Transfer Of Property Act में धारा 52 के Elements
Shadab Salim
24 Jan 2025 9:19 AM IST

इस एक्ट की धारा 52 में Lis Pendens का सिद्धांत को अपनाया गया है जहां किसी भी वाद के लंबित रहते संपत्ति का अंतरण नहीं किया जाएगा। इस धारा के अनेक तत्व है। जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है।
1-सक्षम कोर्ट- वाद अथवा कार्यवाही एक ऐसे कोर्ट में संस्थित हो जो उस पर विचारण करने के लिए सक्षम है। यदि कोर्ट सक्षम कोर्ट नहीं है तो इसके द्वारा दिया गया निर्णय शून्य होगा। हाईकोर्ट , लेटर पेटेण्ट के अन्तर्गत ऐसी भूमि के सम्बन्ध में विचारण करने के लिए सक्षम है जो अंशतः उसके क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आती है और अंशत: उससे बाहर है, किन्तु यह आवश्यक है कि कोर्ट से इस आशय की पूर्वानुमति प्राप्त कर ली गयी हो। जहाँ तक कनिष्ठ कोर्टों का प्रश्न है उनके क्षेत्राधिकार परिभाषित हैं और सीमित है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 अपेक्षा करती है कि वाद सक्षम अधिकारिता वाले कनिष्ठ कोर्ट में संस्थित किया जाना चाहिए, किन्तु यदि ऐसा न कर ज्येष्ठ कोर्ट में वाद संस्थित कर दिया जाता है तो यह केवल एक अनियमितता होगा क्योंकि ज्येष्ठ कोर्ट उस क्षेत्राधिकार से युक्त होते हैं जिनका प्रयोग केवल कनिष्ठ कोर्टों द्वारा होता है। इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए आवश्यक है कि कोर्ट भारत में स्थित हो, अथवा भारत के बाहर, भारत सरकार द्वारा स्थापित हो। यह भी आवश्यक है कि कोर्ट वाद की प्रकृति के दृष्टिकोण से भी सक्षम कोर्ट हो।
2-वाद अथवा कार्यवाही दुरभिसंधिपूर्ण न हो- संस्थित वाद या कार्यवाही दुरभिसंधिपूर्ण न हो। कोई कार्यवाही तब दुरभिसंधिपूर्ण मानी जाती है जब पक्षकारों का आशय विवाद द्वारा किसी अधिकार को सुनिश्चित कराना न हो। उनके बीच में एक गोपनीय समझौता रहता है कि कोई भी पक्षकार विवाद के समापन की दिशा में कोई कदम नहीं उठायेगा तथा यदि इस कालावधि में सम्पत्ति किसी भी एक पक्षकार द्वारा अन्तरित हो जाती है तो उससे प्राप्त लाभ वे आपस में बांट लेंगे। अतः यदि अ और ब आपस में गुप्त रूप से यह समझौता करें कि ब, अ के विरुद्ध सम्पत्ति को लेकर वाद संस्थित करेगा तथा अ अपना दावा सारवान रूप में नहीं प्रस्तुत करेगा और वाद के लम्बन के दौरान वह उक्त सम्पत्ति को बेच देगा तथा क्रेता से प्राप्त धनराशि वे आपस में बाँट लेंगे तो ऐसा विवाद दुरभिसंधिपूर्ण होगा और क्रेता सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करेगा। सम्पत्ति में उसका हित कोर्ट के निर्णय के अध्यधीन नहीं होगा। दुरभिसंधिपूर्ण विवाद तथा कपटपूर्ण विवाद एक दूसरे के पर्याप्त निकट समझे जाते हैं, किन्तु दोनों में महत्वपूर्ण अन्तर है जिसका वर्णन सुप्रीम कोर्ट ने नागूबाई अम्मल बनाम बी० शाम राव के बाद में इस प्रकार किया है-
