हिन्दू विधि भाग 8 : जानिए हिंदू मैरिज एक्ट के अधीन विवाह विच्छेद (Divorce) कैसे होता है

Shadab Salim

27 Aug 2020 5:45 AM GMT

  • हिन्दू विधि भाग 8 : जानिए हिंदू मैरिज एक्ट के अधीन विवाह विच्छेद (Divorce) कैसे होता है

    प्राचीन शास्त्री हिंदू विधि के अधीन हिंदू विवाह एक संस्कार है। विवाह हिंदुओं का एक धार्मिक संस्कार है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक पुरुष को तब ही पूर्ण माना गया है, जब उसकी पत्नी और उसकी संतान हो। प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन हिंदू विवाह में संबंध विच्छेद जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी, तलाक शब्द मुस्लिम विधि में प्राप्त होता है तथा रोमन विधि में डायवोर्स शब्द प्राप्त होता है परंतु शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन विवाह विच्छेद जैसी कोई उपधारणा नहीं रही है, क्योंकि हिंदुओं में विवाह एक पवित्र संस्कार है जो अग्नि को साक्षी रखकर बांधा जाता है।

    यह नाता जन्म जन्मांतर का नाता होता है। समय और परिस्थितियां बदलती गईं, मनुष्य की आवश्यकताएं तथा उसके आचरण में परिवर्तन आता गया। प्राचीन समय में शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन विवाह को एक संस्कार माना जाता था, किन्तु समय के साथ विवाह एक संविदा के रूप में आता गया।

    स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वर्ष 1955 में आधुनिक हिंदू विधि की रचना की गई। इस विधि के अधीन आधुनिक हिंदू विवाह अधिनियम बनाया गया तथा इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह के स्वरूप को संस्कार के साथ ही संविदा का भी रूप दिया गया। वर्तमान हिंदू विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन संस्कार और संविदा का एक मिश्रित रूप है।

    अब यदि हिंदू विवाह संस्कार है तो इस संस्कार के लिए प्रतिषिद्ध नातेदारी और सपिंड नातेदारी जैसी व्यवस्था की गई है। यदि हिंदू विवाह संविदा है तो संविदा की भांति ही इसमें शून्य विवाह और शून्यकरणीय विवाह का समावेश किया गया है। कोई भी विवाह शून्य और शून्यकरणीय न्यायालय की आज्ञप्ति से घोषित किया जा सकता है। इस ही भांति हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 के अंतर्गत तलाक की व्यवस्था की गई है। इस धारा के अंतर्गत विवाह के विघटन का उल्लेख किया गया है।

    विवाह विच्छेद की शक्ति वैवाहिक अधिकार का स्वाभाविक परिणाम है। इस प्रकार जीवन में संस्कारों की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई। उसी प्रकार हिंदू धर्म में विवाह को भी आवश्यक संस्कार के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। विवाह जीवन का आवश्यक अंग माना गया है।

    विवाह एक प्रेममय गृहस्थ जीवन के लिए है परंतु यदि यह विवाह जीवन में कलेश का कारण बन जाए तथा यह विवाह के पक्षकारों के भीतर उन्माद को भर के रख दे और दोनों के भीतर नफरत की आग जलने लगे तो ऐसी परिस्थिति में विवाह के संबंध को रखना कदापि औचित्यपूर्ण नहीं है।

    ऐसी परिस्थिति में विवाह का विघटन कर ही दिया जाना चाहिए। इस ही उद्देश्य की पूर्ति हेतु अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत विवाह विच्छेद की व्यवस्था की गई है।

    हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत होने वाले विवाहों को विघटित करना एक न्यायिक उपचार है। यह मुस्लिम विधि की तरह कोई व्यक्तिगत उपचार नहीं है अर्थात यदि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत 2 हिंदुओं के मध्य विवाह का अनुष्ठान किया गया है तो ऐसे विवाह का विच्छेद न्यायालयीन प्रक्रिया के माध्यम से होगा। हिंदू विवाह का विघटन न्यायालय की डिक्री के माध्यम से होता है। डायवोर्स की डिक्री हिंदू विवाह अधिनियम 1955 धारा 13 के अंतर्गत प्रदान की जाती है।

    यह अधिनियम न्यायालय को इस बात पर जोर देने के लिए आदेशित करता है कि वह किसी भी विवाह को सीधे ही विघटन न कर दे। इसके परिणामस्वरूप विवाह जैसी पवित्र संस्था दूषित हो जाएगी तथा इस विवाह से उत्पन्न होने वाली संताने व्यथित होंगी।

