धारा 154 साक्ष्य अधिनियम: पक्षद्रोही गवाह (Hostile Witness) कौन होता है और कब उसे बुलाने वाला पक्ष उसका प्रति परीक्षण कर सकता है?

SPARSH UPADHYAY

22 July 2020 4:30 AM GMT

  • धारा 154 साक्ष्य अधिनियम: पक्षद्रोही गवाह (Hostile Witness) कौन होता है और कब उसे बुलाने वाला पक्ष उसका प्रति परीक्षण कर सकता है?

    किसी मामले में जब किसी पक्ष द्वारा एक गवाह अदालत के समक्ष पेश किया जाता, तो ऐसा माना जाता है कि जिस पक्ष ने उस गवाह को बुलाया है, वह गवाह उस पक्ष के हित में अदालत के समक्ष गवाही/साक्ष्य देगा। आम तौर पर वह ऐसा कुछ भी अदालत के समक्ष नहीं कहेगा, जोकि विरोधी पक्ष (Adverse Party) के हित में हो या उसे फायदा पहुंचाए।

    यह बात तार्किक भी मालूम होती है कि जो पक्ष अपनी तरफ से किसी गवाह को अदालत के समक्ष गवाही देने के लिए बुला रहा है वह उसके पक्ष में ही बोलेगा, इसलिए धारा 145 r/w धारा 146 के अंतर्गत, विरोधी पक्ष को ऐसे गवाह की सत्यवादिता परखने वाले प्रश्न पूछने की अनुमति दी जाती हैं और वह उसका प्रति परीक्षण (Cross Examination) कर सकता है।

    ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अदालत, गवाह द्वारा दिए गए कथन/साक्ष्य को तब ही मान्यता देता है जब उसका प्रति-परीक्षण (Cross-examination) कर लिया जाता। वास्तव में, प्रति परीक्षण के जरिये विरोधी पक्ष द्वारा यह कोशिश की जाती है कि ऐसे गवाह को किसी प्रकार से अविश्वसनीय साबित कर दिया जाए और इसीलिए उसे साक्ष्य अधिनियम में प्रति परीक्षा लेने की अनुमति दी गयी है, जिससे उस गवाह द्वारा दी गयी गवाही का कोई मतलब न रह जाये (यदि प्रति परिक्षण में वह सफल नहीं रहता) और विरोधी पक्ष को इसका फायदा मिल सके।

    हालाँकि, जो पक्ष अपने गवाह को बुलाता है वह अपने ही गवाह का प्रति परीक्षण (Cross Examination) नहीं करता है, उसे बस उसकी मुख्य परीक्षा (Examination-in-chief) लेनी होती है (देखें धारा 137, साक्ष्य अधिनियम 1872), क्योंकि यह जाहिर है कि ऐसा गवाह अपने पक्षकार की तरफ से/उसके हित अथवा उसके पक्ष में ही बोलेगा तो ऐसे गवाह की अपने ही पक्ष द्वारा प्रति परीक्षण (Cross Examination) की आवश्यकता नहीं होती है, और आमतौर पर अनुमति भी नहीं होती।

    हालाँकि, कभी कभार परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं जहाँ अपने ही गवाह से पक्षकार को प्रति परीक्षण (Cross Examination) में पूछे जाने वाले प्रश्न करने पड़ते हैं। वो कौन सी परिस्थितियां होती हैं इसी के विषय में हम इस लेख में बात करने वाले हैं और यह भी जानेंगे कि आखिर पक्षद्रोही गवाह (Hostile Witness) कौन होता है।

    कौन सी परिस्थितियों में अपने ही गवाह का प्रति-परीक्षण करने की अनुमति होती है?

    जब परिस्थितियां ऐसी होती है जहाँ एक पक्ष द्वारा बुलाया गया व्यक्ति या तो पक्षद्रोही (Hostile) हो जाता है या वह साक्ष्य देने में रूचि नहीं दिखाता है। तब न्यायाधीश द्वारा अपने विवेक से इस नियम को लचीला बना दिया जाता है और उस गवाह को अपनी तरफ से अदालत में बुलाने वाले पक्ष को उसके प्रति परीक्षण (Cross Examination) की अनुमति दी जाती है।

    ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि उस गवाह को अदालत में बुलाने वाले पक्ष को अब यह मौका दिया जाना चाहिए कि वह अपने गवाह की सत्यवादिता का परीक्षण करे और संभव हो तो उसकी क्रेडिट को इम्पीच करे, जिससे अदालत को यह भरोसा हो जाए कि वास्तव में गवाह अदालत को मामले की सच्चाई बताने का इच्छुक नहीं है।

    पक्षद्रोही (Hostile) हो जाना क्या होता है?

