, तो अधिनियम की धारा 20 के लिए पृथक ढंग से उपबन्ध नहीं किया जायेगा।

    भरण-पोषण प्रदान करने का आदेश "संरक्षण आदेश" के समान नहीं है और उसका उल्लंघन इस धारा के उपबन्धों को आकर्षित नहीं करेगा। उपधारा (1) अधिनियम की धारा 32 की उपधारा (1) अपराध को अधिनियम की धारा 31 की उपधारा (1) के अधीन संज्ञेय तथा अजमानतीय बनाती है।

    शास्ति का अर्थ इस रूप में दिया गया है कि शब्द शास्ति से, किसी दण्ड चाहे कारावास के द्वारा अथवा अन्यथा का अर्थ बहुत व्यापक रूप में, आशयित रूप में, और तात्पर्यिंत रूप में, अभिप्रेत है।

    श्रीमती कंचन बनाम विक्रमजीत सेतिया, 2013 के मामले में कहा गया है कि कोर्ट अपील के लिए उपबन्धित अवधि की समाप्ति के पश्चात् संदत्त किये जाने लिए यथानिर्देशित धनीय अनुतोष की वसूली के लिए वसूली का वारंट स्वप्रेरणा से जारी करेगा और यदि वसूली के लिए वारंट संतुष्ट नहीं होता है, तब दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन उपबन्धित प्रक्रिया के अनुसार प्रत्यर्थी को सिविल जेल में भेजने के परिणाम का आश्रय लिया जाना होगा।

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