    यह अधिनियम न्यायिक पृथक्करण (Judicial separation) और दांपत्य अधिकारों के प्रत्यस्थापन ( Restitution of Conjugal Rights) के बाद भी बात नहीं बने तथा विवाह के पक्षकार पति और पत्नी का पुनर्मिलन नहीं हो तो संबंध विच्छेद की व्यवस्था का उल्लेख करता है।

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (धारा 13)

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ( (The Hindu Marriage Act, 1955) की धारा 13 दो हिंदुओं के बीच हुए हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह को कुछ आधारों पर विघटन करने हेतु उल्लेख कर रही है। धारा 13 के अनुसार विवाह का कोई भी पक्षकार पति या पत्नी इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले किसी वैध विवाह को विच्छेद करने हेतु तलाक हेतु न्यायालय के समक्ष आवेदन कर सकता है।

    विवाह के पक्षकार ऐसा आवेदन जिला न्यायालय के समक्ष करते हैं। जिला न्यायालय वह न्यायालय होता है जिसके क्षेत्र अधिकार के भीतर हिंदू विवाह के पक्षकार निवास कर रहे हैं या जिसके क्षेत्राधिकार के भीतर हिंदू विवाह के पक्षकारों ने अंतिम बार निवास किया है। जिला न्यायालय में विवाह के पक्षकार धारा 13 के अंतर्गत दिए गए आधारों पर विवाह विच्छेद के लिए याचिका प्रस्तुत करते हैं।

    आलेख में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन दिए गए उन आधारों का उल्लेख किया जा रहा है जिन आधारों पर विवाह विच्छेद की अर्जी विवाह के दोनों पक्षकारों में से किसी पक्षकार द्वारा प्रस्तुत की जा सकती है।

    1 जारकर्म (Adultery)

    जारकर्म अर्थात व्यभिचार। विवाह का कोई पक्षकार अपनी पत्नी या पति से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति से स्वेच्छापूर्वक मैथुन करता है अर्थात सेक्स करता है तो इस आधार पर विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायालय के समक्ष विवाह विच्छेद के लिए अर्जी प्रस्तुत कर सकता है।

    गीताबाई बनाम फत्तू एआईआर 1966 मध्य प्रदेश 130 के प्रकरण में कहा गया है कि एक विवाहित व्यक्ति किसी दूसरे विपरीत लिंग के साथ सेक्स क्रिया करे जो उसका पति या पत्नी नहीं है, यह जारकर्म कहलायेगा। विवाह के पक्षकार यदि अन्य व्यक्ति से लैंगिक संबंध स्थापित करते हैं तो ऐसा कृत्य नैतिकता के विरुद्ध और विवाह के पक्षकार के साथ विश्वासघात माना जाएगा। दांपत्य का अन्य स्त्री या पुरुष के साथ लैंगिक संबंध स्थापित किया जाता है यदि विपक्षी ने अपनी पत्नी अपने पति से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वेच्छा से विवाह के पश्चात मैथुन किया है तो विपक्षी जारता (Adultery) का दोषी माना जाएगा।

    2 क्रूरता (Cruelty)

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 के खंड (1) (क) के अनुसार क्रूरता (Cruelty) को विवाह विच्छेद का आधार बनाया गया है। दूसरे पक्षकार में विवाह के अनुष्ठान के पश्चात यदि अर्ज़ीदार के साथ क्रूरता का व्यवहार किया है तो अर्जीदार इस आधार पर न्यायालय के समक्ष अर्जी पेश कर संबंध विच्छेद के लिए याचिका कर सकता है। क्रूरता में शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की क्रूरता का समावेश किया गया है। हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत क्रूरता शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है परंतु समय समय पर आने वाले न्याय निर्णय के माध्यम से क्रूरता का अर्थ समृद्ध होता चला गया है।

    शोभा रानी बनाम मधुकर रेड्डी 1988 (1) सुप्रीम कोर्ट 105 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने क्रूरता शब्द की विवेचना विस्तार से की है। क्रूरता का शब्द हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत कहीं भी परिभाषित नहीं गया है किंतु फिर भी यह आचरण का एक ऐसा अनुक्रम है जिसमें कि विरोधी पक्षकार द्वारा अन्य दूसरा व्यक्ति प्रभावित होता है। क्रूरता मानसिक भौतिक आशय के रूप में हो सकती है।