    स्टीफन डाइजेस्ट ऑफ द लॉ ऑफ एविडेंस के मुताबिक, एक "पक्षद्रोही साक्षी/गवाह" को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है, जो एक पार्टी के आग्रह पर, जिसके द्वारा वह बुलाया गया है, सत्य बताने या बोलने का इच्छुक नहीं है "पक्षद्रोही" या "प्रतिकूल" गवाह जैसे शब्द, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के लिए विदेशी हैं।

    शब्द "पक्षद्रोही गवाह" (hostile witness), "प्रतिकूल गवाह" (adverse witness), या "अनिच्छुक गवाह" (unwilling witness) अंग्रेजी कानून के शब्द हैं। गवाह को साक्ष्य देने के लिए बुलाने वाले पक्ष को प्रति परीक्षण की अनुमति नहीं देने के नियम को "पक्षद्रोही गवाह और प्रतिकूल गवाह" जैसे शब्दों को विकसित करके सामान्य कानून के तहत शिथिल किया गया है।

    धारा 154 क्या कहती है?

    इस लेख में अबतक हम यह स्पष्ट रूप से समझ चुके हैं कि अदालत को यह विवेक सौंपा गया है कि वह एक पक्ष को अपने गवाह के प्रति परीक्षण की अनुमति दे सकती है, और इसमें ऐसी कोई शर्तें या दिशानिर्देश शामिल नहीं हैं, जब अदालत को इस तरह के विवेक का इस्तेमाल करना हिता है।

    लेकिन हाँ, जैसा कि गंगा सिंह बनाम राजस्थान राज्य AIR 2001 SC 330 के मामले में कहा गया कि यह अदालत से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह न्याय के हित में न्यायिक और उचित रूप से इस तरह के विवेक का इस्तेमाल करना होगा।

    न्यायालय को यह शक्ति साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 154 से मिलती है, जो धारा यह कहती है कि –

    "154. पक्षकार द्वारा अपने ही साक्षी से प्रश्न—[(1)] न्यायालय उस व्यक्ति को, जो साक्षी को बुलाता है, उस साक्षी से कोई ऐसे प्रश्न करने की अपने विवेकानुसार अनुज्ञा दे सकेगा, जो प्रतिपक्षी द्वारा प्रतिपरीक्षा में किये जा सकते हैं।

    [(2) इस धारा की कोई बात, उपधारा (1) के अधीन इस प्रकार अनुज्ञात किये गए व व्यक्ति को ऐसे साक्षी के किसी भाग का अवलंब लेने के हक से वंचित नहीं करेगी।]"

    इस धारा के अंतर्गत (यदि अदालत द्वारा अनुमति दी जाती है तो) एक पक्ष अपने ही गवाह का प्रति परीक्षण ठीक उस प्रकार से कर सकता है जैसे उसका प्रति परीक्षण विरोधी पक्ष (Adverse Party) करता। ऐसे प्रति परीक्षण किए जाने का मतलब होता है कि:-

    (a) धारा 143 के अंतर्गत, सूचक प्रश्न (Leading Questions) पूछे जा सकेंगे

    (b) धारा 145 के अंतर्गत, उसके पूवर्तन लेखबद्ध कथन (Cross-examination as to previous statements in writing) के बारे में प्रश्न पूछे जा सकेंगे

    (c) धारा 146 के अंतर्गत, उसकी सत्यवादिता परखने (to test his veracity) से सम्बंधित, वह कौन है (who he is) और जीवन में उसकी स्थिति क्या है (and what is his position in life) इससे सम्बंधित प्रश्न पूछे जा सकते हैं।