"दुरभिसंधिपूर्ण कार्यवाही में प्रस्तुत किया गया दावा मिथ्या होता है। विवाद अवास्तविक होता है तथा इसके तहत पारित डिक्री न्यायिक निर्णय का केवल दिखावा मात्र होती है जिसका लाभ पक्षकार उठाते हैं और उनका उद्देश्य एक तीसरे पक्षकार के हितों को क्षति पहुँचाना होता है। कपटपूर्ण कार्यवाही में प्रस्तुत किया गया दावा असत्य तो होता है, किन्तु वाद का एक पक्षकार कपट का प्रयोग करते हुए कोर्ट का निर्णय अपने पक्ष में प्राप्त करता है। विवाद, प्रतिपक्षी के हितों को क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया जाता है न कि किसी गुप्त समझौते के अन्तर्गत दुरभिसंधिपूर्ण कार्यवाही, वस्तुतः एक दिखावा मात्र होती है, जबकि कपटपूर्ण कार्यवाही वास्तविक तथा गम्भीर होती है।"
गौरीदत्त बनाम शेख सुकर मोहम्मद के वाद में एक हिन्दू पत्नी ने अपने पति के विरुद्ध एक मिथ्या भरण-पोषण का वाद संस्थित किया। वाद के लम्बन के दौरान पति ने विवादित सम्पत्ति बेच दी। इस अन्तरण के पश्चात् पत्नी के पक्ष में कोर्ट ने अन्तरित सम्पत्ति पर एक प्रभार कायम किया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि अन्तरिती इस प्रभार से बाध्य नहीं होगा क्योंकि पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध संस्थित वाद केवल दुरभिसंधिपूर्ण था।
3-सम्पत्ति विषयक अधिकार विवादित हो- चौथा तत्व यह है कि विवादित सम्पत्ति में अचल सम्पत्ति की प्रकृति का कोई अधिकार प्रत्यक्षतः और विशिष्टतः विवादित हो। प्रतिपक्षी के विरुद्ध वैयक्तिक उपचार के लिए संस्थित वाद इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होता है। उदाहरणस्वरूप सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 34, नियम 6 के अन्तर्गत साधारण धन आज्ञप्ति के लिए संस्थित कार्यवाही अथवा मध्यवर्ती लाभ के लिए संस्थित कार्यवाही किराये के लिए कार्यवाही इत्यादि के लम्बन के दौरान प्रतिपक्षी द्वारा अपनी सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा। संविदा भंग अथवा अपकृत्य के लिए क्षतिपूर्ति हेतु संस्थित वाद अचल सम्पत्ति विषयक अधिकार नहीं माना जाता है। अत: ऐसे वाद के लम्बन के दौरान सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।
इस तत्व से यह सुस्पष्ट है कि विवादित सम्पत्ति स्पष्टतः और विशिष्टतः विवाद में संलग्न होनी चाहिए। सम्पत्ति का इस प्रकार उल्लेख होना चाहिए जिससे यह सुस्पष्ट हो जाए कि अन्तरित सम्पत्ति वही है जिसको लेकर विवाद कोर्ट के विचाराधीन है। अतः विशिष्ट अनुपालन हेतु संस्थित वाद के लम्बन के दौरान उक्त सम्पत्ति का अन्तरण, न्यास विलेख के निरसन (Cancellation) तथा न्यास विलेख में उल्लिखित अचल सम्पत्ति के पुनस्थापन हेतु संस्थित वाद के लम्बन के दौरान किसी अचल सम्पत्ति के विभाजन हेतु संस्थित वाद के लम्बन के दौरान, तथा हकशुफा के अधिकार के सम्बन्ध में लम्बित वाद के दौरान उक्त सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