    जहां क्रूरता भौतिक रूप में हो वहां क्रूरता एक तथ्य विषयक प्रश्न कहलायेगा किंतु जहां पर या मानसिक रूप में हो वहां पर यह जांच आवश्यक हो जाती है कि क्या क्रूरतापूर्ण व्यवहार मस्तिष्क की दोषपूर्णता का परिणाम है जिसके फलस्वरूप पति-पत्नी के संबंधों के मध्य कटु आई है।

    जहां मानसिकता इतनी क्रूर हो गई हो कि विवाह के पक्षकार एक दूसरे के साथ रहने में अपनी क्षति की आशंका हो तो वहां पर ऐसी दोषपूर्ण मानसिकता क्रूरतापूर्ण व्यवहार के समतुल्य होगा। यहां पर मानसिक क्रूरता के आधार पर पति-पत्नी के संबंधों में कटुता आई हो वहां क्रूरता तथ्य के अभिनिर्धारण के मामले के तथ्य तथा पक्षकारों के आचरण प्रमुख रूप से विचार योग्य होंगे।

    इंदिरा बनाम शैलेंद्र एआईआर 1993 मध्य प्रदेश 59 में कहा गया है कि मात्र इस आधार पर की पक्षकार दुखी है क्रूरता का सर्जन नहीं होता है। क्रूरता का केवल आशय ही नहीं पूर्ण रूप से यह आशंका भी होनी चाहिए कि वैवाहिक जीवन जारी रख पाना संभव नहीं है।

    सामान्य रूप से शारीरिक क्रूरता के संबंध में मारना पीटना, जला देना, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चीज खिला देना, भोजन न देना, अवैध रूप से बंद करके रखना यह सब शारीरिक क्रूरता है।

    मानसिक क्रूरता के संबंध में व्यभिचार का झूठा आरोप लगाना, पति पर उसकी भाभी के साथ अवैध संबंध होने का आरोप लगाना, दूसरा विवाह कर लेना संपूर्ण स्नेह व प्रेम नई पत्नी को ही देना , हमेशा डांटना, गाली देना, संभोग से सदैव इनकार करना या संभोग करने में असमर्थ रहना, किसी ऐसे रोग से पीड़ित होना जिससे शरीर से बदबू आए यह सब कुछ मानसिक क्रूरता है। इस आधार पर भी अर्ज़ीदार तलाक के लिए अर्जी प्रस्तुत कर सकता है।

    3 अभित्याग

    हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत अभित्याग के संबंध में कोई संगत परिभाषा नहीं है। अधिनियम में मान्य विवाह के एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को बिना युक्तियुक्त कारण के बिना सहमति के अथवा ऐसे पक्षकार की इच्छा के विरुद्ध अभित्यक्त किए जाने की को उल्लेखित किया गया है। यह विवाह के अन्य पक्षकार द्वारा जानबूझकर उपेक्षा किए जाने से संबंधित है।

    अभित्याग का अर्थ है कि प्रार्थी का विवाह के दूसरे पक्षकार के द्वारा बिना किसी युक्तियुक्त कारण के उसकी सहमति के या उसकी इच्छा के विरुद्ध त्याग कर दिया गया है। विवाह के पक्षकारों का दायित्व है एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करें। विवाह की संस्था का जन्म ही व्यक्तियों को साथ साथ रखने के लिए हुआ है।

    जब विवाह का कोई पक्षकार बिना किसी कारण के अपने साथी को अकेला छोड़कर चला गया है तब अभित्यक्त पक्षकार का दांपत्य जीवन नष्ट हो जाता है। हिंदू अधिनियम द्वारा स्पष्ट किया गया कि कोई भी स्त्री या पुरुष अभित्याग नहीं कर सकता है।

    यदि कोई विपक्षी वर्षों तक वापस न आए उसके बगैर अपना जीवन गुजारना पड़ेगा। यह उसके साथ अन्याय होगा, इस हेतु ही अधिनियम के अंतर्गत अभित्याग के आधार पर तलाक की अर्जी पेश की जाने का अधिकार विवाह के पक्षकारों को दिया गया है। यदि कोई पक्षकार अर्ज़ीदार को 2 वर्ष तक निरंतर अभित्यक्त रखता है तो इस आधार पर तलाक की अर्जी प्रस्तुत की जा सकती है।

