The Hindu Succession Act में विशेष शब्दों की परिभाषा
Shadab Salim
27 July 2025 7:11 PM IST

परिभाषा से अधिनियम के मतलब को समझा जाता है। अधिनियम के कुछ ऐसे शब्द जो बार बार काम आते है उन्हें परिभाषा खंड में दे दिया जाता है। यह एक प्रकार की अधिनियम की प्रस्तावना होती है जो कोर्ट को कानूनों के निर्वचन के संबंध में कोई विशेष कठिनाई नहीं आने देती है। यह परिभाषाएं कानून को उनके वही रूप में प्रस्तुत करती हैं जिस रूप में विधायिका अधिनियम को प्रस्तुत करना चाहती है। परिभाषाएं विधायिका के आशय से संबंधित होती हैं। परिभाषाओं के माध्यम से विधायिका के आशय को समझा जा सकता है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 का उद्देश्य हिन्दू परिवारों में संपत्ति के उत्तराधिकार को सुसंगत और व्यवस्थित करना है।
धारा 3 इस अधिनियम की नींव है, क्योंकि यह उन शब्दों और अवधारणाओं को परिभाषित करती है जो कानून के विभिन्न प्रावधानों में उपयोग किए गए हैं। ये परिभाषाएँ कानूनी स्पष्टता प्रदान करती हैं और विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या में एकरूपता सुनिश्चित करती हैं। धारा 3 में दी गई परिभाषाएँ न केवल कानूनी दस्तावेजों के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करती हैं कि हिन्दू उत्तराधिकार के नियम सभी संबंधित पक्षों के लिए स्पष्ट और समझने योग्य हों।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 3 कुछ परिभाषाएं प्रस्तुत करती हैं जिनमे विशेष शब्दों की परिभाषाएं निम्न है-
गोत्रज
हिंदू शास्त्रीय विधि के अधीन गोत्र का अधिक महत्व है। हिंदू शास्त्रीय विधि में गोत्र के माध्यम से किसी व्यक्ति की नस्ल का उल्लेख होता है। गोत्र का संबंध पुरुष से होता है। जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का गोत्रज होता है यदि वे दोनों केवल पुरुषों के माध्यम से संबंध रखते है या दत्तक के द्वारा संबंधित हो। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत गोत्रज उसे माना जाता है जो पुरुष पक्ष की तरफ से आपस में संबंधित होते हैं।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 3 के अंतर्गत स्पष्ट कर दिया गया है कि गोत्रज से अर्थ उन लोगों का है जो आपस में किसी पुरुष की तरफ से संबंधित होते हैं जैसे कि दो भाइयों के बच्चे आपस में गोत्रज होंगे।
बंधु
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत बंधु का अर्थ जब कोई दो व्यक्ति आपस में केवल पुरुषों की तरफ से संबंधित नहीं होते हैं तो वह बंधु होते हैं।
कृष्ण चंद्र नायक बनाम निशामणि एआईआर 1987 उड़ीसा 105 में हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि निशा ने भिखारी की विधवा के रूप में संपत्ति प्राप्त की थी इसलिए निशा मणि की मृत्यु होने पर धारा 15( 2) क लागू होगी क्योंकि महिला ने आधी संपत्ति पति ससुर से प्राप्त की है तो उसके पुत्र पुत्रियां में पुत्र पुत्रियों के पुत्र पुत्री न होने पर संपत्ति पति के वारिस को उत्तराधिकार में प्राप्त होगी। इस अधिनियम के अंतर्गत बंधु का महत्व इसलिए है क्योंकि यदि किसी निर्वसीयत मरने वाले व्यक्ति के गोत्रज उपलब्ध नहीं होते हैं तो संपत्ति बंधु को प्राप्त होती है।
वारिस
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-3 के अनुसार वारिस शब्द के अंतर्गत वह सभी शामिल हैं जो किसी निर्वसीयत मरने वाले व्यक्ति की संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति के संबंध में वसीयत किए बिना मर जाता है तो इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत मृतक की संपत्ति प्राप्त करने के हकदार होंगे वह व्यक्ति के वारिस कहे जाते हैं।
सामान्य सा अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी बगैर वसीयत के मर जाने वाले व्यक्ति की संपत्ति में हक रखता है वह वारिस कहलाता है। वारिस शब्द एक विशाल शब्द है इस शब्द के अंतर्गत वह सभी व्यक्ति आ गए हैं जो किसी संपत्ति में उत्तराधिकार रखते हैं।
निर्वसीयती
कोई व्यक्ति जब अपनी संपत्ति के संबंध में बगैर वसीयत किए मर जाता है तो ऐसा व्यक्ति निर्वसीयती कहलाता है। उपेंद्र दास बनाम चिंतामणि देवी एआईआर 1963 कोलकाता के प्रकरण में कहा गया है कि एक निर्वसीयती हिंदू की मृत्यु हो गई तथा उसके मृत्यु के उपरांत उसकी एक विधवा 2 पुत्र जीवित थे जबकि वर्तमान अधिनियम के प्रारंभ हो जाने के पूर्व ही उत्तराधिकार संबंधी कार्यवाही प्रारंभ की जा चुकी थी वहां उत्तराधिकार को हिंदू स्त्री संपत्ति का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों द्वारा निर्धारित किया जाना था। इसके अतिरिक्त चूंकि निर्वसीयती की विधवा के पास कृषि योग्य भूमि के अतिरिक्त मृतक पति की संपत्तियों का विभाजन कराने का दावा करने का अधिकार था।
कोई भी ऐसा व्यक्ति जो बगैर वसीयत के मर गया है इस अधिनियम के संदर्भ में निर्वसीयती व्यक्ति कहलाता है। धारा 3 के अंतर्गत परिभाषा खंड में इस प्रकार के निर्वसीयती की परिभाषा दी गई है।

