Transfer Of Property में Mortgage लेने वाले व्यक्ति की ड्यूटी
Shadab Salim
31 Jan 2025 6:14 AM

धारा 76 में कब्जा सहित बन्धकदार के दायित्वों का उल्लेख हुआ है। खण्ड (ग) तथा (घ) में वर्णित दायित्वों के सिवाय सभी दायित्व बाध्यकारी हैं। अतः किसी प्रतिकूल संविदा द्वारा इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक मामले में इनका अनुपालन होना आवश्यक है। सकब्जा बन्धकदार, बन्धक सम्पत्ति के न्यासी की हैसियत से होता है।
इस धारा के अन्तर्गत उसके निम्नलिखित दायित्व हैं :-
(क) सामान्य प्रज्ञा से सम्पत्ति का प्रबन्ध करना - यह खण्ड उपबन्धित करता है कि बन्धकदार सामान्य प्रज्ञा वाले व्यक्ति की भाँति बन्धक सम्पत्ति का प्रबन्ध करे। उससे इस प्रकार कार्य करना अपेक्षित है, जैसे वह उसकी अपनी सम्पत्ति हो। उससे विशिष्ट कौशल एवं सावधानी अपेक्षित नहीं है। इतना ही पर्याप्त है कि वह सामान्य प्रज्ञा वाले व्यक्ति की भाँति कार्य करे।
उदाहरण स्वरूप, यदि बन्धक सम्पत्ति कृषि भूमि है तो बन्धकदार द्वारा उसमें साधारण किस्म की फसल उगाना पर्याप्त होगा। यदि उसकी किसी गलती के बगैर उपज कम हो जाती है तो वह जवाबदेह नहीं होगा, किन्तु यदि उसकी उपेक्षा सिद्ध हो जाती है तो उसके लिए जवाबदेह होगा। इसी प्रकार उससे यह अपेक्षित है कि वह बन्धक सम्पत्ति की मरम्मत कराये और ऐसा करने में यदि वह चूक करता है तो उत्तरदायी होगा और उसे क्षतिपूर्ति अदा करनी होगी।
(ख) भाटकों एव लाभों को वसूल करना - सकब्जा बन्धकदार का यह दायित्व है कि वह सम्पत्ति से उद्भूत भाटकों एवं प्रलाभों को वसूल करे, पर वह ऐसे भाटकों को वसूल करने के दायित्वाधीन नहीं होगा जिन्हें उचित प्रयास के बावजूद भी प्राप्त नहीं किया जा सकता हो। बनारसी प्रसाद बनाम रामनारायन के वाद में प्रिवी कौंसिल ने अभिप्रेक्षित किया था कि "बन्धकदार केवल उन भाटकों तथा लाभों के लिए उत्तरदायी है जिन्हें उसने प्राप्त किया था या जो उसके बदले प्राप्त किये गये थे या जो उसके द्वारा भी की गयी उपेक्षा के कारण प्राप्त नहीं किये जा सके।"
यह सुनिश्चित करना बन्धकदार का दायित्व है कि जहाँ तक सम्भव है, सभी भाटक वसूल किये जाएं। और उनका समुचित लेखा रखा जाए। बन्धकदार बन्धककर्ता तथा उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति के प्रति जवाबदेह है।
(ग) सरकारी राजस्व का भुगतान- किसी प्रतिकूल संविदा के अभाव में सकब्जा बन्धकदार सरकारी राजस्व का भुगतान करने के दायित्वाधीन होता है। उसका यह दायित्व दो तथ्यों के अध्यधीन है :-
(i) उक्त राजस्वों का भुगतान सम्पत्ति से होने वाली आय से सम्भव है, तथा
(ii) उक्त राजस्वों के भुगतान का दायित्व तब उत्पन्न होगा जब सम्पत्ति उसके कब्जे में आ चुकी हो।
यह खण्ड बन्धककर्ता और बन्धकदार के पारस्परिक दायित्वों का उल्लेख करता है। यह किसी तीसरे पक्षकार को कोई अधिकार नहीं प्रदान करता है।
यदि बन्धकदार और बन्धककर्ता के बीच कोई करार हुआ है जिसके फलस्वरूप बन्धककर्ता ने इन राजस्वों के भुगतान का दायित्व स्वयं ले लिया है तो बन्धकदार इनके भुगतान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा भले ही सम्पत्ति उसके कब्जे में हो।