    4 धर्म परिवर्तन

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन हिंदू विवाह का कुछ अर्थ संस्कार भी है। इस ही के परिणामस्वरूप यदि विवाह का कोई पक्षकार हिंदू धर्म छोड़कर चला जाता है तथा किसी अन्य धर्म में संपरिवर्तित हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार तलाक के लिए अर्जी प्रस्तुत कर सकता है। यदि विवाह के पश्चात पत्नी हिंदू धर्म को त्याग कर मुस्लिम हो जाती है तथा मुस्लिम धर्म के अनुसार धार्मिक कार्य करने लगती है तो दोनों पति और पत्नी के मध्य प्रतिरोध उत्पन्न हो जाएगा। केवल हिंदू धर्म के अंतर्गत यदि किसी पंथ का त्याग करके अन्य पंथ को स्वीकार कर लिया जाता है तो उसे धर्म परिवर्तन नहीं कहेंगे।

    हिंदू धर्म में विभिन्न संप्रदाय हैं। यदि एक व्यक्ति पंथ विशेष को छोड़कर दूसरे समुदाय का सदस्य बन जाता फिर भी वह हिन्दू रहता है परंतु यदि वह मुस्लिम,यहूदी, ईसाई या पारसी हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में इसे हिंदू धर्म त्यागना कहा जाएगा। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत हिंदू शब्द की विस्तृत परिभाषा दी गई है, जिसमें सिख जैन बौद्ध को भी हिंदू ही माना गया है तथा उन पर भी यही अधिनियम लागू होता है।

    नारंग बनाम मीणा 1976 डब्ल्यू एल एन यूपी 413 के प्रकरण में पत्नी ने विवाह के पश्चात हिंदू धर्म का त्याग करके ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया, पत्नी के गैर हिंदू हो जाने पर विवाह विच्छेद की डिक्री पारित की गई।

    5 असाध्य रूप से विकृतचित्त

    यदि विवाह का कोई पक्षकार मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है और विकृतचित्त हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप कोई सहमति प्रदान करने में असमर्थ हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार विवाह के लिए अर्जी प्रस्तुत कर सकता है। यह अधिकार पति या पत्नी के पागल हो जाने पर व्यथित पक्षकार को दिया गया है। यह बिल्कुल उचित नहीं होगा कि विधि किसी व्यक्ति को पागल व्यक्ति के साथ साहचर्य करने के लिए बाधित करें। पागलपन सिद्ध किया जाने पर ही इस आधार पर तलाक दिया जाता है। पागलपन से आशय है किसी व्यक्ति का इतना पागल होना है कि वह कोई भी निर्णय ले पाने में असमर्थ हो जाए।

    6 कुष्ठ रोग और संक्रमित रोग हो जाना

    यदि विवाह के पक्षकार पति या पत्नी में से किसी को कोढ़ या एच आई वी जैसी संक्रमित बीमारी हो जाती है तो इस आधार पर भी न्यायालय द्वारा तलाक की आज्ञप्ति पारित की जा सकती है। कुष्ठ रोग संक्रामक रोग होता है। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमित हो जाता है। इस कारण दो व्यक्तियों का विवाह के सूत्र में बंधकर रह पाना कठिन हो जाता है।

    यदि कुष्ठ रोग उग्र रूप में है तथा उपचार करने योग्य नहीं है तो विवाह विच्छेद का एक आधार बन जाता है। उपचार करने योग्य शब्द उस कुष्ठ रोग की ओर संकेत करता है जो साधारण रूप से विख्यात इलाज द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।

    स्वराज लक्ष्मी बनाम डॉक्टर जी पदमराव के प्रकरण में पत्नी को कोढ़ की बीमारी थी इसलिए पति ने विवाह विच्छेद की याचिका प्रस्तुत की थी। पत्नी को टीबी की भी बीमारी थी, यह उसे दोनो संक्रमित बीमारी थी।

    पति स्वयं डॉक्टर था इसलिए उसने इलाज किया एवं अन्य डॉक्टरों से इलाज कराया। पत्नी को सोरायसिस होम में भर्ती कराना चाहा तो पत्नी का पिता पत्नी को अपने घर ले गया। पति ने विवाह के 3 वर्ष के भीतर न्यायालय की अनुमति से विवाह विच्छेद की याचिका प्रस्तुत की थी। अपील में उच्चतम न्यायालय ने पत्नी को उग्र रूप से कोढ़ से पीड़ित पाया और पति के पक्ष में धारा 13 (1) (4) के अधीन विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करना न्याय संगत मानते हुए पत्नी की अपील खारिज कर दी।

