क्या न्यायिक अनुक्रम सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पूर्ण पालन अनिवार्य बनाता है?
Himanshu Mishra
21 Aug 2025 5:51 PM IST

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने M/s Ireo Grace Realtech Pvt. Ltd. v. Sanjay Gopinath मामले में यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया कि क्या न्यायिक अनुक्रम (Judicial Hierarchy) की पवित्रता बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन हर स्थिति में अनिवार्य है। यह विवाद मूल रूप से उपभोक्ता विवाद (Consumer Dispute) से जुड़ा था, लेकिन अदालत ने इससे कहीं अधिक व्यापक संवैधानिक (Constitutional) और विधिक (Legal) सिद्धांतों पर प्रकाश डाला।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश केवल पक्षकारों (Parties) पर ही नहीं, बल्कि अधीनस्थ न्यायालयों (Subordinate Courts) और न्यायाधिकरणों (Tribunals) पर भी बाध्यकारी (Binding) होते हैं।
न्यायिक अनुक्रम और संवैधानिक ढांचा (Judicial Hierarchy and Constitutional Framework)
भारत की न्यायिक प्रणाली (Judicial System) एक स्पष्ट अनुक्रम (Hierarchy) पर आधारित है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट सबसे ऊपर स्थित है। संविधान के अनुच्छेद 141 में यह स्पष्ट किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून (Law Declared) पूरे देश की अदालतों पर बाध्यकारी है। इसी प्रकार, अनुच्छेद 144 सभी सिविल (Civil) और न्यायिक अधिकारियों (Judicial Authorities) को सुप्रीम कोर्ट की सहायता करने का दायित्व देता है।
इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को अनदेखा करना किसी भी अधीनस्थ संस्था (Subordinate Forum) के लिए स्वीकार्य नहीं है। उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) जैसे विशेष न्यायाधिकरण (Special Tribunal) भी इन आदेशों से बंधे हुए हैं।
अवमानना (Contempt) और न्यायिक उल्लंघन (Judicial Defiance)
मुख्य चिंता यह थी कि NCDRC के सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट के संरक्षणात्मक आदेश (Protective Order) के बावजूद कंपनी के निदेशकों (Directors) के खिलाफ गैर-जमानती वारंट (Non-Bailable Warrants) जारी कर दिए। यह न्यायालय के आदेश की सीधी अवमानना (Contempt of Court) थी।
सुप्रीम कोर्ट पहले भी यह सिद्धांत स्थापित कर चुका है कि आदेशों की जानबूझकर अवहेलना (Wilful Disobedience) अवमानना है। Supreme Court Bar Association v. Union of India (1998) और E.M. Sankaran Namboodripad v. T. Narayanan Nambiar (1970) में यह स्पष्ट किया गया। हाल ही में Prashant Bhushan, In Re (2020) में भी अदालत ने कहा कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा (Authority of Judiciary) को कमजोर करने वाले हर कदम का विरोध किया जाएगा।
जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Life and Liberty)
न्यायालय ने यह भी कहा कि गैर-जमानती वारंट (Non-Bailable Warrant) जारी कर निदेशकों की स्वतंत्रता (Liberty) को खतरे में डालना, संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा संरक्षित मौलिक अधिकार (Fundamental Right) का उल्लंघन है।
इससे पहले Maneka Gandhi v. Union of India (1978), DK Basu v. State of West Bengal (1997) और Justice K.S. Puttaswamy v. Union of India (2017) जैसे मामलों में अदालत ने जीवन और स्वतंत्रता के महत्व को सर्वोच्च माना था।
यह आदेश भी यही दोहराता है कि कोई भी न्यायिक संस्था (Judicial Body) जबरदस्ती के आदेश देते समय संवैधानिक अधिकारों (Constitutional Rights) की अनदेखी नहीं कर सकती।
माफी और न्यायिक उत्तरदायित्व (Apology and Judicial Accountability)
जब अवमानना का नोटिस (Contempt Notice) जारी किया गया, तो NCDRC के सदस्यों ने बिना शर्त और पूर्ण माफी (Unconditional and Unqualified Apology) मांगी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार किया, लेकिन साथ ही यह चेतावनी भी दी कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं दोहराई जानी चाहिए।
यह संदेश स्पष्ट था कि माफी भले ही तत्काल सज़ा से बचा ले, लेकिन न्यायिक उत्तरदायित्व (Judicial Accountability) हमेशा कायम रहता है।
संस्थागत सम्मान और विधि का शासन (Institutional Respect and Rule of Law)
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायिक अनुक्रम का सम्मान (Respect for Hierarchy) केवल औपचारिकता नहीं है बल्कि विधि के शासन (Rule of Law) का आधार है। अगर अधीनस्थ संस्थाएँ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करेंगी तो न्याय व्यवस्था (Justice System) में अस्थिरता और अविश्वास पैदा होगा।
Union of India v. K.M. Shankarappa (2001) और East India Commercial Co. Ltd. v. Collector of Customs (1962) जैसे मामलों में भी यह सिद्धांत स्थापित किया गया था कि अधीनस्थ संस्थाएँ (Subordinate Authorities) उच्चतर न्यायालयों (Superior Courts) के आदेशों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश (Directions of the Supreme Court)
ऐसी स्थिति की पुनरावृत्ति रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया कि विवादित निष्पादन आवेदन (Execution Application) को NCDRC की दूसरी पीठ (Bench) में स्थानांतरित कर दिया जाए। यह दिखाता है कि अदालत केवल अधिकारों की रक्षा ही नहीं करती बल्कि न्याय प्रक्रिया (Justice Process) की निष्पक्षता (Fairness) को भी सुनिश्चित करती है।
अनुच्छेद 142 के तहत अदालत को पूर्ण न्याय (Complete Justice) प्रदान करने का विशेष अधिकार है, और यह निर्णय उसी का उदाहरण है।
व्यापक संवैधानिक महत्व (Broader Constitutional Significance)
यह मामला केवल रियल एस्टेट विवाद या किसी न्यायाधिकरण के व्यवहार तक सीमित नहीं था। यह सीधे संवैधानिक सिद्धांतों (Constitutional Principles) से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने फिर से स्पष्ट किया कि वह अंतिम निर्णायक संस्था (Final Arbiter) है और उसका आदेश हर संस्था पर बाध्यकारी है।
यह निर्णय न्यायपालिका में अनुशासन (Judicial Discipline), नागरिकों के मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) और संस्थागत विश्वास (Institutional Trust) को एक साथ मजबूत करता है।
M/s Ireo Grace Realtech Pvt. Ltd. v. Sanjay Gopinath का आदेश यह याद दिलाता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन न्यायिक अनुक्रम और विधि के शासन के लिए अनिवार्य है। अदालत ने NCDRC को चेतावनी देते हुए यह भी सुनिश्चित किया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की रक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता बनी रहे।
इस निर्णय का व्यापक संदेश यही है कि कोई भी संस्था सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती। ऐसा करना न केवल विधिक अनुक्रम (Judicial Hierarchy) का उल्लंघन है बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए भी खतरा है।
इस प्रकार यह आदेश न्यायपालिका की गरिमा (Dignity), अधिकारिता (Authority) और जनता के विश्वास (Public Confidence) को और अधिक मजबूत करता है।