धारा 76 (ग) के अन्तर्गत बन्धकदार का दायित्व केवल सरकार के देयता तक का भुगतान करने तक सीमित है। अन्य दायित्वों के लिये वह बाध्य नहीं है। उदाहरण के लिये कृषि भूमि आयकर का भुगतान बन्धकदार का दायित्व नहीं है, क्योंकि यह देयता भू-स्वामी होने के कारण बन्धककर्ता का दायित्व है। यह भू-सम्पत्ति के सम्बद्ध नहीं है। अतः बन्धकदार आयकर देयता का भुगतान करने के दायित्वाधीन नहीं है।
(घ) मरम्मत - बन्धकदार का प्रथम दायित्व यह है कि सरकारी राजस्व का भुगतान करे और ब्याज का भुगतान करे। इन भुगतानों के पश्चात् यदि कोई धन अवशिष्ट बचता है तो उस अवशिष्ट धन से उसे बन्धक सम्पत्ति की मरम्मत करनी होगी। पर यदि अवशिष्ट धनराशि नहीं है तो वह मरम्मत कराने के दायित्वाधीन नहीं है।
बन्धकदार से यह अपेक्षित नहीं है कि वह मरम्मत का कार्य सम्पन्न कराकर बन्धक धन में वृद्धि करे पूर्वोक्त की भाँति यह दायित्व भी तत्प्रतिकूल संविदा के अध्यधीन है। यदि प्रतिकूल संविदा है तो बन्धकदार मरम्मत कराने के दायित्वाधीन नहीं होगा।
(ङ) क्षति - खण्ड (ङ) अपेक्षा करता है कि बन्धकदार सम्पत्ति को नष्ट न करे या स्थायी नुकसान न पहुँचाये। यह खण्ड धारा 66 तथा धारा 108 (ण) के समतुल्य है। इस खण्ड में इस सत्य के निर्धारण हेतु कौन कृत्य सम्पत्ति के लिए नाशकारक है और कौन कृत नहीं, कोई प्रकाश नहीं डाला गया है। इसका निर्धारण प्रत्येक तथ्य की परिस्थिति के आधार पर किया जाता है। उदाहरणस्वरूप बन्धक के समय, बन्धक सम्पत्ति पर खड़े वृक्षों को काटना, क्षतिकारक है लेकिन यदि वह स्वयं द्वारा लगाये वृक्षों को काटता है, तो यह कार्य क्षतिकारक या हानिकारक नहीं है।" इसके विपरीत यदि वह पेड़ों को इसलिए काटता है कि जमीन में सुधार कर उसमें फसल उगायी जाए और उसकी उत्पादकता बढ़ायी जाए तो ऐसा कार्य क्षति कारक नहीं होगा, फिर भी बन्धकदार पेड़ काटने के लिए क्षतिपूर्ति अदा करने के दायित्वाधीन होगा। बन्धकदार का यह परम कर्तव्य होता है कि वह बन्धक सम्पत्ति पर होने वाले समस्त कार्यों नैसर्गिक या मानवीय की सूचना बन्धककर्ता को देता रहे।
(च) बीमा - धारा 72 बन्धकदार को प्राधिकृत करती है कि यदि सम्पत्ति पहले से ही बन्धककर्ता द्वारा बीमाकृत नहीं है और दोनों के बीच कोई तत्प्रतिकूल संविदा नहीं है तो वह उस सम्पत्ति का बीमा कराएँ। बीमा कराने में जो धनराशि व्यय होगी उसे वह बन्धक धन में जोड़ने का हकदार होगा। बीमा से जो आय होगी उस आय को बन्धकदार सम्पत्ति को स्थापित करने में प्रयोग करने के दायित्वाधीन है, पर तब जब बन्धककर्ता इस आशय का निर्देश दे।
(छ) लेखा - इस खण्ड में बन्धकदार से यह अपेक्षित है कि वह सभी प्राप्तियों एवं खर्ची का सही-सही हिसाब रखे और बन्धक के दौरान बन्धककर्ता की प्रार्थना तथा खर्च पर उस प्राप्ति एवं व्यय को सत्य प्रतिलिपि उसे प्रदान करे, साथ ही उन कागजातों को भी प्रस्तुत करेगा जिससे लेखा का सही-सही आकलन हो सके। बन्धकदार से ऐसा करना किसी निश्चित तिथि पर अपेक्षित नहीं है।