भरण-पोषण के लिए संस्थित वाद मूलतः वैयक्तिक प्रकृति का होता है। किन्तु यदि वाद में स्पष्टतः यह माँग की गयी हो कि भरण-पोषण की राशि किसी विशिष्ट अचल सम्पत्ति पर प्रभार के रूप में सूष्ट की जाए और कोर्ट इस आशय की आज्ञप्ति प्रदान कर दे तो वाद में उल्लिखित सम्पत्ति का वाद के लम्बन के दौरान अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा बन्धक के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त लागू होगा किन्तु एक ऐसा वाद जो बन्धक सम्पत्ति से सम्बन्धित है और उसमें निश्चित धनराशि के भुगतान के लिए डिक्री पारित होती है, तो ऐसी सम्पत्ति का अन्तरण डिक्री के निष्पादित न होने तक इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि ऐसी स्थिति में सम्पत्ति विशिष्टतः और स्पष्टत: विवादित नहीं मानी जाएगी। इस अधिनियम की धारा 82 के अन्तर्गत अंशदान हेतु संस्थित वाद के दौरान बन्धक सम्पत्ति का अन्तरण लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
यदि किसी सम्पत्ति के प्रशासन हेतु वाद लम्बित हो और ऐसी सम्पत्ति का अन्तरण निष्पादक या प्रशासक द्वारा वाद के लम्बन के दौरान कर दिया जाए तो यह अन्तरण इस सिद्धान्त द्वारा प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि ऐसे वाद में सम्पत्ति के सामान्य प्रशासन का प्रश्न अन्तर्निहित होता है, किन्तु यदि ऐसे वाद में किसी विशिष्ट सम्पत्ति का निश्चिततापूर्वक उल्लेख किया गया हो, तो सम्पत्ति का अन्तरण लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
4-सम्पत्ति अन्तरित या अन्यथा व्ययनित की गयी हो- यह पांचवा तत्व प्रतिपादित करता है कि इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए विवादित सम्पत्ति का अन्तरित होना या अन्यथा व्ययनित होना आवश्यक है। पदावति अन्तरित होने से आशय है विक्रय, बन्धक, पट्टा या विनिमय द्वारा अन्तरण। पदावलि अन्यथा व्ययनित होने से आशय है बंटवारा, दुरभिसंधिपूर्ण डिक्री, विक्रय हेतु संविदा, समझौता इत्यादि। सम्पत्ति का अन्तरण या अन्यथा व्ययन विवाद के किसी पक्षकार द्वारा होना चाहिए।
यदि पक्षकार से भिन्न कोई अन्य व्यक्ति सम्पत्ति अन्तरित करता है तो ऐसा अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा, भले हो अन्तरण के पश्चात् यह विवाद का पक्षकार बना दिया गया हो वाद के लम्बन के दौरान अस्तित्व में आए अन्तरिती को विशिष्ट पालन हेतु संस्थित वाद में पक्षकार बनाया जा सकता है।
5-यह छठा और अंतिम महत्वपूर्ण तत्व है। इसके द्वारा विवाद के किसी अन्य पक्षकार का हित प्रभावित हो - वाद के लम्बन के दौरान, विवादित सम्पत्ति का अन्तरण स्वयमेव शून्य नहीं होता है। इससे केवल विवाद के किसी अन्य पक्षकार का हित प्रभावित होता है। दूसरे शब्दों में यह सिद्धान्त केवल उन अन्तरणों या व्ययनों पर लागू होता है जो वाद या कार्यवाही में प्रतिपादित अधिकारों के प्रतिकूल हो ।
यदि अन्तरण द्वारा केवल अन्तरक के अधिकार प्रभावित होते हैं तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा, किन्तु यदि प्रतिपक्षी का अधिकार प्रभावित होता है तो यह सिद्धान्त लागू होगा। यह सिद्धान्त उन व्यक्तियों के बीच लागू नहीं होगा जो विवाद के एक पक्षकार थे और जिनके बीच न्याय निर्णय हेतु कोई विवाद नहीं था
एकपक्षीय निर्णीत वाद- अब यह पूर्णरूपेण सुनिश्चित हो चुका है कि कपट तथा दुरभिसंधि के अभाव में, एकपक्षीय निर्णीत वाद, इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