    पक्षद्रोही गवाह से जुड़े कुछ प्रमुख मामले

    रवीन्द्र कुमार डे बनाम उड़ीसा राज्य 1977 SCR (1) 439 के मामले में यह कहा गया था कि एक गवाह को पक्षद्रोही गवाह और जिस पक्ष ने उसे बुलाया उसके द्वारा प्रति परीक्षा के लिए उसे उत्तरदायी तब माना जाना चाहिए, जब अदालत इस बात को लेकर संतुष्ट हो कि वह गवाह उस पक्ष के खिलाफ, जिसके लिए वह साक्षी के तौर पर पेश हुआ है, शत्रुतापूर्ण दुश्मनी (hostile animus) का भाव रखता है या वह सत्य बोलने के लिए तैयार नहीं है। यह बात सतपाल सिंह बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन AIR 1976 SC 294 के मामले में भी पक्षद्रोही गवाह का वर्णन करते हुए कही जा चुकी है।

    दूसरे शब्दों में, सामान्य कानून के तहत एक पक्षद्रोही गवाह को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है, जो उस पक्ष के आग्रह पर, जिसने उसे साक्ष्य देने के लिए बुलाया है, सच्चाई बताने के लिए इच्छुक नहीं है [गुरा सिंह बनाम राजस्थान राज्य, (2001) 2 SCC 205]।

    इसके अलावा तुलसी राम साहू बनाम आर. सी. पाल, AIR 1953 Cal. 160 के मामले में भी यह कहा गया था कि एक पक्षद्रोही गवाह/साक्षी वह होगा जिसके साक्ष्य देने के तरीके, हाव-भाव/व्यवहार से न्यायालय को यह प्रतीत होता हो कि वह सत्य बोलने का इच्छुक नहीं है। इसे ही बाद में उत्तर प्रदेश राज्य बनाम जग्गू AIR 1971 SC 1856 के मामले में भी दोहराया गया था।

    एस. मुरुगेसन और अन्य बनाम एस. एस. पेथपरूमल एवं अन्य 1999 (1) CTC 458 के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्णित किया गया था कि इससे पहले की किसी साक्षी/गवाह को पक्षद्रोही घोषित किया जाये, यह दिखाने के लिए कुछ सामग्री होनी चाहिए कि वह गवाह सच नहीं बोल रहा है या उसने उस पार्टी के लिए शत्रुता के एक तत्व को प्रदर्शित किया है जिस पार्टी के लिए वह गवाही दे रहा है।

    यह बात भी तमाम मामलों में दोहरे गयी है कि केवल इसलिए कि साक्षी/गवाह सत्य बोल रहा है, जोकि उस पक्ष के अनुरूप नहीं है जिसके पक्ष में वह गवाही देने आया है, बल्कि दूसरे/विरोधी पक्ष (Adverse Party) के अनुकूल है, संबंधित पक्ष को अपने स्वयं के गवाह का प्रति परीक्षण करने की अनुमति देने के विवेक का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

    वहीं सतपाल सिंह बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में यह कहा गया था कि 'पक्षद्रोही गवाह' के मामले में न्यायाधीश, उसके मुख्य परिक्षण को उस सीमा तक उसके प्रति परीक्षण में तब्दील करने की अनुमति दे सकता है, जितना वह न्याय के हित में आवश्यक समझता है।

    हालाँकि जब गवाह/साक्षी अभियोजन पक्ष की ओर से बुलाया जाता हो तो उसे पक्षद्रोही करार दिए जाने के पैमाने थोड़े अलग हो सकते हैं। जैसा कि जी. एस. बक्शी बनाम राज्य AIR 1979 SC 569 के मामले में कहा गया था कि जब अभियोजन पक्ष का कोई गवाह, कुछ ऐसा कहकर पक्षद्रोही हो जाता है, जो अभियोजन के मामले के लिए विनाशकारी होता है, तो अभियोजन पक्ष यह प्रार्थना करने का हकदार होता है कि गवाह को पक्षद्रोही माना जाए।

    इसके अलावा यदि वह व्यक्ति धारा 161 या धारा 164 दंड प्रकिया संहिता, 1973 के तहत कोई बयान दे चुका है और बाद में वह अपने पूर्व बयानों से पलटने या उसे अस्वीकार करने लगे तो भी उसे पक्षद्रोही करार देने की मांग की जा सकती है।

    ध्यान रहे कि एक गवाह को पक्षद्रोही केवल अदालत द्वारा ही घोषित किया जा सकता है, पक्षकारों द्वारा अदालत से किसी गवाह को पक्षद्रोही करार दिया जाने की केवल मांग ही की जा सकती है, परन्तु अंतिम फैसला अदालत का ही होता है।

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