क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट अब जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता है?
Himanshu Mishra
19 Aug 2025 7:41 PM IST

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने M.K. Ranjitsinh बनाम Union of India (2024) मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें यह माना गया कि जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने का अधिकार भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार (Fundamental Right) है।
यह फैसला महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जीवन के अधिकार (Right to Life - Article 21) और समानता के अधिकार (Right to Equality - Article 14) की व्याख्या को और व्यापक बनाता है। इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय चिंता नहीं है, बल्कि सीधे-सीधे मानवाधिकार (Human Rights) और सतत विकास (Sustainable Development) से जुड़ा हुआ मुद्दा है।
संवैधानिक प्रावधान और मौलिक प्रश्न (Constitutional Provisions and Fundamental Issues)
न्यायालय ने माना कि जलवायु परिवर्तन का असर सीधे-सीधे अनुच्छेद 21 (Article 21) के जीवन के अधिकार पर पड़ता है। एक गरिमामय जीवन (Life of Dignity), स्वास्थ्य (Health) और सुरक्षित वातावरण (Safe Environment) तभी संभव है जब लोग जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों से सुरक्षित हों।
इसी प्रकार अनुच्छेद 14 (Article 14) में दिया गया समानता का अधिकार (Equality) भी प्रभावित होता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन का बोझ गरीब और कमजोर वर्गों, महिलाओं और बच्चों पर असमान रूप से पड़ता है।
इस व्याख्या से न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पर्यावरणीय हानि और जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई न करना केवल नीतिगत मुद्दा (Policy Matter) नहीं है, बल्कि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी है।
मौलिक अधिकारों का नया आयाम (New Dimension of Fundamental Rights)
इस फैसले ने मौलिक अधिकारों की व्याख्या में एक नया आयाम जोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी पर्यावरण के अधिकार (Right to Environment) को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना था। उदाहरण के लिए Subhash Kumar v. State of Bihar (1991) और M.C. Mehta v. Union of India (1987) में साफ-साफ कहा गया कि स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण नागरिकों का मौलिक अधिकार है।
अब इस निर्णय ने एक कदम आगे बढ़कर यह घोषित किया कि जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहना भी संविधान प्रदत्त अधिकार है। न्यायालय ने यह भी माना कि भले ही भारत में कई पर्यावरणीय कानून हैं, जैसे Environment Protection Act, 1986 या Wildlife Protection Act, 1972, लेकिन जलवायु परिवर्तन (Climate Change) पर केंद्रित कोई विशेष कानून नहीं है। इस खालीपन को संविधान के मौलिक अधिकार भर सकते हैं।
न्यायिक दृष्टांत और तर्क (Precedents and Judicial Reasoning)
अपने निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए न्यायालय ने पुराने निर्णयों का सहारा लिया। Rural Litigation and Entitlement Kendra v. State of U.P. (1985) में पर्यावरण संरक्षण को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया।
Vellore Citizens' Welfare Forum v. Union of India (1996) में सतत विकास (Sustainable Development), प्रदूषणकर्ता भुगतान सिद्धांत (Polluter Pays Principle) और एहतियाती सिद्धांत (Precautionary Principle) को मान्यता दी गई। T.N. Godavarman v. Union of India (1997) में जंगलों के संरक्षण को लेकर विस्तृत दिशा-निर्देश दिए गए।
इन सभी दृष्टांतों के आधार पर न्यायालय ने माना कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक और अस्तित्वगत संकट (Existential Crisis) है, जिसे अब मौलिक अधिकारों के तहत मान्यता देना जरूरी है।
अंतरराष्ट्रीय कानून और तुलनात्मक न्यायशास्त्र (International Law and Comparative Jurisprudence)
न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं (International Commitments) पर भी ज़ोर दिया, जैसे कि Paris Agreement और United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC)। इसके साथ ही अन्य देशों के फैसलों का भी उल्लेख किया।
उदाहरण के लिए Urgenda Foundation v. Netherlands (2019) में नीदरलैंड्स की सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य को ग्रीनहाउस गैस (Greenhouse Gas) उत्सर्जन घटाना होगा क्योंकि यह मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
इस तरह भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भी खुद को वैश्विक न्यायिक प्रवृत्तियों (Global Judicial Trends) के साथ जोड़ा।
विकास और जलवायु न्याय का संतुलन (Balance between Development and Climate Justice)
न्यायालय के सामने यह प्रश्न भी था कि विकास (Development) और पर्यावरण संरक्षण (Environmental Protection) को कैसे संतुलित किया जाए। न्यायालय ने कहा कि विकास पर्यावरण को नष्ट करके नहीं किया जा सकता। Indian Council for Enviro-Legal Action v. Union of India (1996) के सिद्धांतों को दोहराते हुए न्यायालय ने कहा कि सतत विकास ही मार्गदर्शक सिद्धांत होना चाहिए।
इस मामले में खास बात यह थी कि नवीकरणीय ऊर्जा (Renewable Energy) जैसे सौर ऊर्जा (Solar Power) और पवन ऊर्जा (Wind Energy) परियोजनाएँ भी सवाल में थीं। न्यायालय ने 19 अप्रैल 2021 के अपने आदेश में संशोधन करते हुए कहा कि पक्षियों के संरक्षण (जैसे Great Indian Bustard) और नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार, दोनों साथ-साथ चलने चाहिए क्योंकि दोनों ही जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए आवश्यक हैं।
संस्थागत जिम्मेदारी और शासन (Institutional Responsibility and Governance)
न्यायालय ने केंद्र सरकार को यह याद दिलाया कि वह स्पष्ट जलवायु नीतियाँ (Climate Policies) बनाए और मौजूदा पर्यावरण कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करे। इस निर्णय ने सरकार पर यह दायित्व डाला कि वह केवल योजनाएँ बनाने तक सीमित न रहे बल्कि उन्हें धरातल पर भी उतारे।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने के अधिकार को मौलिक अधिकार मान लेना भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र (Constitutional Jurisprudence) में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह पुराने पर्यावरणीय फैसलों पर आधारित है, अंतरराष्ट्रीय कानून से प्रेरित है और भारतीय कानून में मौजूद खालीपन को भरता है।
अब जलवायु परिवर्तन को केवल भविष्य की चिंता नहीं बल्कि वर्तमान का संवैधानिक मुद्दा माना गया है। इस निर्णय ने नागरिकों को एक सशक्त साधन दिया है जिससे वे राज्य को जवाबदेह बना सकते हैं। यह फैसला इस बात का प्रमाण है कि भारतीय संविधान को बदलते समय और वैश्विक संकटों को देखते हुए लचीले ढंग से लागू किया जा सकता है।