    7 संन्यास लेना

    अधिनियम की धारा 13 (1) (6) इस आधार पर विवाह के पक्षकारों में से किसी पक्षकार को तलाक की अर्जी पेश करने का अधिकार देती है कि यदि विवाह का कोई पक्षकार संन्यास ले चुका है। संन्यास का अर्थ होता है कि वह व्यक्ति जो संन्यास ग्रहण करता है तथा गृहस्थ जीवन व्यतीत नहीं करता है। उसे सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर देना होता है तथा उनकी कामना भी छोड़ देनी होती है। गृहस्थ जीवन सांसारिक जीवन का ही एक हिस्सा है।

    सीता दास बनाम संतराम एआईआर 1954 उच्चतम न्यायालय 606 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हिंदू विधि के अधीन जब एक व्यक्ति सांसारिक क्रियाकलाप का परित्याग करके संन्यासी हो जाता है तब उसका यह कार्य उसकी सांसारिक दृष्टिकोण से मृत्यु हो जाने के तुल्य माना जाता है। मात्र सिर मुंडवाने या पगड़ी बांध लेने से एक व्यक्ति संन्यासी नहीं हो जाता, इसके लिए गुरू की अध्यक्षता में कुछ औपचारिकताओं का पालन करना होता है।

    जब एक व्यक्ति को संन्यास लेता होता है तब सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि वह अपनी संपूर्ण संपत्तियों तथा सांसारिक कार्यों से त्यागपत्र दे देता है। यदि एक पति या पत्नी ने अपना घर छोड़ दिया है तथा संन्यासी कहा जाता है तो दूसरा पति या पत्नी मात्र इस आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर सकता है।

    8 मृत्यु की परिकल्पना

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन संपन्न हुए विवाह के पक्षकार पति या पत्नी में से कोई भी यदि विवाह के बाद 7 वर्ष तक गायब हो जाता है तथा उसके संदर्भ में किसी को कोई जानकारी नहीं रहती है, जिन लोगों को उसकी जानकारी होना चाहिए थी। उन लोगों को भी उसकी जानकारी नहीं होती है, ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार के पास यह अधिकार उपलब्ध है कि वह न्यायालय की शरण लेकर विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति प्राप्त कर सकता है।

    विवाह के पक्षकारों का अधिकार होता है कि विवाह के उपरांत उन्हें दांपत्य सुख प्राप्त हो परंतु किसी पक्षकार के गायब हो जाने से दूसरे पक्षकार को दांपत्य सुख प्राप्त नहीं होता है। इस कारण हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (7) यह परिकल्पित मृत्यु के आधार पर विवाह के पक्षकारों को संबंध विच्छेद का आधार उपलब्ध करती है।

    9 न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित होने के 1 वर्ष के अधिक समय तक पक्षकारों के मध्य समझौता नहीं होना

    जब न्यायालय द्वारा इस अधिनियम की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री किसी पक्षकार के पक्ष में पारित कर दी जाती है तथा ऐसी डिक्री के पारित होने के बाद 1 वर्ष तक पक्षकारों के मध्य किसी पक्षकार का कोई सेक्सुअल इंटरकोर्स नहीं होता है, दोनों आपस में कोई समझौता नहीं कर पाते हैं तो इस आधार पर भी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (क) (1) के अधीन विवाह विच्छेद के लिए अर्जी प्रस्तुत की जा सकती है।

    10 दांपत्य अधिकारों के प्रत्यस्थापन की आज्ञप्ति का उल्लंघन करने के कारण

    जब न्यायालय द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के अधीन दांपत्य अधिकारों के प्रत्यस्थापन लिए डिक्री पारित कर दी जाती है और ऐसी डिक्री जिस पक्षकार के विरुद्ध पारित की जाती है उस पक्षकार द्वारा उस डिक्री का पालन नहीं किया जाता है। एक वर्ष तक वह पक्षकार जिसके विरुद्ध डिक्री पारित की गई है साहचर्य का पालन नहीं करता है तो ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार के पास धारा 13 के अंतर्गत यह अधिकार उपलब्ध है कि वह न्यायालय के समक्ष विवाह विच्छेद हेतु अर्जी प्रस्तुत कर सकता है तथा न्यायालय के पास से यह अधिकार होगा कि वह विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति पारित कर सके।

    विवाह विच्छेद से संबंधित अगले लेख में पत्नी को प्राप्त विवाह विच्छेद के विशेष अधिकार, पारस्परिक विवाह विच्छेद तथा विवाह विच्छेद हेतु याचिका कब प्रस्तुत की जाएगी आदि विषय का उल्लेख किया जाएगा।

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