समझौता या सम्मति आज्ञप्ति- यदि किसी वाद में समझौता या सम्मति के आधार पर डिक्री पारित होती है तो ऐसी आज्ञप्ति इस सिद्धान्त के प्रवर्तन में किसी प्रकार की बाधा नहीं उत्पन्न करती है जहाँ किसी समझौते में कतिपय सम्पत्ति का उल्लेख किया गया था, किन्तु समझौता डिक्री पारित करते समय कोर्ट ने उसमें कतिपय अन्य सम्पत्तियों का उल्लेख कर दिया था और किसी भी पक्षकार ने इसका विरोध नहीं किया तो ये सम्पत्तियाँ भी इस सिद्धान्त से प्रभावित होगी जो मूल समझौता विलेख में सम्मिलित नहीं थीं, किन्तु कोर्ट के आदेश में सम्मिलित कर ली गयी थीं।
अनैच्छिक अन्तरण प्रारम्भ में यह माना जाता था कि लम्बित वाद का सिद्धान्त अनैच्छिक अन्तरणों पर नहीं लागू होगा। पर अब यह पूर्णरूपेण सुनिश्चित हो गया है कि यह सिद्धान्त केवल ऐच्छिक अन्तरणों पर नहीं लागू होता है, अनैच्छिक अन्तरणों पर भी लागू होता है, जैसे नीलामी द्वारा सम्पत्ति क्रय करना इस सिद्धान्त की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट ने सुरेंद्र नाथ सिन्हा बनाम कृष्ण कुमार नाग के वाद में की है। इस मत की पुनरावृत्ति जयराम मुदालियर बनाम अय्यास्वामी के वाद में हुई है।
सिद्धान्त का प्रभाव यह धारा केवल यह उल्लिखित करती है कि वाद के लम्बन के दौरान विवादित सम्पत्ति अन्तरित या व्ययनित नहीं की जा सकेगी। इससे यह स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त का मात्र यह प्रभाव है कि अन्तरिती ऐसी सम्पत्ति को कोर्ट के आदेश के अन्तर्गत प्राप्त करेगा।" नागूबाई अम्मल बनाम बी० शामराक के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह मत व्यक्त किया था कि धारा 52 का प्रभाव लम्बित वाद के दौरान सम्पत्ति के अन्तरण को पूर्णरूपेण समाप्त करना नहीं है।
अपितु इसे निर्णय में प्रतिपादित आदेश के अध्यधीन करना है। जहाँ तक अन्तरक और अन्तरितों का प्रश्न हैं, उनके बीच अन्तरण पूर्णतः वैध होता है और अन्तरण के फलस्वरूप अन्तरिती में हित निहित हो जाता है। किन्तु यह स्थिति यदि कोर्ट के निर्णय के विरोध में हैं तो वह प्रभाव शून्य होगी। वाद के लम्बन के दौरान सम्पत्ति कोर्ट के आदेश के अन्तर्गत इस सिद्धान्त के प्रभाव से मुक्त अन्तरित हो सकेगी। इस प्रयोजन हेतु उसी कोर्ट की अनुमति वैध होगी जिसमें वाद लम्बित है।।
वाद के लम्बन के दौरान वाद सम्पत्ति का अन्तरिती स्वतंत्र रूप में उक्त सम्पत्ति में कोई हित धारण नहीं करता है। उसका अधिकार उसके अन्तरक के अधिकार पर निर्भर करता है। यदि कोर्ट अन्तरक के अधिकार को मान्यता देता है तो अन्तरितों का अधिकार पूर्ण हो जाएगा। अन्यथा उसका हित सम्पत्ति से समाप्त हो जाएगा। ऐसे अन्तरिती को वाद का पक्षकार बनाया जाना आवश्यक नहीं है।
ऐसे अन्तरिती को वाद का पक्षकार बनाने से वाद का क्षेत्र विस्तृत हो जाएगा। तथा 'विवादों का यथा शीघ्र समापन होना चाहिए' सिद्धान्त का भी उल्लंघन होगा अन्तरिती, लम्बित वाद कोर्ट से यह अनुरोध नहीं कर सकेगा कि कोर्ट उसकी स्थिति का न्यायनिर्णयन एक वाद की तरह करेगा और न ही ऐसा अन्तरिती कोर्ट के निर्णय की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है केवल इस आधार पर कि कोर्ट ने उसे सुने जाने का अवसर नहीं प्रदान किया।