बन्धककर्ता जब भी इस आशय का अनुरोध करेगा, उसे, उसके अनुरोध को पूर्ण करना होगा। बन्धकदार ने सम्पत्ति के कब्जे के दौरान उससे जो कुछ भी प्राप्त किया है, उसका दायित्व उसी तक सीमित नहीं है, बल्कि उस तक विस्तारित है जो कुछ उसने प्राप्त किया होता या प्राप्त करना चाहिए था सम्यक् लेखा तैयार करने में की गयी उपेक्षा से वह अपने आप को मुक्त नहीं कर सकेगा। इस खण्ड के अन्तर्गत उसका यह परम दायित्व है। वह इस दायित्व से अपने आप को मुक्त नहीं कर सकता है
यदि बन्धकदार ऐसा नहीं करता है तो वह न केवल वास्तविक प्राप्तियों के लिए उत्तरदायी होगा अपितु उस सबके लिए भी जो उसे प्राप्त करना चाहिए था। उदाहरण स्वरूप यदि बन्धकदार सम्पत्ति को पट्टे पर उस दर से कम दर पर जो उस क्षेत्र में प्रचलित है, देता है तो वह अतिरिक्त भाटक का भुगतान करने के दायित्वाधीन होगा जो उसने, यदि प्रचलित दर पर पट्टा किया होता तो प्राप्त किया होता।
(ज) लेखा तैयार करने की विधि - यह खण्ड लेखा तैयार करने के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करता है। बन्धक सम्पत्ति से प्राप्त आय को निम्नलिखित प्रकार से प्रयोग में लाया जाएगा:-
(1) सम्पत्ति के प्रबन्ध, भाटकों एव प्रलाभों के संग्रह तथा अन्य व्ययों जिनका उल्लेख धारा 76 (ग) और (घ) में हुआ है, के सम्बन्ध में हुए व्यय।
(2) उपरोक्त पर लगे ब्याज़ के भुगतान।
(3) बन्धकधन पर लगने वाले ब्याज़ के भुगतान हेतु
(4) बन्धक धन के भुगतान हेतु।
(5) अवशिष्ट, यदि कोई हो, तो बन्धककर्ता को प्रदान करने हेतु बन्धकदार का लेखा प्रस्तुत करने का दायित्व प्रारम्भिक डिक्री पारित होने के बाद और अन्तिम डिक्री पारित होने तक बना रहता है। आनन्दराम बनाम प्रेम राज के वाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि इस धारा के खण्ड (घ) और खण्ड (ज) के बीच विरोधाभास है, पर उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर और यह किया कि खण्ड (घ) का उद्देश्य प्राथमिकता निर्धारित करना नहीं है, अपितु तत्प्रतिकूल संविदा न होने की स्थिति में आवश्यक मरम्मतों को पूर्ण करना है। उक्त खण्ड यह भी उपबन्धित करता है कि मरम्मत के कार्य में कितना धन व्यय किया जा सकेगा। खण्ड (घ) के विपरीत, यह खण्ड उन प्राथमिकताओं का उल्लेख करता है जिनके लिए बन्धक सम्पत्ति से प्राप्त आय को खर्च किया जा सकेगा।
(झ) निविदा या निक्षेप का प्रभाव- यदि बन्धककर्ता, बन्धक पर तत्समय शोध्य रकम न्यायालय में जमा कर देता है या जमा करने की निविदा करता है, तो बन्धकदार का यह दायित्व होगा कि वह बन्धक सम्पत्ति से प्राप्त आय का निविदा की तिथि से हिसाब रखे। उक्त तिथि से वह किसी व्यय की कटौती करने में सक्षम नहीं होगा।
इस धारा का अन्तिम पैराग्राफ बन्धकदार को दण्डनीय बनाता है यदि वह इस धारा द्वारा आरोपित दायित्वों का निर्वाह करने में विफल रहता है और जिसके कारण बन्धककर्ता को क्षति पहुँचती है। उदाहरण स्वरूप यदि बन्धकदार सरकारी राजस्व का भुगतान करने में विफल रहता है। और बन्धक सम्पत्ति को विक्रय से बचाने के लिए बन्धककर्ता को उसका भुगतान करना है तो वह उक्त धनराशि को पाने का हकदार होगा।